Global Warming Vishv ki sabse Khatarnak Samasya “ग्लोबल वार्मिंग विश्व की सबसे खतरनाक समस्या” Hindi Essay, Paragraph in 1000 Words.
ग्लोबल वार्मिंग विश्व की सबसे खतरनाक समस्या
Global Warming Vishv ki sabse Khatarnak Samasya
विश्व के समान तापमान में वृद्धि होने से न सिर्फ भारत बल्कि पूरी दुनिया के सामने समस्या उत्पन्न हो जाएगी। वैश्विक ताप वृद्धि पर अगर नजर नहीं रखी गई और उसके गुणों-अवगुणों का पता न लगाया गया और उसका निदान न सोचा गया तो एक दिन विश्व को प्रकृति के सामने घुटने टेक देने पड़ेंगे। विज्ञान यूं ही पड़ा रह जाएगा। वह हमारे हित में कुछ भी न कर सकेगा।
2005 में जी-8 देशों की तीन दिवसीय बैठक में सबसे बड़ा मुद्दा (ग्लोबल वार्मिंग) ही सबसे पीछ छूट गया। अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा, रूस, फ्रांस, जर्मनी और जापान जैसे 8 विकसित देशों की, महत्त्व के मुद्दों पर आम राय बनाने के लिए ही बैठक बुलाई गई थी। बाकी मुद्दों के अलावा ग्लोबल वार्मिंग जैसे मुद्दे ने बैठक में सभी का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया। इस बैठक की वास्तविकता यह रही कि जलवायु परिवर्तन से जुड़े ग्लोबल वार्मिंग के इस मुख्य मुद्दे पर अमेरिका के अन्य देशों के साथ मतभेद भी खुलकर सामने आ गए। इस बैठक की समाप्ति पर मात्र ढुलमुल प्रस्ताव ही पारित किया गया। साफ जाहिर है अमेरिका विकासशील देशों की परवाह किए बगैर यहाँ भी अपना एकल प्रभुत्व जमाने में सफल हो गया। वास्तव में यह सारी की सारी कवायद विकसित देशों में ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी करने को लेकर थी, मगर इन गैसों के उत्सर्जन को रोकने के लिए प्रस्ताव में न तो कोई लक्ष्य तय किया गया, न ही कोई समय सीमा। यहाँ तक कि अमेरिका ने क्योटो प्रोटोकाल तक को नकार दिया। जिससे वैश्विक स्तर के मौसम परिवर्तन को ध्यान में रखते हुए 2008 से 2012 तक ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को 1990 के स्तर अर्थात् 5.2 फीसदी से भी नीचे रखने का प्रस्ताव रखा गया। अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने तो इस बैठक में स्पष्ट कहा कि यह प्रोटोकाल अमेरिकी अर्थव्यवस्था के लिए व्यावहारिक नहीं है। उसने भारत और चीन पर पलटवार करते हुए साफ किया कि यह प्रोटोकाल सन्धि तब तक कारगार नहीं हो सकती जब तक कि ये दोनों अपने यहाँ प्रदूषण के स्तर को कम नहीं करते। कहने की आवश्यकता नहीं कि धरती पर बदलते मौसम के मिजाज और तापमान में अप्रत्याशित वृद्धि से अब यह सिद्ध हो चला है कि ये घटनाएं प्राकृतिक न होकर मनुष्यजनित ही हैं।
आज अमेरिका भले ही इस ग्लोबल वार्मिंग में वृद्धि के लिए मानवीय प्रवृत्तियों को नकार रहा हो, मगर पिछले दिनों अमेरिका के ही वैज्ञानिकों ने एक जर्नल में प्रकाशित लेख के जरिये मौसम की इस गर्माहट ले लेकर भविष्य में मलेरिया के फैलने, त्वचा के रोगों के बढ़ने तथा वायुमण्डल में ग्रीन हाउस गैसों के औरों से अधिक बढ़ने से ओजोन परत को भारी नुकसान पहुँचने की भविष्यवाणी की थी। संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम की विगत दिनों प्रकाशित वार्षिक रिपोर्ट में ओजोन परत के नुकसान के लिए बढ़ते उद्योगीकरण को दोषी ठहराया था। आंकडे बताते हैं कि पिछले तीन-चार सालों की गर्मी ने पिछले दशकों के सारे रिकार्ड तोड़ दिए हैं। इस गर्मी के कारण ही पिछले एक दशक में उत्तर भारत खासकर हिमालय के तराई इलाके के तापमान में एक से लेकर ढाई डिग्री तक वृद्धि हुई हैं। न्यूयार्क और कोलम्बिया विश्वविद्यालय के शोध कत्ताओं ने सेटेलाइट राडार के जरिए पता लगाया है कि अंटार्कटिका के तापमान में लगातार वृद्धि के कारण वहाँ सालाना चार मीटर से लेकर चालीस मीटर तक बर्फ पिघल रही है। रिपोर्ट यह भी बताती है कि समुद्र के तापमान में 0.1 डिग्री से. ग्रेड की बढ़त से वहाँ एक मीटर बर्फ पिघल जाती है। जिसका प्रभाव समुद्र के जल स्तर पर पड़ रहा है। धरती की गर्माहट में लगातार बढ़त को देखते हुए यह अनुमान लगाया गया कि पिछले दशकों में तापमान की यह बढ़त 0.3 डिग्री सेंटी ग्रेड थी, मगर 1990 में सर्वाधिक गरम दशक के बाद यह पाया गया कि पूर्व की तुलना में यह तापमान लगभग 0.7 डिग्री सेंटीग्रेड की दर से बढ़ रहा है। इस हिसाब से अगले चार दशकों में यह तापमान 2 डिग्री बढ़ जाएगा।
अगर पृथ्वी के तापमान बढ़ने की गति बनी रही तो ग्लेशियरों की रफ्तार बढ़ने से महानगरों के जब स्तर में और वृद्धि होगी। ऐसा होने पर दुनिया की आधी से अधिक आबादी बाढ़ के खतरे में आ जाएगी। सिर्फ यही नहीं, जल स्तर के बढ़ने से समुद्री जल ‘भूमिगत’ जल से मिलकर उसको खारा बना देगा और इससे धरती भी अनुपजाऊ होती चली जाएगी। इस वैश्विक ताप वृद्धि के लिए प्रमुख रूप से वायुमण्डल में लगातार कार्बन-डाइ-ऑक्साइड का बढ़ना अधिक जिम्मेदार है। यहाँ यह भी गौरतलब है कि औद्योगिक क्रान्ति से पूर्व की तुलना में में अब वायुमण्डल इसकी मात्रा 30 फीसदी से भी अधिक हो गई है। एक ओर जहाँ बढ़ती आबादी के लिए खाद्यान्न में बढ़ोत्तरी जरूरी है वहीं दूसरी ओर सीमित भूमि में पैदावार बढ़ने के लिए अत्यधिक उर्वरकों के प्रयोग से भारी मात्रा में कार्बन-डाई-ऑक्साइड उत्सर्जित होती हैं। इसके अलावा भूमिगत प्राकृतिक संसाधनों, जैसे कोयला व खनिज तेल इत्यादि के प्रयोग तथा मोटरगाड़ियों और कल-कारखानों से निकलने वाले धुएं से तो लगभग दो अरब टन कार्बन-डाई-ऑक्साइड वायुमण्डल में मिल जाती हैं। विद्युत तापघरों में कोयला जलने तथा पेट्रोलियम पदार्थों के प्रयोग से हानिकारक गैसें वायमुण्डल में पहुँच रही हैं। तथ्य बताता है कि फ्लोरीन, फ्लोटीन तथा कार्बन परमाणुओं के तालमेल से बना क्लोरो-फ्लोरों कार्बन का एक अणु कार्बन डाइक्साइड के अणु की तुलना में 14 हजार गुणा अधिक गर्मी पैदा करता है और धरती के तापमान को 25% बढ़ा देता है।
21वीं सदी में पृथ्वी की बढ़ती गर्मी और उससे मानव जाति के लिए बढ़ते खतरों को भांपते हुए ही जलवायु परिवर्तन, जैव विविधता और वनों की सुरक्षा के लिए 1992 में विश्व पर्यावरण सम्मेलन एवं 1997 जापान के क्योटो शहर में 141 देशों के बीच ग्रीन हाउस गैसों पर अंकुश लगाने के लिए वहाँ संधि की गई। दिसम्बर 2004 में कार्बन व्यवसाय को लेकर संधि को अन्तिम रूप देते हुए 2012 तक कार्बन-डाइऑक्साइड के उत्सर्जन को 1990 के स्तर पर लाने की सहमति बनी थी। इस संधि का दुर्भाग्यपूर्ण पहलू यह था कि बुश प्रशासन ने इसे अमरीकी अर्थव्यवस्था के लिए महँगी प्रणाली बताते हुए अस्वीकृत कर दिया। हाल में जी-8 देशों की वैश्विक ताप वृद्धि जैसे मुद्दे पर क्योटो प्रोटोकाल पर चुप्पी निश्चय ही विकासशील देशों के लिए चिंता का विषय है। इस मुद्दे पर अमेरिका जैसे देश का विकासशील देशों पर दोषारोपण करना खुद अपनी गलती छिपाने का ही रक्षा कवच है।