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Hindi Essay on “Mera Priya Lekhak Premchand”, “मेरा प्रिय लेखक प्रेमचन्द” Complete Hindi Nibandh for Class 10, Class 12 and Graduation and other classes.

मेरा प्रिय लेखक प्रेमचन्द

Mera Priya Lekhak Premchand

निबंध नंबर :- 01

जीवन-परिचय : भारत के अमर कथाकार, उपन्यास सम्राट मुन्शी प्रेमचन्द का जन्म 31 मई सन् 1880 ई०, तद्नुसार श्रावण कृषक दशमी सं०1937 वि० शनिवार को काशी से 4 मील उत्तर पाण्डेयपुर के निकट लमही ग्राम में एक निम्न वर्ग के कुलीन कायस्थ परिवार में हुआ था। आपका बचपन का असली नाम धनपतराय था। माता का नाम आनन्दी देवी था। पिता बाबू अजायबराय डाकखाने में 20 रु० मासिक वेतन पर मुन्शी का कार्य करते थे।

प्रेमचन्द की प्रारम्भिक शिक्षा पाँचवे वर्ष से प्रारम्भ हुई। पहले उन्होंने उर्दू पढी। इसके पश्चात् संवत् 1955 में क्वीन्स कॉलेज से हाई स्कूल की परीक्षा पास की। इसके बाद प्रयाग में सरकारी नौकरी में आकर सी०टी० और इंटर परीक्षा पास की। उन्नति करते करते वे स्कूलों के सब डिप्टी इंस्पेक्टर हो गए ; किन्तु स्वास्थ्य खराब हो जाने के कारण छोड़ दी । पुनः बस्ती के सरकारी  स्कूल में अध्यापक हुए। वहाँ से गोरखपुर जाकर बी०ए० की परीक्षा उत्तीर्ण की। संवत् 1978 (सन् 1921) में देश की स्थिति को देखकर सरकारी नौकरी से त्याग-पत्र दे दिया।

इसके पश्चात् लखनऊ से निकलने वाले मासिक-पत्र ‘माधुरी’ का कुछ दिनों तक सम्पादन किया। फिर काशी में अपना प्रेस खोलकर ‘हंस’ तथा ‘जागरण’ मासिक पत्र निकाले; किन्तु घाटा होने के कारण इसे भी छोड़ना पड़ा। अर्थोपार्जन के लिए बम्बई जाकर वहाँ से भी लौटना पड़ा और अन्त में गाँव में रहकर ‘गोदान’ नामक अन्तिम उपन्यास निकालकर संवत् 1993 (8 अक्तूबर, 1936 ई०) को वे इस असार संसार से विदा हो गए।

साहित्यिक कार्य : प्रेमचन्द जी समय की गति को पहचानने में अद्वितीय थे। जीवन की निर्मम परिस्थितियों का कटु आस्वादन उन्होंने भली भाँति किया था। वे समाजवादी विचारधारा से प्रभावित थे जिसकी छाप उनकी कृतियों पर स्पष्ट रूप से पड़ी है। ग्रामीण जीवन का जैसा जीता-जागता चित्र उनकी रचनाओं में उपलब्ध है, वैसा अन्यत्र कहीं नहीं। ग्राम्य निवासियों की अशिक्षा, शोषण, शोक, हर्ष, मोह और लिप्सा का अत्यन्त सजीव एवं साकार चित्रण उनकी रचनाओं में हुआ है। यथार्थ चित्रण के साथ उनकी रचनाओं में आदर्श का समन्वय हुआ है। प्रेमचन्द जी का दृष्टिकोण सर्वत्र मानवतावादी था।

उपन्यास तथा कहानियों के अतिरिक्त उन्होंने निबन्ध तथा नाटक भी लिखे हैं। इसके साथ ही साथ उनकी छोटी-छोटी कहानियाँ भी अत्यन्त लोकप्रिय हुई हैं। वास्तव में प्रेमचन्द जी अपने युग के एक महान् कलाकार थे। हिन्दी जगत उनकी सेवाओं के लिए सदैव उनके प्रति श्रद्धानत रहेगा।

रचनाएँ-सम्पादन : मर्यादा, माधुरी, हंस, जागरण, गल्प सुमन, गल्प रत्न, जमाना’ ।

उपन्यास : कर्मभूमि, कायाकल्प, निर्मला, प्रतिज्ञा, प्रेमाश्रम, वरदान, रंगभूमि, मंगलसूत्र, दुर्गादास, सेवासदन, गबन तथा गोदान।

कहानी-संग्रह : इन्होंने लगभग 300 कहानियाँ लिखीं जिनका प्रमुख संग्रह मानसरोवर (आठ भागों में) है। इसके अतिरिक्त अन्य संग्रह प्रेम प्रसून, प्रेम-पच्चीसी, प्रेम-तीर्थ, प्रेम-पूर्णिमा, प्रेमद्वादशी, प्रेरणा और ग्राम्य जीवन की कहानियाँ हैं।

नाटक : कर्बला, संग्राम, प्रेम की वेदी, रूहानी-शादी, रूठी रानी और चन्द्रहार।

निबन्ध संग्रह : कुछ विचार, स्वराज्य के फायदे और साहित्य का उद्देश्य।

अनूदित : अहंकार, सुखदास, आज, चाँदी की डिबिया, टालस्टाय की कहानियाँ, सृष्टि का आरम्भ, न्याय और हड़ताल आदि।

जीवन-चरित : दुर्गादास, महात्मा शेखसादी, कमल-तलवार और त्याग।

बाल-साहित्य : कुत्ते की कहानी, मन-मोदक, रामचर्चा आदि।

भाषा : प्रारम्भ में प्रेमचन्द जी उर्दू के लेखक थे। बाद में हिन्दी में लिखना प्रारम्भ किया। उनकी भाषा साधारण बोल-चाल की चलती हुई भाषा है। उसमें मुहावरों और कहावतों का पर्याप्त प्रयोग मिलता है। कहीं-कहीं ‘ज्योति’, ‘अन्त:करण’ जैसे संस्कृत शब्दों का भी प्रयोग है। उनकी भाषा सरल, सुबोध तथा पात्रानुकूल कथोपकथनों के अनुरूप है। अरबी, फारसी तथा अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग यत्र-तत्र मिलता। है। सूक्तियाँ भी यथास्थान प्रयुक्त हुई हैं।

शैली-प्रेमचन्द की शैली अत्यन्त आकर्षक एवं मार्मिक है। उसमें उर्दू का चुलबुलापन तथा हिन्दी की सरलता, भाव गम्भीरता एवं सजीवता का उत्तम योग मिलता है। उनकी शैली के मुख्यत: निम्न तीन रूप  हैं।

( क ) वर्णनात्मक शैली : प्रेमचन्द जी ने अपने उपन्यासों और कहानियों आदि में किसी घटना, दुश्य अथवा व्यक्ति का वर्णन करते समय इस शैली का प्रयोग किया है। उपमाओं और उत्प्रेक्षाओं द्वारा इस शैली में सजीवता तथा रोचकता आ गई है। इस शैली में सरल, सुबोध शब्दों का प्रयोग है।

(ख) विचारात्मक शैली : यह उनकी गम्भीर तथा पुष्ट शैली है। इसमें संयत तथा परिष्कृत भाषा का प्रयोग हुआ है। इस शैली का प्रयोग प्रेमचन्द जी ने प्राय : अपने निबन्धों तथा कहानियों में किया  है।

( ग ) भावात्मक शैली : इसमें वाक्य विन्यास अनूठा, शब्दावली रोचक तथा भाषा सरल है। इसमें हास्य और व्यंग्य का भी पर्याप्त पुट है। सामाजिक कुरीतियों, राजनीतिक चालों, धार्मिक पाखण्डों तथा नैतिक ह्रास के चित्रण में इस शैली का खुलकर प्रयोग किया गया है।

उपंसहार : प्रेमचन्द जी का हिन्दी साहित्य के कहानी तथा निबन्ध लेखकों में श्रेष्ठ स्थान है। उपन्यासों के तो वे सम्राट ही कहे जाते हैं। उनके गबन तथा गोदान जैसे उपन्यासों पर तो चलचित्र निर्माण ही भी चुका है। जब तक इस भू पर सूर्य व चन्द्र है तब तक उनकी कीर्ति अमर रहेगी ।

 

निबंध नंबर :- 02

मेरा प्रिय लेखकमुंशी प्रेमचन्द

Mera Priya Lekhak Munshi Premchand

खान-पान, रहन-सहन और वेशभूषा की भिन्न का आधार प्रत्येक व्यक्ति की अपनी-अपनी रुचि होती है। इसी तरह साहित्य में भी कोई किसी एक लेखक को पसन्द करता है और कोई किसी दूसरे को। मेरे बहुत से मित्र गुलशन नन्दा, शरतचन्द्र, प्रियदर्शी, राजवंश, समीर और कुशवाहा कान्त में से किसी एक को अपनी रुचि के अनुसार अपना प्रिय लेखक मानते हैं, किन्तु मैं तो प्रेमचन्द जी की रचनाएं ही पसन्द करता हूँ और वही मेरे प्रिय लेखक हैं।

प्रेमचन्द जी का जन्म बनारस के पास लमही नामक गांव में 1880 में हुआ था। इनके पिता डाकखाने में कलर्क थे और बहुत थोड़ा वेतन पाते थे। आठ वर्ष की अवस्था में प्रेमचन्द को माता की मृत्यु का दुख सहना पड़ा था। पिता जी ने दूसरा विवाह कर लिया और बहुत छोटी अवस्था में प्रेमचन्द का भी विवाह कर दिया गया। पिता जी की मृत्यु हो जाने पर परिवार के पालन-पोषण का बोझ प्रेमचन्द के कन्धों पर आ पड़ा। अनेक प्रकार की बाधाओं और कठिनाइयों का सामना करते हुए उन्होंने बी.ए. पास कर ही लिया और शिक्षा विभाग में डिप्टी इन्सपैक्टर बन गए। स्वाधीनता आंदोलन और गांधी जी के विचारों से प्रभावित हो कर सरकारी नौकरी को त्याग दिया और फिर जीवन पर्यन्त लेखनी चलाते रहे।

प्रेमचन्द जी का माता-पिता द्वारा रखा गया नाम धनपतराय था। जब उर्दू में लिखना आरम्भ किया तो मंशी नवाबराय के नाम से लिखने लगे। बाद में वे प्रेमचन्द के नाम से लिखने लगे और इसी नाम से प्रसिद्ध हुए। वे स्वयं अपने आप को कलम का मज़दूर मानते थे।

अपने सिद्धान्तों के अनुसार उन्होंने अपना दूसरा विवाह एक विधवा शिवरानी देवी से किया। प्रेमचन्द का स्वास्थ्य अच्छा नहीं रहता था, फिर भी वे निरन्तर काम में लगे रहते थे। भारत में स्थापित प्रथम प्रगतिशील लेखक संघ का उद्घाटन उन्होंने ही किया था। आखिर 8 अक्टूबर 1936 को पेट की बीमारी के कारण साहित्य के इस अनमोल रत्न का देहावसान हो गया।

प्रेमचन्द जी ने तीन सौ के लगभग कहानियां लिखीं और बारह उपन्यासों की रचना की। कफन, बूढ़ी काकी, शतरंज के खिलाड़ी, दो बैल और पचंपरमेश्वर आदि उनकी प्रसिद्ध कहानियां हैं। निर्मला, सेवासदन और गबन आदि उनके सामाजिक उपन्यास हैं और गोदान, रंगभूमि, कर्मभूमि आदि उपन्यासों में सामाजिक के साथ-साथ राजनैतिक प्रश्नों एवं पृष्ठभूमि को भी लिया गया। प्रेमचन्द गल्प सम्राट् और उपन्यास सम्राट् की पदवी से सम्मानित हैं।

प्रेमचन्द जी कहानियों को घटनाप्रधानता की ओर से चरित्र प्रधानता की ओर लाए। उनसे पहले उपन्यास या तो रहस्योरोमांच से सम्बन्ध रखते थे या कोरे उपदेशों से भरपूर होते थे। उन्होंने उसकी जगह सामाजिक जीवन और युगीन समस्याओं को अपने उपन्यासों का विषय बना कर साहित्य में मानों क्रांति ला दी। आजकल के प्रचलित लेखकों के उपन्यासों के प्रेम का ही चित्रण होता है। न तो जीवन की सच्चाईयों को छुआ जाता है और न ही सामाजिक समस्याओं को। प्रेमचन्द जी की रचनाएं भारतीय समाज के जीवन का सही और ईमानदारी से चित्रण करती हैं, इसी लिए यह मेरे प्रिय लेखक हैं।

वह साहित्य जो क्षणभर के दिलबहलावे के लिए ही लिखा जाए या जनता की रुचि के पीछे लग कर पैसे कमाने के उद्देश्य से लिखा जाए सच्चा साहित्य नहीं होता। ऐसी रचनाओं को लोग पढ़ते हैं और भूल जाते हैं। प्रेमचन्द जी ने न तो धन कमाने के लिए पुस्तकें लिखीं और न ही हल्की एवं घटिया जनरूचि का अनुसरण किया। उनके सामने तो एक महान् उद्देश्य था। इसीलिए वे निर्धनता और विपत्तियों का सामना करते रहे किन्तु अपने मार्ग से विचलित नहीं हुए। उनका साहित्य जीवन का प्रतिबिम्ब है और जीवन को प्रेरणा देता है। इसीलिए उनकी कृतियां अमर भी हैं। आज संसार की लगभग सभी प्रमुख भाषाओं में उनकी रचनाओं के अनुवाद हो चुके हैं।

प्रेमचन्द जी की महत्ता उनकी भाषा-शैली में भी हैं। उन्होंने आम हिन्दुस्तानी की समझ में आने वाली और उसके द्वारा बोली जाने वाली भाषा का प्रयोग किया। है। न तो फारसी पर जोर दिया है और न ही संस्कृत के तत्सम शब्दों की भरमार की है।

प्रेमचन्द हिन्दुओं या मुस्लमानों के लेखक नहीं वे तो भारत के महान् लेखक हैं। उर्दू, हिन्दी भाषाओं के लेखकों को उन पर गर्व है। भारत का और मानव का यह सफल चितेरा ही मेरा प्रिय लेखक है।

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