Bharat mein Jativad aur Chunavi Rajniti “भारत में जातिवाद और चुनावी राजनीति” Hindi Essay, Nibandh 1000 Words for Class 10, 12 Students.
भारत में जातिवाद और चुनावी राजनीति
Bharat mein Jativad aur Chunavi Rajniti
यह बिल्कुल सत्य तथ्य है कि कोई भी प्रजातांत्रिक प्रणाली धार्मिक और जातिवादी प्रभावों से उन्मुक्त नहीं है। चुनाव लड़ने वाले प्रत्याशियों का भाग्य उनके द्वारा प्राप्त साम्प्रदायिक मतों से सीधे जुड़ा होता है। सभी राजनीतिक पार्टियाँ चतुराई से अपने जातिवादी और अन्य संकीर्ण पूर्वाग्रहों को छिपाकर अपने चुनाव घोषणा-पत्रों में किए गए वादों को पूरा करने का वचन देती हैं।
भारत में प्रचलित जातिवाद वर्तमान में राजनैतिक संस्था के लिए अभिशाप है। चुनाव आयोग को उन पार्टियों को रोकने का कोई अधिकार नहीं है जो वोट बैंक स्थापित करने और उन्हें बनाए रखने के लिए विभिन्न साम्प्रदायिक मोर्चों का दोहन करते हैं। यह केवल इसके विरुद्ध आवाज ही उठा सकता है। चुनाव में जातिवादी मोर्चों के उपयोग के विरुद्ध न्यायालय में याचिका दायर करना एक लम्बी और उबाऊ प्रक्रिया है। इस परिप्रेक्ष्य में हमारे चुनाव स्वतंत्र या निष्पक्ष नहीं रह गए हैं।
उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य से जब कुछ प्रबुद्ध समाज सुधारकों द्वारा समाज सुधार की प्रक्रिया शुरू हुई, तभी से जातिवाद भारतीय राजनीति का अभिशाप बन गया। इसमें कोई संदेह नहीं है कि समाज सुधार की प्रक्रिया से भारत में लाखों लोगों का कल्याण हुआ है किंतु इसके कुछ प्रतिकूल प्रभाव भी पड़े हैं। वयस्क मताधिकार पर आधारित लोकतंत्र के प्रारंभ और वोट बैंक के प्रादुर्भाव से जाति पर आधारित राजनीति को नया प्रोत्साहन मिला। वर्तमान में जाति पर आधारित राजनीति का जहर इसकी जड़ तक फैल चुका है। बिहार हो या उत्तरप्रदेश, महाराष्ट्र हो या मणिपुर, पंजाब हो या तमिलनाडु, हरियाणा हो या हिमाचल प्रदेश जातिवाद ने भारी क्षति पहुँचाई है। प्रत्येक राज्य या प्रत्येक क्षेत्र में कुछ तथाकथित निम्न या उच्च जाति समूह कुछ अन्य तथाकथित निम्न या उच्च जाति समूह से जी-जान से लड़ रहे हैं। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि देश के प्रायः प्रत्येक भाग में एक प्रकार से जाति पर आधारित गृह-युद्ध जारी है। बिहार की, जहाँ महात्मा बुद्ध ने पहली बार जन्म पर आधारित जाति-प्रथा समाप्त करने की आवाज उठाई थी, जातिगत सामंतवाद के कारण विशेष बदनामी हुई है। उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में जाति पर आधारित संघर्ष और इस संघर्ष में होने वाले रक्तपात इतने प्रसिद्ध हैं कि यहाँ इनका वर्णन करना जरूरी नहीं है। दूसरे देशों में विधानमंडलों के लिए चुनाव लड़े जाते हैं और जनसमूह के कल्याण और राष्ट्र के हित से संबंधित मामलों के आधार पर चुनाव जीते भी जाते हैं। किंतु भारत में चुनाव प्रक्रिया प्रायः हमेशा जातिवादी राजनीति से प्रभावित होती है। चुनाव के समय एक जाति को लाभ पहुँचाने के उद्देश्य से दूसरी जाति के विरुद्ध वे सारे अपराध किए जाते हैं जो मानवता के विरुद्ध होते हैं।
भारत की चुनावी राजनीति में जातिवादी तत्त्व की उत्पत्ति 1909 में मिंटो-मार्ले सुधार द्वारा उस समय हुई जब मुसलमानों के लिए पृथक निर्वाचन क्षेत्र प्रदान किया गया। इसने भारतीय समाज को तत्काल दो परस्पर विरोधी ध्रुवों-हिंदू और मुसलमान में बाँट दिया। हिंदू प्रत्याशी निराशा में हिंदू श्रोताओं के सामने अधिकतम संख्या में हिंदू मत प्राप्त करने के लिए मुसलमानों के विरुद्ध बोलने लगे थे जबकि मुसलमान प्रत्याशी अधिकतम संख्या में मुसलमानों का मत प्राप्त करने के लिए मुसलमान श्रोताओं के सामने हिंदू शासन के विरुद्ध जहर उगलते थे। दोनों सम्प्रदायों के प्रत्याशियों द्वारा एक-दूसरे के विरुद्ध उगली जाने वाली अधिकतम जहर ही उनकी जीत सुनिश्चित करती थी।
1919 में मॉन्टेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधारों के तहत, इस प्रथा को और बढ़ा दिया गया और हिंदू पुनः कई उपवर्गों में बँट गए। 1919 के अधिनियम में मुसलमानों के अतिरिक्त सिक्खों, युरोपियनों, आंग्ल भारतीयों तथा ईसाइयों के लिए भी पृथक निर्वाचन व्यवस्था लागू कर दी गयी। इस प्रकार साम्प्रदायिक निर्वाचन का विस्तार किया गया। साम्प्रदायिक निर्णय के तहत दलित वर्गों को हिंदुओं से पृथक करने की मांग की गई। महात्मा गाँधी ने आमरण उपवास किया और स्थिति को अंशतः बचाया जा सका। यद्यपि पृथक निर्वाचन क्षेत्र दलित वर्गों के लिए लागू नहीं किया गया फिर भी उनके लिए सीटों का आरक्षण सुनिश्चित किया गया। इससे जाति पर आधारित राजनीति के स्थायीकरण में निहित स्वार्थी भयावह परिस्थितियों का समावेश हुआ।
भारत के संविधान के तहत छूआछूत को केवल कागज पर समाप्त कर दिया गया और धर्म, जाति, इत्यादि पर आधारित भेदभाव को प्रतिबंधित कर दिया गया किंतु अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के लिए दस वर्षों के लिए आरक्षण के प्रावधान का प्रारंभ किया गया था। चूंकि इससे वोट बैंक को बढ़ावा मिला इसलिए आरक्षण की प्रथा अनिश्चितकाल के लिए केवल जारी ही नहीं रही बल्कि इसे अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए भी बढ़ा दिया गया। मंडल आयोग की सिफारिश और उसके क्रियान्वयन ने स्थिति को और भी गंभीर बना दिया। निर्वाचन क्षेत्र की मुख्य जाति की भावना का समर्थन सत्ता प्राप्त करने का सरल तरीका नई राजनैतिक शक्तियों को अनियंत्रित कर दिया। जातिगत राजनीति और अवसरवादी राजनीति ने भारतीय राजनीति के साथ बर्बादी का खेल शुरू कर दिया। परंपरागत रूप से विपरीत ध्रुव मानी जाने वाली राजनीतिक पार्टियाँ गठबंधन सरकार बनाने लगीं। उत्तर प्रदेश में परंपरागत रूप से उच्च जाति के हिंदुओं से अन्य पिछड़ा वर्ग का मसीहा बनने वाली पार्टी को सत्ता से बेदखल करने के लिए संबद्ध भारतीय जनता पार्टी का स्वयं दलितों का मसीहा बताने वाली बहुजन समाज पार्टी से गठबंधन अन्य पिछड़ा वर्ग का मसीहा मानने वाली पार्टी को सत्ता से बेदखल करने के लिए हुआ। राजनीति के अपराधीकरण ने जातिगत आधारित राजनीति को नया आयाम दिया है।
क्षेत्रवाद और जातिवाद के उत्थान और विकास की जड़ राजनीतिक प्रणाली की असफलता में है। जो लोगों की आकांक्षाओं की पूर्ति नहीं कर सकी। 1947 के बाद भारत के राजनीतिक कुरुक्षेत्र में अधिकांश समय तक एक ही पार्टी के शासन के बाद मूलभूत तथ्य भूला दिया गया है कि “लोकतंत्र” एक ऐसी सरकार है “जिसमें प्रत्येक की भागीदारी होती है।” हरिमैन के शब्दों में, वर्तमान में भारतीय लोकतंत्र “पीड़ित, वाचाल, चापलूस और अमीर-परस्त का स्वर्ग है।”