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Bharat mein Dharmnirpekshta “भारत में धर्म निरपेक्षता” Hindi Essay, Paragraph in 1000 Words for Class 10, 12 and competitive Examination.

भारत में धर्म निरपेक्षता

Bharat mein Dharmnirpekshta

‘धर्म निरपेक्षता’ शब्द को अंग्रेजी में ‘सेम्युलरिज्म’ कहते हैं। इस शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग और प्रचलन पाश्चात्य देशों में हुआ। यूरोप में एक समय ऐसा भी था कि धर्मगुरु के दमनचक्र में साधारण जनता बुरी तरह पिस रही थी जिसके फलस्वरूप लोगों ने उनके विरुद्ध क्रांति कर दी और उस धार्मिक तानाशाही को समाप्त कर जीवन के प्रति तर्क संगत और वैज्ञानिक दृष्टिकोण स्वीकार किया। इस परिवर्तित दृष्टिकोण को ‘धर्म निरपेक्षता’ कहा गया। भारत ने राजनीति पर किसी धर्म विशेष के प्रभाव को अस्वीकार कर दिया। बल्कि उसने सभी धर्मों के प्रति समान दृष्टि एवं समान दूरी की नीति अपनाई ।

विश्व में भारत विभिन्नताओं के बीच एकता के आदर्श का श्रेष्ठ उदाहरण है। इसके धर्म के क्षेत्र में भी इस आदर्श की स्थापना की। भारत में हिन्दू, मुस्लिम, बौद्ध, ईसाई, सिक्ख, जैन आदि अनेक धर्मों के लोग हैं, जिनमें कुछ तो कई बातों में एक-दूसरे के विरोधी विश्वासों के लोग हैं। इतिहास साक्षी है कि भारत में धार्मिक मतभेद तथा संघर्ष बराबर होते रहे हैं। किन्तु विगत तीन हजार वर्षों में कोई भीषण संघर्ष अथवा युद्ध नहीं हुआ। असहिष्णु शासक तो हुए हैं लेकिन यूरोप की भाँति सामूहिक हत्याएँ तथा धार्मिक युद्ध यहाँ कभी नहीं हुए। मुस्लिम शासन काल से पूर्व या उसके शासन काल में भी धर्म गुरुओं और शासक में जनता के बीच संघर्ष का कोई उल्लेख नहीं मिलता। कट्टर मुस्लिम शासकों ने भी इस देश में इस्लामी राज्य की स्थापना नहीं की, बल्कि अधिकांश शासकों ने अपने प्रशासन में हिन्दुओं को भी महत्त्वपूर्ण पद प्रदान किये। अंग्रेजों ने जब यहाँ शासन स्थापित किया तब धर्म के मामलों में उन्होंने भी तटस्थता बरती। उन की शासन नीति में धर्म, जाति भाषा आदि के भेदभाव का कोई स्थान नहीं था। बीसवीं सदी के आरम्भ में राजनीतिक कारणवश उन्होंने ‘फूट डालो-राज करो’ की नीति अपना कर भारतीय राजनीति में साम्प्रदायिकता का विष बीज बो दिये। फलस्वरूप मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा जैसे राजनीतिक दल भारतीय राजनीति को साम्प्रदायिक बनाने में सहयोग दे सके। यहीं कारण है। सन् 1982 में कराची अधिवेशन में कांग्रेस द्वारा पारित प्रस्ताव में ऐसी धाराएँ शामिल की गई जिन का तात्पर्य था नागरिक कानून की दृष्टि में बराबर होंगे और प्रशासन जमींदारों के प्रति तटस्थ रहेगा। नेहरू जी तथा उनके साथियों ने बराबर धर्मनिरपेक्षता का मार्ग अपनाया हालांकि भारतीय संविधान की प्रस्तावना में ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द का औपचारिक समावेश 1976 में ही किया गया।

भारत के संविधान में स्पष्ट कहा गया है कि राज्य धर्म के आधार पर किसी भी भारतीय नागरिक के साथ भेदभाव नहीं करेगा। सरकारी योजना के मामले में धर्म के आधार पर किसी को अयोग्य नहीं घोषित किया जा सकता है। प्रत्येक व्यक्ति को अपनी अन्तरात्मा के अनुसार किसी भी धर्म को अपनाने और उनका प्रचार प्रसार करने की स्वतंत्रता दी गई है। सभी धार्मिक संस्थाएँ अपने शिक्षा संस्थान स्थापित कर सकते हैं। सरकारी संस्था के द्वारा धार्मिक शिक्षाएँ नहीं दी जा सकती हैं। कोई धर्मावलम्बी अन्य धर्मों की निंदा नहीं कर सकता तथा अन्य धर्म वालों से घृणा और शत्रुतापूर्ण व्यवहार भी नहीं कर सकता। धार्मिक स्वतंत्रता सार्वजनिक शांति, नैतिकता एवं स्वास्थ्य की सीमाओं में होड़ लग गई है।

भारत में धर्मनिरपेक्षता के प्रचार-प्रसार में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण समस्या है- “समान नागरिक सहिंता की समस्या”। समान नागरिक संहिता सारे भारतीयों को समान नागरिकता के सूत्र में बाँध सकती है। लेकिन आजादी प्राप्ति के बाद चार दशक गुजर गये यह कार्य संभव नहीं हो पाया। बल्कि 1986 ई में कट्टरवादी मुसलमानों ने सरकार को तलाकशुदा महिलाओं के भत्ते से सम्बन्धित कानून बनाने के लिए विवश कर दिया। इस कार्य द्वारा स्वयं सरकार ने धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत की अवहेलना की। यही बात सिक्ख, ईसाई वर्गों के साथी भी है। जो शायद ही समान नागरिक संहिता को मान्यता दे सकें। भारत जैसे उदार लोकतंत्र द्वारा किसी अल्पसंख्यक वर्ग की उपेक्षा करना कठिन है। दूसरी उल्लेखनीय बाधा यह है कि हमारी राजनीतिक गतिविधियों में साम्प्रदायिकता, जातीयता, क्षेत्रीयता जैसी भावनाएँ गहराई तक प्रवेश कर गई हैं, और हम चाह कर भी उन्हें नहीं रोक पा रहे हैं। हमारी राजनीतिक व्यवस्था उन संकीर्णतावादी प्रद्धतियों से उबर नहीं पा रही हैं और हम धर्मनिरपेक्ष राज्य की स्थापना नहीं कर पा रहे हैं। इसके लिए नेतृत्व की विफलता ही काफी हद तक उत्तरदायी हैं। तीसरी समस्या सांस्कृतिक है। कुछ साम्प्रदायिक लोग प्रचार करते हैं कि बहुसंख्यक सम्प्रदाय की संस्कृतिक, राष्ट्रीय संस्कृति बन गई है। भूमि पूजन, दीप प्रज्जवलन, आरती, अतिथियों को तिलक आदि बहुसंख्यक हिन्दूओं के सांस्कृतिक प्रतीक हैं। जो स्वाभावतः राष्ट्रीय संस्कृति बन गए हैं। धर्मनिरपेक्षता राज्य में अल्पसंख्यक समुदायों के सांस्कृतिक प्रतीकों की किसी न किसी माषा में स्वीकृति भी आवश्यक है। हमारे नेताओं ने भारतीय उपसंस्कृतियों के समन्वय द्वारा राष्ट्रीय संस्कृति का विकास नहीं किया, फलतः यह समस्या पैदा हो गई। साथ ही धर्मनिरपेक्षता को केवल राज्य तक सीमित कर देने से अलग-अलग उपसंस्कृति और धार्मिक पहचान का प्रबल हो जाना स्वाभाविक है।

नेहरू जी का कथन था कि जनता की आर्थिक परिस्थितियों का सुधार करके धार्मिक मतभेदों को सहज ही दूर किया जा सकेगा। किन्तु भारत में यह भाषा व्यर्थ हैं कि निकट भविष्य में यह देश आर्थिक दृष्टि से काफी सम्पन्न हो जायेगा ? इसका अन्य विकल्प है। ‘शिक्षा दो अर्थों में अधिक महत्त्वपूर्ण है। शिक्षण संस्थान चाहें तो राष्ट्र की अखण्डता को सुदृढ़ बना सकेगा और साम्प्रदायिकता, रूढ़िवादिता, अंधविश्वास जैसे विनाशकारी तत्वों युवा मस्तिष्क को मुक्त कर सकते हैं। शिक्षण संस्थाओं में अतिरिक्त अवैच्छिक संस्थाएं समाज में व्याप्त कुरीतियों और सरकारों को सहज ही नष्ट कर सकती हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि रामकृष्ण मिशन, आर्य समाज, ब्रह्म समाज, जैसी संस्थाओं ने इस दिशा में ऐतिहासिक कार्य किये हैं।

भारत में राष्ट्रीय अखण्डता की रक्षा हेतु धर्मनिरपेक्षता अनिवार्य शर्त है। राष्ट्रीयता की भावना किसी भी धर्म के विरुद्ध न होकर धार्मिक कट्टरता के विरुद्ध हैं। राष्ट्र के प्रत्येक नागरिक के हृदय में सभी धर्मों के प्रति उतनी ही श्रद्धा और निष्ठा की आवश्यकता है जितनी उसमें स्वधर्म के प्रति है। मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, गिरजाघर, बौद्ध अथवा जैन मंदिर जैसे धर्मस्थल सभी धर्मावलम्बियों के पारिस्परिक स्नेह-सौहार्द्र के केन्द्र बन सकेंगे तभी भारतीय संस्कृति सुरक्षित एवं सुखद बन सकेगी। अखण्ड भारत सामाजिक धर्मनिरपेक्षता चाहता है। भारतीयों में उदारता, सहृदयता एवं सहिष्णुता जैसे गुण नितांत अपेक्षित हैं और भारतीयों में कमी भी इन गुणों का अभाव नहीं है। धर्मनिरपेक्षता हमें धर्म विहीन नहीं बनाती है वरन् हमारे हृदय में सर्वधर्म स्नेह एवं श्रद्धा का भाव जगाती है धर्म का तो आदेश है ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः।’

(800 शब्दों में )

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