Bhartiya Sanskriti” “भारतीय संस्कृति'” Hindi Essay, Paragraph in 1200 Words for Class 10, 12 and competitive Examination.
भारतीय संस्कृति
Bhartiya Sanskriti
मुहम्मद इकबाल ने लिखा है-
“कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी
सदियों रहा है दुश्मन दौरे जहाँ हमारा
तथा-
यूनान मिस्र रोमां सब मिट गए जहाँ से
अब तक मगर है बाकी नामोनिशां हमारा।”
क्या मुहम्मद इकबाल की ये पंक्तियां देशभक्ति से प्रेरित भावोच्छ्वास मात्र है अथवा इसमें कुछ तथ्य है? यदि वास्तव में इन पंक्तियों में कुछ सार नहीं होता तो जाति से मुसलमान कवि कुछ दिग्भ्रमित लोगों द्वारा आर्य, हिन्दू अथवा ब्राह्मण संस्कृति के नाम से पुकारी गई इस संस्कृति के प्रति इतने आकृष्ट नहीं होते। यूनान, मिस्र एवं रोम आदि जिन देशों की संस्कृतियां अत्यन्त प्राचीन मानी जाती हैं, उनका अब मात्र शेष ही बचा है, वे काल के गाल में समा गई हैं किन्तु अनेक प्रभंजनों एवं तूफानों का सामना करता हुआ भी भारतीय संस्कृति का आलोक दीप आज तक प्रज्ज्वलित है। युग आए और चले गए, किन्तु इस दीप की लौ आज तक मंद नहीं हुई। युगों ने इसके आलोक-कण ग्रहण कर स्वयं को आलोकित किया तथा अपने आलोक-कण इसे प्रदान कर इसकी ज्वलन-क्षमता में वृद्धि की। हिन्दी के नए कवि गिरिजाकुमार माथुर ने ठीक कहा है-
दीपों का यह पर्व पुरातन
सदियों से आलोक सनातन
हर युग में इसकी लौ में
हैं दाम किए अपने प्रकाश कण-
तब इन पंक्तियों की सार्थकता अवश्य विचारणीय हो उठती है।
आखिर वह कौन-सी विशिष्टता है, जो इस संस्कृति को आज भी जीवन्त बनाए हुए है? यदि इस प्रश्न पर गहराई से विचार किया जाए तो उत्तर इसकी सामाजिकता, अध्यात्म-पराणयता एवं इसकी विश्व-बन्धुत्व की भावना एवं कामना में ही अन्तनिर्हित मिलेगा। वस्तुतः इस संस्कृति में समन्वयशीलता का अद्भुत गुण विद्यमान रहा है। अपनी इस समन्वयशीलता के कारण ही यह निरन्तर प्रवाहमयी एवं गतिशील बनी रही। धारा के एक कुण्ड में सिमट जाने से जो सड़न का खतरा पैदा हो जाता है, इसमें नहीं हुआ, बल्कि अनेक स्रोतों ने मिलकर इसको वेगवती बनाने में सहायता की। यह देश के आस्ट्रियों एवं द्रविड़ों को भी अपना बनाने की क्षमता रखती है और विदेश के यूनानी, शक, हूण और कुषाणों को भी। यह पठान और मुगलों के आतंकों को झेलकर भी उनके सारभूत चिन्तन को ग्रहण कर गौरव का अनुभव करती है, तो अंग्रेजों के आधुनिक ज्ञान-विज्ञान से भी मुंह नहीं मोड़ती। किन्तु इनमें से स्थायी अधिवास उन्हीं को प्रदान करती है जो इसका होकर रहने की क्षमता रखते हैं, जो अपनी भुजाओं से इसकी रक्षा प्राचीर गाड़ते हैं तथा इसे निरन्तर विकसित एवं गहर बनाने में योग देते हैं।
वस्तुतः भारत एक विशाल देश है, जिसके उत्तर में कश्मीर से लेकर दक्षिण में कन्याकुमारी तक एवं पश्चिम में थार के मरुस्थल से लेकर पूर्व में असम और मिजोरम की पहाड़ियों तक फैली सीमाओं के मध्य विश्व की जनसंख्या का लगभग 1/8 भाग निवास करता है। जिसमें हिन्दू, बौद्ध, जैन, सिक्ख, ईसाई, पारसी एवं मुस्लिम आदि अनेक जातियों एवं धर्मों के लोग बसते हैं, जिसके संविधान में 22 भाषाओं को प्रांतीय भाषाओं के रूप में मान्यता प्राप्त है, जिसके राज्यों की संख्या 29 तक पहुँच गई है। जिसके एक-एक राज्य की भौगोलिक सीमाओं का फैलाव तथा जनसंख्या यूरोप के अनेक देशों की सीमाओं के फैलाव एवं जनसंख्या से अधिक है। जहाँ वेदान्त और योग जैसे आस्तिक दर्शनों का निर्माण हुआ तो बौद्ध और जैन जैसे नास्तिक दर्शनों का भी और इहलोक को ही सर्वस्व मानकर मौज-मस्ती का राग अलापने वाले चार्वाक दर्शन की भूमि भी यह देश रहा है। ऐसे देश की विशालता तथा विविधता के विषय में कोई संदेह नहीं रह जाता। इतने वैविध्य और विरोधों में पड़कर यह संस्कृति भी कभी की नष्ट हो गई होती यदि इसमें अनेकता में एकता एवं विरोध में अद्भुत सामंजस्य पैदा करने की कोशिश नहीं की गयी होती।
आर्य कही जाने वाली इस संस्कृति के अधिकांश तत्त्वों पर आर्येतर प्रभाव पड़ा है। वैदिक पशु बलि प्रधान यज्ञ के स्थान पर प्रचलित हुई पूजा पद्धति पर द्रविड़ों का प्रभाव है शिव, कृष्ण, गणेश एवं स्वामी कार्तिकेय आदि देवता भी आर्येतर प्रभावों को प्रकट करते हैं। आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित चारों पीठ एवं धार्मिक क्षेत्र में तीर्थ रूप से प्रसिद्ध सात परियां आज भी सम्पूर्ण एकता को भारत के सूत्र में बाँध रही हैं। मन्दिरों, मजिस्दों एवं लालकिले तथा ताजमहल जैसी अन्य प्रसिद्ध इमारतों में हिन्दू मुस्लिम मिश्रित वास्तु कला के दर्शन होते हैं। संगीत के क्षेत्र में ठुमरी, दादरा, तराना आदि रागों का सितार, तबला, शहनाई आदि वाद्य यंत्रों पर मुसलमान उस्तादों का प्रभाव विदित ही है। जहाँ अमीर खुसरो, जायसी, कुतुबन, मंझन, रसखान एवं रहीम आदि अनेक मुसलमान कवि हिन्दी में कविता करके हिन्दी को गौरवान्वित करते ही हैं, स्वयं भी गौरवान्वित होते है। आश्चर्य तो तब होता है जब मुसलमान कवि रसखान हिन्दुओं के आराध्य कृष्ण के प्रति अनन्य तन्मयता प्रकट करते हैं जिसकी गहराई और सच्चाई तक हिन्दू कवि भी नहीं पहुँच पाए।
संस्कृत उत्तर भारत की भाषाओं की जननी है, द्रविड़ परिवार की तमिल, तेलुगू, कन्नड़ एवं मलयालम पर भी उसकी शब्दावली तथा कथ्य का प्रभाव देखा जा सकता है। उत्तर भारत में रचित वाल्मीकि रामायण एवं व्यास के महाभारत को दक्षिण भारत में उपजीव्य ग्रन्थ के रूप में स्वीकारा जाता है। उत्तरी-भारत में प्रचारित होने वाला मध्यकालीन भक्ति आन्दोलन दक्षिण में ही जन्मा-भक्ति द्राविड़ ऊपजी लाये रामानन्द।”
इस संस्कृति की दूसरी बड़ी विशेषता इसकी आध्यात्मिकता में निहित है। यहाँ के मनीषियों ने भूख और काम के सवालों को हल करने के साथ-साथ कुछ शाश्वत प्रश्नों के उत्तर खोजने के प्रयत्न किए हैं। इस प्रत्यक्ष जीवन और जगत् के अतिरिक्त भी एक और अप्रत्यक्ष जीवन है जिसे बिना इन्द्रियातीत हुए नहीं समझा जा सकता है। इसी कारण यहाँ के उपनिषदों की चिंता आत्म तत्त्व के विश्लेषण की चिंता रही है। अदृश्य, शब्दातीत, इन्द्रियातीत एवं अनिर्वचनीय सत्ता को जानने के लिए यहाँ के चिंतक ने पहले सदैव स्वयं को जानने का आग्रह किया है।
मैक्समूलर जैसे अनेक यूरोपीय चिंतकों ने भारतीय आध्यत्मिकता पर सैनिक जीवन के प्रति उदासीनता बरतने का आरोप लगाया है। कुछ चिंतकों ने इसे जीवन के प्रति नकारात्मक दृष्टि से बतलाया है जिन्होंने ‘गीता’ के कर्मयोग को तिलक एवं गांधी की दृष्टि से जानने का प्रयत्न किया है वे इस पर उदासीनता का आरोप कैसे लगा सकते हैं जिन्होंने अजन्ता और एलोरा, सांची के स्तूप, रणकपूर और दिलवाड़ा के जैन मन्दिरों एवं प्राचीन मंदिरों पर उत्कीर्ण चित्रों एवं मूर्तियों को देखा है। जिन्होंने कालिदास और भवभूति की काव्य कृतियों का अध्ययन किया है, वे निश्चिय ही इस पर इन्द्रिय जगत् की उपेक्षा का भी आरोप नहीं लगा सकते। यहाँ धर्म और मोक्ष के साथ-साथ अर्थ एवं काम को भी चार प्रमुख पुरुषार्थों में स्थान दिया है। इन आरोपों में सार केवल इतना है कि भारतीय दृष्टि से दैहिक एवं भौतिक सुखों की अपेक्षा आध्यात्मिक सुख को प्रधानता दी है। भौतिक सुखों से निस्संग होकर भोगने का आग्रह किया है।
अखिल प्राणी जगत् की कल्याण की कामना भी भारतीय संस्कृति की एक बड़ी विशेषता रही है। उसकी कामना रही है-‘सब सुखी हों, नीरोग हो, सबका भला हो और कोई दुःखी न हो।’ उसकी उसी कल्याण कामना ने ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की धारणा को व्यावहारिक बनाया है।
कहने का अभिप्राय यह हुआ कि यदि भारतीय आध्यात्मिकता को पाश्चात्य वैज्ञानिकता से जोड़ दिया जाए तो भारतीय दृष्टि विश्व मानवता के लिए वरदान सिद्ध हो सकती है। आज विश्व सिमट कर छोटा होता जा रहा है। आवागमन एवं संचार के विविध साधनों में इसे और भी छोटा बना दिया है, किन्तु उसमें विचार एवं मतभेद भी उसी अनुपात में बढ़ते जा रहे हैं। भारतीय संस्कृति की समन्वयात्मक दृष्टि एक अनूठी विश्व-मानवता एवं संस्कृति का निर्माण कर सकने में समर्थ हो सकती है। अणु-विकास अहिंसा से जुड़कर मानवी जगत् के सुख-ऐश्वर्य की काया पलट सकता है।
आज पश्चिम के अनेक विद्वान इस बात को महसूस करने लगे हैं कि पश्चिम के बढ़ते हुए भौतिक मास की औषधि भारतीय अध्यात्म के विद्यमान है। भारतीय संस्कृति के पास आज के विश्व से जोड़ने के लिए समन्वय शीसता की अद्भुत दृष्टि है, जिसके आधार पर आज के पूंजीवाद और साम्यवाद को, दक्षिण पंथ एवं वामपंथ को, विकसित एवं विकासशील को, अमीर एवं गरीब को, छोटे एवं बड़े को, नास्तिक और आस्तिक को तथा पूरब और पश्चिम को किसी बिन्दु पर लाकर खड़ा किया जा सकता है और कामना प्रकट की जा सकती है-
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयः ।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःख भाग्यवेत ।