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Hindi Essay on “Dev Dev Alsi Pukara”, “दैव-दैव आलसी पुकारा” Complete Paragraph, Nibandh for Students

दैवदैव आलसी पुकारा

Dev Dev Alsi Pukara

निबंध संख्या:- 01

संकेत बिंदुकहावत का अर्थअकर्मण्य व्यक्ति भाग्य के भरोसेआलसी व्यक्ति दैवदैव पुकारते हैं

इस कहावत का अर्थ है-अपने हाथों की शक्ति पर भरोसा करना चाहिए। जिस व्यक्ति में आत्म-विश्वास है, वह व्यक्ति जीवन में कभी असफल नहीं हो सकता; हाँ, जो व्यक्ति हर बात के लिए दूसरों का मुंह जोहता है, उसे अनेक बार निराशा का सामना करना पड़ता है। अकर्मण्य व्यक्ति ही भाग्य के भरोसे बैठता है। कर्मवीर व्यक्ति तो बाधाओं की उपेक्षा करते हुए अपने बाहुबल पर विश्वास रखते हैं। केवल आलसी लोग ही हमेशा दैव-दैव पुकारा करते हैं और कर्मशील व्यक्ति ‘देव-देव आलसी पुकारा’ कहकर उनका उपहास किया करते हैं। जीवन में सफलता केवल पुरुषार्थ से ही पाई जा सकती है। अकर्मण्य व्यक्ति सदा दूसरों का मुँह ताका करता है। वह पराधीन हो जाता है। स्वावलंबी व्यक्ति अपने भरोसे रहता है। वे तो असंभव को भी संभव बना देते हैं। पुरुषों में सिंह के समान उद्योगी पुरुष को ही लक्ष्मी प्राप्त होती है। ‘दैव देगा’ ऐसा कायर पुरुष कहा करते हैं। दैव को छोड़कर अपनी भरपूर शक्ति से पुरुषार्थ करो और फिर भी कार्य सिद्ध न हो तो सोचिए कि कहाँ और क्या कमी रह गई है। आलस्य मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है। इससे जावन का पतन हो जाता है। आलसी व्यक्ति न व्यापार कर सकता है, न शिक्षा ग्रहण कर सकता है। वह तो कायर बन जाता है। ससार की समस्त बुराइयाँ उसे बुरी तरह घेर लेती हैं। उसका जीवन निरर्थक हो जाता है। आलसी मनुष्य ही दैव या प्रारब्ध का सहारा लते हैं। कायर मनुष्य का जीवन निन्दित एवं तिरस्कृत होता है। उससे समस्त समाज घृणा करता है।

 

निबंध संख्या:- 02

दैव-दैव आलसी पुकारा

  • आलसी भाग्यवादी होता है
  • भाग्यवादी कर्महीन होते हैं
  • आलसी का जीवन

आलसी व्यक्ति देश, समाज व घर के लिए बेकार होता है। उसका जीवन निष्क्रिय होता है। आलसी से सफलता कोसों दूर भागती है। आलसी व्यक्ति सारा दिन अकर्मण्य होता है। वह भाग्य पर विश्वास करता है। वह उम्मीद करता है। कि ईश्वर उसकी रक्षा करेगा। उसकी प्रगति करेगा। वह संघर्ष करने से बचता है। उसे लगता है कि यह सब पूर्व जन्मों का फल है। ऐसे व्यक्ति कभी भी विकास नहीं कर पाते तथा समाज व राष्ट्र पर बोझ होते हैं। ये पराधीन ही रहते है। इनका जीवन उदासीनता से भरा होता है। वह अनेक बुराईयों की चपेट में आ जाता है। समाज व सरकार को ऐसे निष्क्रिय व्यक्तियों का उचित इलाज करना चाहिए।

( कुल शब्द – 150 )

 

निबंध संख्या:- 03

दैव-दैव आलसी पुकारा

“कातर मन करि एक अधारा, दैव-दैव आलसी पुकारा।”

जो व्यक्ति परिश्रम से बचते हैं अथवा आलस्य के कारण निर्धारित कार्यों को पूरा नहीं करते हैं, वे भाग्यवादी हुआ करते हैं और समय आने पर हे देव! हे देव! पुकार उठते हैं, यही भाव उपरोक्त पंक्तियों में अभिव्यक्त किया गया है, परन्तु सत्य यह है कि ईश्वर भी उन्हीं की सहायता करते हैं, जो स्वयं अपनी सहायता किया करते. हैं। अंग्रेजी में एक कहावत भी है :-

God helps those who help themselves.”

वस्तुतः किसी भी देश, व्यक्ति अथवा समाज की प्रगति का मूल आधार परिश्रम ही है। व्यक्ति के भाग्य का निर्माण भी कर्म के अनुसार ही होता है। अतः अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए जो व्यक्ति निरन्तर परिश्रम करता है, वह धन, अन्न, स्वास्थ्य, ज्ञान, योग्यता, कौशल आदि स्वयं उसके पास पहुँच जाते हैं। उसे किसी की सहायता अथवा दया की आवश्यकता नहीं होती है। वह स्वयं अपने भाग्य का निर्माण करता है। इस सम्बन्ध में कवि नलिन की ये पंक्तियां उचित ही हैं किः

“जीवन एक जुनून मानो तो श्रम उसका फल है।

देवों की वरदान शक्ति भी, उसके आगे कम है।”

आदिकाल से आज तक मानव के द्वारा जो कुछ भी प्राप्त किया गया है, वह उसके श्रम का ही परिणाम है। सागर पर तैरते हुए विशाल जलपोत, अन्तरिक्ष को जाते हुए यान, तीव्रगति से दौड़ती हुई रेलें, बड़े-बड़े बाँध और गगन को चूमती हुई कई-कई मंजिली इमारतें, सभी मानव के श्रम की गाथा सुना रही हैं। इसलिए यह कहा गया है कि ‘परिश्रम ही सफलता की कुंजी है।’

‘सत्यमेव जयते’ अर्थात सत्य की ही जय होती है का नारा भी उसके मूल्य को ध्यान में रखकर दिया गया है।

वस्तुतः स्वर्ग और नरक इस पृथ्वी पर ही हैं। मनुष्य अपने परिश्रम के बल पर ही धरती को स्वर्ग बना सकता है। और स्वर्ग का आनन्द प्राप्त कर सकता है। इसलिए गीता में परिश्रम युक्त कर्म की महत्ता पर बल देते हुए भगवान कृष्ण कहते हैं-

“कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन् ।”

जीवन का कोई भी क्षेत्र हो, जब तक परिश्रम ही महत्ता दृष्टिगोचर होती है। जो लोग आलस्य के कारण परिश्रम से बचते हैं वे अपने जीवन में दुर्भाग्य, निर्धनता, अज्ञान और विपदाओं को ही आमन्त्रित करते हैं, अतः आलस्य हमारा प्रबल शत्रु है।

“आलस्यं ही मनुष्याणां शरीर एशो महान रिपुः ।”

इस संसार में जितने भी महापुरुष हुए हैं उनकी सफलता का रहस्य यही था कि वे अनवरत रूप से परिश्रम करते रहे। परिश्रमयुक्त कर्म के द्वारा ही उन्होंने ईश्वर की आराधना की। किसी भी प्रकार के अवरोध से वे विचलित नहीं हुए और निरन्तर अपने पथ पर आगे बढ़ते रहे। पढ़ाई हो अथवा खेल, समाज-सुधार का कर्म हो अथवा किसी कलाकृति के निर्माण का, सभी में परिश्रम की आवश्यकता है। क्रिकेट के खेल में यदि आपको अच्छे स्तर की गेंदबाजी अथवा बल्लेबाजी करनी है तो आपको निरन्तर सुबह-शाम अभ्यास करना होगा। जो अधिकाधिक अभ्यास करेगा वही अधिक सफल होगा। इसी प्रकार जो नियमित रूप से निर्धारित समय पर परिश्रमपूर्वक अध्ययन करेगा वही परीक्षा में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होगा। जो आलस्यवश देर तक सोता रहेगा आज का काम कल पर टालता रहेगा प्रतिदिन का गृहकार्य नहीं करेगा उसकी दुर्दशा ही होगी और वह एक दिन अपने साथियों से पिछड़ जाएगा। हमें यह सोचना चाहिए कि हम आलसियों के समान परिश्रम से नहीं भागेंगे। और प्रतिदिन का निर्धारित कार्य करने के बाद ही भोजन प्राप्त करने के अधिकारी बनेंगे। विनोबा भावे के अनुसार ही :-‘ –

बिनु श्रम खावै, चोर कहावै।”

अर्थात् जो बिना परिश्रम के भोजन ग्रहण करता है वह चोर कहलाता है।

श्रम दो प्रकार के होते हैं-शारीरिक श्रम व मानसिक श्रम। जो कार्य शरीर के द्वारा किया जाता है वह शारीरिक श्रम कहलाता है। जैसे क्यारी खोदना, बीज बोना, घर की सफाई करना, भवन निर्माण, चित्र निर्माण, भोजन पकाना आदि। यह श्रम कार्य शरीर के द्वारा किया जाता है। इसके विपरीत कुछ कार्य ऐसे होते हैं जो बुद्धि बल से किये जाते हैं। मन अथवा बुद्धि से किये जाने वाले कार्यों में मानसिक बल की आवश्यकता होती है। उदाहरण के लिए वकालत करना, अध्ययन, शिक्षण, लेखन आदि। हमारे जीवन में इन दोनों प्रकार की आवश्यकता होती है। अतः शरीर एवं मन दोनों का ही बल प्राप्त करने के लिए हमें दोनों प्रकार के कार्य करने चाहिएं। घर की सफाई, व्यायाम, अध्ययन लेखन आदि का काम किसी न किसी रूप में किसी न किसी मात्रा में प्रतिदिन ही किया जाना आवश्यक होता है।

परिश्रम मानव जीवन का मेरुदण्ड है। यह व्यक्ति के सफल होने के लिए परम आवश्यक है। मनुष्य से देवता बनने के लिए, अज्ञानी से ज्ञानी बनने के लिए परिश्रम का ही सहारा लेना पड़ता है।

( कुल शब्द – 750 )

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