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Bharat ki Ekta aur Akhandta “भारत की एकता और अखंडता” Complete Hindi Essay, Paragraph, Speech for Class 10, 12 and Graduate Students.

भारत की एकता और अखंडता

Bharat ki Ekta aur Akhandta

भारत के प्रत्येक राज्य के रहन-सहन के अपने अपने तौर-तरीके हैं। इसमें रहने वाले विभिन्न समुदायों में अत्यधिक विभिन्नता है। इनमें एक-दूसरे से अपनी घरेलू व्यवस्थाओं, खान-पान, पहनावे, सामाजिक परिपाटियों और वर्ष के विभिन्न मौसमों तथा जन्म, विवाह और मृत्यु के समय मनाए जाने वाले अनुष्ठाना में व्यापक विभिन्नता है। यहां हिन्दु धर्म, सिक्ख धर्म, जैन धर्म, बौद्ध धर्म, पारसी धर्म, इस्लाम और इसाई धर्म के अनुयायी रहते हैं। अतः, जबकि यह महसूस करना सहज है कि भारत अथवा ‘भारतीय’ अन्य प्रमुख सभ्यताओं से थोड़ा अलग है, तो भी निष्कर्षतः यह परिभाषित करना और अनुभव करना मुश्किल है कि मूलत: भारत क्या है, अथवा किस प्रकार ऐसे विभिन्न लोग और ऐसी संस्कृतियां एक-दूसरे से संबद्ध हो सकती है। और यही वह अपरिभाष्य तत्व है जो एक भारतीय को विनिर्दिष्ट करता है।

यद्यपि भारत में संस्कृति में विविधता और भिन्नता है फिर भी यह देशवासियों को सामान्य पहचान के किसी रूप में एक साथ पिरोए रखती है। भारतीय संस्कृति, मुख्यतया नाटकों और कलाओं, द्वारा परिवर्तनों के विभिन्न दौरों से गुजरने के बावजूद भी एक सुस्पष्ट एकता और अविछिन्नता द्वारा अभिलक्षित होती है। हालांकि भारत में विविध भाषाएं, धर्म, प्रथाएं, त्यौहार तथा पहनावा, संस्कृति की विपुल धरोहर विद्यमान है ! तथापि हाल के पाश्चात्य अभिमुखीकरण के बावजूद, भारतीय आज भी पुरातन काल की प्रथाओं और मूल्यों द्वारा अत्यधिक प्रभावित है।

श्रीमती इंदिरा गांधी ने राष्ट्रीय अखंडता के सार को उजागर करते हुए एक बार कहा था, “राष्ट्र एक पच्चीकारी के समान है —–,,,” एक कलात्मक रचना की तरह। सदृढ़ता और सुन्दरता के पूर्ण प्रभाव देने के लिए इसमें अनेक तत्व, अनेक संरचनाएं और अनेक रंग प्रयुक्त होते हैं। भारत राष्ट्र व्यक्तियों का, पोशाकों और खान-पान का, संस्कृतियों का, भाषाओं का, सम्प्रदायों की ऐसे ही समृद्ध पच्चीकारी के समान है। अब तक इस विविधता को भारतीयता के अमूर्त गण के आवरण ने ढका हुआ है, हमारी धरोहर छोटी और बड़ी ऐसी अनेक धाराओं के संगम के समान है जिन्होंने भिन्न-भिन्न कालों में भारत की प्रगति की धारा में योगदान दिया है। ये सभी विविध अंश एक साथ मिलकर समग्रता का निर्माण करते हैं। सर्वाधिक नवीन विविधता की छोटी से छोटी बात को नकारने या इसकी उपेक्षा करने से भारत का हास ही होगा।”

इस तरह की विभिन्नताएं सर्वदा ही विद्यमान रही है, किन्तु आजादी के समय ये हमारी पूर्ण दृष्टि में आ सकी। आजादी का उल्लास क्षणिक ही था क्योंकि विभाजन सांप्रदायिक संघर्ष के रूप में भारत के लिए विध्वंसकारी परिणाम ले कर सामने आया। विभाजन के कारण असीम विपत्ति आ गई और धन-जन की अपार क्षति हुईं क्योंकि लाखों हिन्दू अथवा मुस्लिम शरणार्थी या तो पाकिस्तान अथवा भारत चले गए। दोनों राष्ट्र अनेक संघर्षों में भी उलझ गए जिनमें संपत्तियों का आबंटन, सीमा का निर्धारण, जल संसाधन का न्याय संगत बटवारा, तथा कश्मीर पर नियंत्रण इत्यादि शामिल थे। साथ ही, भारतीय नेतागणों के समक्ष राष्ट्रीय अखण्डता एवं आर्थिक विकास जैसे प्रमुख कार्य उपस्थित हो गए।

जब ब्रिटिशों ने प्रभुत्व संबंधी अपने दावे छोड़ दिए तो 562 स्वतंत्र देशी रिसायतों को दोनों देशों में से किसी भी एक देश में शामिल होने का विकल्प दिया गया। कुछ देशी रियासत सहर्ष ही पाकिस्तान में शामिल हो गई, किन्तु हैदराबाद,जम्मू एवं कश्मीर एवं जूनागढ़ की रियासतों को छोड़कर शेष भारत में शामल हो गई। “पुलिस कार्यवही” तथा शासकों को विशेषाधिकारों का आश्वासन देकर भारत ने हैदराबाद तथा जूनागढ़ का सफलतापूर्वक विलय कर दिया। मुस्लिम बहुलता वाले जम्मू व कश्मीर के हिन्दू महाराजा स्वतंत्र बने रहे। किन्तु पाकिस्तानी सशस्त्र जनजातियों एवं नियमित सैनिकों ने उनके क्षेत्र में घुसपैठ की जिससे वे 27 अक्तूबर, 1947 को भारत के साथ अधिमिलन के दस्तावेज (Instrument of Accession) पर हस्ताक्षर करने हेतु प्रवृत्त हुए। पाकिस्तान ने अधिमिलन की वैधानिकता को स्वीकार करने से इंकार कर दिया। इसके परिणामस्वरूप, युद्ध छिड़ गया। कश्मीर आज भी दोनों पड़ोसी देशों के बीच तनाव का मूल कारण बना हुआ है। 30 जनवरी, 1948 को नई दिल्ली में महात्मा गांधी की एक हिन्दी अतिवादी, जो मस्लिमों के प्रति गांधी की उदारता की नीति के विरूद्ध था, द्वारा हत्या किए जाने से आजादी का उत्साह खत्म हो गया और हिन्दू-मुस्मिल संबंधों के बीच नफरत और आपसी संदेह और भी गहरा हो गया।

आजादी के समय भारत के समक्ष प्रस्तुत गंभीर चुनौतियों में से एक चुनौती आर्थिक पिछड़ापन थी। नेहरू के नेतृत्व में 1951 तथा 1964 के मध्य चलाई गई तीन लगातार पंचवर्षीय योजनाओं के अन्तर्गत भारत में खाद्यान्न का अत्यधिक उत्पादन हुआ। हालांकि राजकोषीय वर्ष 1984 तक खाद्य उत्पादन में आत्मनिर्भरता नहीं प्राप्त की जा सकी, फिर भी भारत विश्व में सातवें सर्वाधिक सकल राष्ट्रीय उत्पाद वाले राष्ट्र के रूप में उभर कर सामने आया है। भाषायी क्षेत्रीयतावाद अन्ततः संकटपूर्ण चरण में पहुंच गया और इसने राष्ट्र निर्माण हेतु कांग्रेस के प्रयासों को कमजोर बना दिया। जबकि 1920 के आरंभिक दशक में कांग्रेस का मानना था कि शिक्षा तथा प्रशासन में क्षेत्रीय भाषाओं के प्रयोग से देश का शासन सुकर बन जाएगा, विभाजन के परिणामस्वरूप नेतागणों विशेषतया नेहरू ने महसूस किया कि ऐसे प्रान्तीय अथवा उप-राष्ट्रीय हितों से कितनी जल्दी भारत की कमजोर एकता विघटित हो जाएगी। तथापि, 1953 में तेलंगाना आन्दोलन से शुरू हुए राज्यों के भाषायी अलगाव के लिए व्यापक आंदोलन को देखते हुए नेहरू ने राज्य पुनर्गठन आयोग की सिफारिशों को अनिच्छापूर्वक स्वीकार किया और भाषायी आधार पर पुनर्गठन के लिए राज्यों की संख्या बढ़ गई। राज्य, जिला स्तरों पर राजनीतिक प्रक्रियाओं के प्रजातांत्रिकरण, राष्ट्रीय संस्कृति एवं एकता के विरूद्ध क्षेत्रीय संस्कृति एवं जनप्रिय मांगों की अभिव्यक्ति, ग्रामीण क्षेत्रों में कार्यनीतिगत अवस्थानों में आर्थिक विकास तथा प्रतिपक्षों के अत्यधिक संख्या में उभरने, जिससे एक-भारतीय द्वि-दलीय प्रणाली की संभावना खत्म हो गई, का केन्द्र-स्थल बन गया।

भारतीय संघ के आरंभिक वर्षों में ऐसे लोगों ने भाषायी आधारों पर राज्यों के पुनर्गठन में मुख्य भूमिका निभायी जिन्होंने क्षेत्रीय भाषाओं में उच्च शिक्षा देने की वकालत की थी। 1960 के दशक तक भारत सरकार ने सहमति दी कि उच्च शिक्षा की अधिकांश संस्थाओं में क्षेत्रीय भाषाओं को शिक्षा के माध्यम के रूप में प्रयुक्त किया जाएगा। क्या क्षेत्रीय भाषाओं की भूमिका से भारतीय स्थायित्व के लिए हानिकारक वजूदों को प्रोत्साहन मिलेगा? क्या क्षेत्रीय भाषाओं में उच्च शिक्षा से क्षेत्रीय हितों के संकीर्ण संकेन्द्रणों वाले प्रान्तीय राजनीतिज्ञों को पैदा करने का ही कार्यसिद्ध होगा? इन महत्वपूर्ण प्रश्नों ने भारतीय राष्ट्राय नेताओं को अत्यधिक चिंतित कर दिया।

1960 के दशक के आरंभिक वर्षों में अनेक सरकारी निकायों ने भारत की विभाजन संबंधी संभावना को नियंत्रित करने में मदद करने हेतु विभिन्न उपायों की चर्चा की। उदाहरण के लिए, आर्थिक एकीकरण संबंधी समिति, जिसे शिक्षा मंत्रालय द्वारा 1961 में गठित किया गया था, द्वारा “राष्ट्रीय जीवन में भावनात्मक एकता की प्रक्रियाओं को बढ़ावा देने” में शिक्षा की भूमिका का अध्ययन करने का प्रयास किया गया। 1954 में, केन्द्रीय शिक्षा मंत्रालय ने राज्य सरकारों को शैक्षिक संस्थाओं को राष्ट्रगान गाने तथा राष्ट्रीय ध्वज के इतिहास तथा महत्व के बारे में छात्रों को शिक्षित करने की पहले ही सलाह दी थी। ऐसा सुझाव दिया गया कि ध्वज का आरोहण तथा अभिवादन को स्कूली नेमी के भाग के रूप में व्यवहत किया जाना चाहिए ।समिति ने समान शैक्षिक मानदण्डों तथा राष्ट्रीय एकता की भावना की सतत शिक्षा की आवश्यकता पर बल दिया। समिति ने सामान्य जन समुदाय और स्थानीय उच्च वर्गों के बीच रिश्तों के सुदृढ़ीकरण के एक माध्यम के रूप में क्षेत्रीय भाषाओं के प्रयोग को भी बढ़ावा दिया। इसके विपरीत, किसी भी हालत में जाति तथा सांप्रदायिक वजूदों को बढ़ावा नहीं दिया गया। हालांकि समिति ने भाषायी भिन्नताओं को स्वीकारा, फिर भी इसने भावनात्मक रूप से एकीकृत एक ऐसे भारतीय की तलाश की जिसकी भावनाएं केन्द्रीय शक्ति का समर्थन करेगी। राजीव गांधी के समय एक तीन-भाषायी सूत्र स्कूलों में अपनाया गया था और सिविल सेवकों को अब रोजगार के लिए पड़ोसी राज्यों को चुनने की आवश्यकता नहीं थी। इसका लक्ष्य लोगों को एक नई भाषा सीखने के लिए प्रवृत्त करना था जिससे भावनात्मक संबंध और समझ-बूझ को बढ़ावा दिया जाता।

एक सुदृढ़ राष्ट्रीय वजूद की रचना करने में सहायता करने हेतु शिक्षा को प्रयोग करने के प्रयासों से भारतीय संघवाद की प्रकृति के बारे में अन्तर्दृष्टि मिली। वर्तमान काल की अनुकूल परिस्थिति में भारत की आजादी के पहले दशक अत्यधिक सफल प्रतीत हुए। युगोस्लाविया में प्रचलित संघवाद के विपरीत. भारत, साम्राज्यवाद आरोपित एकता के पश्चात परस्पर विरोधी गुटों से अलग रहा। तथापि, भारतीय संघ की सफलता सभी भारतीयों के मध्य भावनात्मक संबंध बनाने के प्रयास के कारण नहीं थी। भारत के लिए अधिक महत्वपूर्ण उसकी संघात्मक संरचना है, जिसे भारत सरकार अधिनियम, 1935 द्वारा स्थापित किया गया और इसे बह-सांस्कृतिक क्षेत्र के रूप में सदियों के अनुभव द्वारा बल मिला। वस्तुतः, भाषा संबंधी विषयों पर दर्शाई गई सहिष्णुता उस एप्रोच के प्रकार का उदाहरण है जो ऐसी संवैधानिक संरचना, जिससे ऐसी राजनीतिक प्रणाली सृजित हुई जो विविधता को प्रस्फुटित होने देती है, के साथ स्थायित्व कायम रखने के लिए आवश्यक है।

अभी भी हमारे सामने पूरी समस्याएं पुनः उभर कर आ रही हैं और इस महान राष्ट्र के निर्माताओं की तरह हमें भी अपना ध्यान भारत को भावनात्मक रूप से एकीकृत करने पर संकेन्द्रित करना है। यह समस्या अपेक्षाकृत अधिक आधुनिक पोशाक में भी वैसी ही प्रतीत होती है। आज कावेरी जल बंटवारे पर कर्नाटक और तमिलनाडु के बीच जो कुछ भी हो रहा है, उस जैसे मामलों के बारे में नेहरू ने दशकों पूर्व कहा था. “अनेक राज्य नियोजन, आर्थिक विकास तथा अन्य विकासों के मध्य बाधा उत्पन्न करते हैं” प्रत्येक बड़ी योजना एक या दो से अधिक राज्यों से अधिक राज्यों को प्रभावित करती है —— हमें —- साथ कार्य करने हेतु सामान- विचित्र जुगतों से गुजरना है …..,” उन्होंने कहा। इन अभियुक्तियों की प्रतिध्वनि को अब कावेरी जल मामले पर कर्नाटक और तमिलनाडु के बीच लगातार महसूस किया गया है।

नेहरू के लिए भाषायी सिद्धान्त को प्राथमिकता कम था। “यदि अभी आप कथित भाषायी राज्यों को सृजित करने में सफल हो जाएंगे तो दस या बीस वर्षों के बाद क्या होगा? क्या आप लोगों को एक राज्य से दूसरे राज्य जाने से रोक रहे हैं? —– (इस आंदोलन द्वारा) राज्य की भाषायी संरचना बदल जाएगी।” नेहरू के अनुसार, राजनीतिक आजादी प्राप्ति के बाद भारत के लिए देश के भीतर सर्वाधिक महत्वपूर्ण समस्या आर्थिक एकीकरण की समस्या है, जो विधिक अथवा संवैधानिक विषय नहीं है। कितनी सच बात है!

नेहरू का राष्ट्रीय एकीकरण तथा साम्प्रदायिक सौहार्द पर बल एक ऐसा पहलू है जिसे हमेशा याद रखा जाएगा और एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचाया जाएगा। नेहरू ने लोकतंत्र, समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता तथा शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व के स्तंभों पर स्वतंत्र भारत की नींव डाली। उसने भारत को एक रूप में समझा और सर्वदा इस बात पर बल दिया कि लोगों को देश की समस्याओं को एक राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में देखना चाहिए।

आजाद भारत के बारे में नेहरू का स्वप्न बहुत ही स्पष्ट था। उन्होंने एक बार कहा था “एक बात जिसकी हम सभी को जानकारी होनी चाहिए वह यह है कि भारत में कोई ऐसा वर्ग, कोई ऐसा दल, कोई ऐसा धार्मिक समुदाय नहीं है जो कि तब भी प्रगति करेगा जब भारत प्रगति नहीं करेगा। यदि भारत का पतन होता है तो हम सभी का पतन होता है —- यदि भारत में सब कुछ ठीक है, यदि भारत एक सक्रिय, स्वतंत्र देश के रूप में रहता है तो हम सभी ठीक-ठाक होंगे चाहे हम किसी भी समुदाय अथवा धर्म से संबंध रखते हो।” काश हमारे वर्तमान नेतागण इसे कांग्रेस पार्टी के संदेश के ही रूप में नहीं देखते बल्कि आदर्श संदेश के रूप में देखते। आज की गठबंधन राजनीति में स्वयं सेवा सामान्य घटना प्रतीत होती है।

भारतीय एकता संबंधी जवाहरलाल का विचार केवल एक अमूर्त विचार नहीं है। सितम्बर 28, 1961 को नई दिल्ली में राष्ट्रीय एकता सम्मेलन के शुरूआती सत्र को संबोधित करते हुए उन्होंने श्रोतागणों को सारण दिलाया,” शेष विश्व की तरह ही भारत में हम इतिहास के सर्वाधिक परिवर्तन की अवधि से गुजर रहे हैं। इसमें आश्चर्य की बात नहीं है कि इस परिवर्तन के दौरान ऐसी घटनाएं होती हैं जो हमेशा ही हमारी इच्छा के अनकल नहीं होती हैं। इसलिए में इन कष्टकर तथा अतिसंवेदनशील बातों को भयानक बातों के रूप में नहीं देखता। उन्हें घटित होना है और वस्तुतः जिस तरह ये घटित हो रही है उनसे यह पता चलता है कि हम आगे बढ़ रहे हैं और हमारे भीतर कुचले हुए आवेग ऊपर आ रहें हैं और हमारे सामने जो भी बुराइयाँ रही हैं उनसे हम मुकाबला कर रहे हैं।” 26 मार्च, 1964 को राष्ट्र के लिए एक प्रसारण में उन्होंने कहा “असौ से भारत के लोगों के लिए एक दूसरे के साथ सौहर्द से रहना एक गौरवान्वित सौभाग्य रहा है। यह भारतीय संस्कृति का आधार रहा है। बहुत पहले बुद्ध ने हमें यह शिक्षा दी थी। 2300 वर्ष पहले अशोक के समय से हमारे विचार के इस पहलू की लगातार घोषणा की गई है तथा इसका व्यवहार किया गया है। हमारे अपने दिनों में महात्मा गांधी ने इस पर अत्यधिक बल दिया और वस्तुतः उन्होंने अपनी जान गंवाई क्योंकि उन्होंने साम्प्रदायिक सदभावना तथा सौहार्द पर बल दिया। इसलिए हमें एक मूल्यवान धराहर को बचाए रखना है और हम इसके विपरीत काम नहीं कर सकते हैं।”

सांप्रदायिक मेल-मिलाप के प्रति नेहरू का दष्टिकोण आज के सांप्रदायिक रूप से अधिभारित समाज के लिए अत्यधिक प्रासंगिक है। सांप्रदायिक संघर्षों, जिनसे सामाजिक सौहद नष्ट हो जाता है, को देखकर उनका मन व्यथित हो गया और उन्होंने धर्मान्धता, जिससे साम्प्रदायिक संघर्ष जन्म लेता है, को दूर करने की भरसक कोशिश की। उन्होंने लोगों को सावधान कियाः” हमें देश में उन विध्वंसक प्रवृत्तियों के विरूद्ध अवश्य ही सजग रहना चाहिए जो मौका मिलते ही अपना सिर उठाती है। इन प्रवृत्तियों में से कुछ ऐसी प्रवृत्तियां हैं जो साम्प्रदायिकता के नाम के अन्तर्गत आती हैं- धार्मिक वेश में राजनीति, एक धार्मिक वर्ग को दूसरे धार्मिक वर्ग से नफरत करने के लिए उकसाना।”

राष्ट्रवाद के बारे में चर्चा करते हुए नेहरू ने कहा, “राष्ट्रवाद का अर्थ हिन्दू राष्ट्रवाद, मुस्लिम राष्ट्रवाद अथवा सिक्ख राष्ट्रवाद नहीं है। जैसे ही आप हिन्दु, सिक्ख अथवा मुस्लिम की बात करते हैं तो आप भारत की बात नहीं करते हैं। प्रत्येक व्यक्ति को खुद से यह प्रश्न पूछना चाहिए: आप भारत को किस रूप में देखना चाहते हैं- एक देश, एक राष्ट्र अथवा 10, 20 या 25 राष्ट्र मजबूती अथवा स्थायित्व बगैर एक खंडित अथवा, विभाजित राष्ट्र जो हल्के-से-हल्के झटके से टुकड़ों में बट सकता है। प्रत्येक व्यक्ति को इस प्रश्न का जवाब देना है। अलगाव सदा से ही भारत की कमजोरी बनी हुई है। विखण्डनकारी प्रवृत्तियां, चाहे वे हिन्दू से संबंध रखती हों अथवा मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई अथवा अन्य समुदायों से, अत्यन्त खतरनाक और गलत हैं। ये तुच्छ एवं पिछड़े विचारों से संबंध रखती हैं। कोई भी जो युगबोध को समझता है, सांप्रदायिकता के संबंध में नहीं सोच सकता है।”

नेहरू ने कहा, “मैं भारत की एकता पर बल देता हूं, केवल राजनीतिक एकता के लिए नहीं जो हमने प्राप्त की है वरन कुछ दूरगामी, भावनात्मक एकता, हमारे मन और आत्मा के एकीकरण, अलगाववाद की भावनाओं को कुचलने के लिए।”

एक इतिहासकार के रूप में जवाहरलाल ने सभ्यताओं के उत्थान और पतन के कारणों का विश्लेषण किया। उन्हें भारत के पतन के कारणों की भी जानकारी थी। दिसम्बर, 1955 में त्रिचूर में भाषण देते हुए उन्होंने बतलाया “हमारे सामने इतिहास की सीख मौजूद हैं। हमने यह देखा है कि अपनी अनेक विशिष्टताओं तथा श्रेष्ठ क्षमताओं के बावजूद हम राष्ट्रों की दौड़ में लगातार पिछड रहे हैं और हमारे बीच इस एकता की कमी के कारण ही भारत के समस्त समुदाय जातियों और संप्रदायों में विभाजित हो गए हैं जो एक साथ आगे नहीं बढ़ते। इसलिए मैं हर कहीं भारत की एकता और साम्प्रदायिकता, प्रान्तीयतावाद, अलगाववाद तथा जातिवाद से लड़ने की अपनी आवश्यकता पर जोर देता हूं।”

नेहरू को स्मरण करना राष्ट्रीय एकता और अखण्डता पर उनके संदेश को स्मरण करना है। उन्होंने कहा “मुख्य बात जिसे हमें याद रखना वह है भारत की भावनात्मक अखण्डता — हमें इस महान देश को शक्तिशाली देश के रूप में निर्मित करना है शक्तिशाली इस शब्द के सामान्य अर्थ, जो विशाल सेनाओं इत्यादि का होना है, में नहीं बनाना है वरन विचार में शक्तिशाली, कार्य में शक्तिशाली, संस्कृति में शक्तिशाली तथा मानवता की शन्तिपूर्ण सेवा में शक्तिशाली बनाना है।” ये शब्द पचास वर्ष पहले कहे गए हैं परन्तु प्रत्येक शब्द अत्यधिक प्रासंगिक है।

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