Hindi Essay on “Bharatiya Sanskriti – Hamari Dharohar”, “भारतीय संस्कृति: हमारी धरोहर” Complete Hindi Essay, Paragraph, Speech for Class 7, 8, 9, 10, 12 Students.
भारतीय संस्कृति: हमारी धरोहर
Bharatiya Sanskriti – Hamari Dharohar
भूमिका– किसी देश का आचार-विचार ही उस देश की संस्कृति कहलाती है। कछ लोग सभ्यता और संस्कृति को एक-दूसरे का पर्याय मानने लगे हैं जिससे कई प्रकार की भ्रान्तियाँ उत्पन्न हो गई हैं। वास्तव में सभ्यता और संस्कृति दोनों ही अलग-अलग होती हैं। सभ्यता का सम्बन्ध हमारे बाहरी जीवन के ढंग से है यथा खान-पान, रहन-सहन, बोलचाल जबकि संस्कृति का सम्बन्ध हमारी सोच, चिन्तन व विचारधारा से हैं।
संस्कृति किसी देश, समुदाय या जाति की आत्मा होती है। संस्कृति से ही उस देश, जाति या समुदाय के उन समस्त संस्कारों का बोध होता है जिनके सहारे वे अपने आदर्शों, जीवन मूल्यों आदि का निर्धारण करता है। संस्कृति शब्द का साधारण अर्थ है— संस्कार, सुधार, परिष्कार, शुद्धि, सजावट आदि। भारतीय प्राचीन ग्रन्थों में संस्कृति का सम्बन्ध संस्कारों से माना गया है।
भारत संसार का प्राचीनतम देश है। इसकी सभ्यता एवं संस्कृति अति प्राचीन है। विश्व की विभिन्न संस्कृतियाँ भारतीय संस्कृति के समक्ष उत्पन्न हुईं और मिट गईं। कुछ बात है ऐसी कि हस्ती मिटती नहीं हमारी’ क्योंकि हमारी संस्कृति की जड़े अमरता के साथ अत्यन्त दृढ़ता एवं गहराई तक जमी हुई हैं जो सरलता से सूख नहीं सकती। भारतीय संस्कृति की पृष्ठभूमि में मानव कल्याण की भावना निहित है। भारत की संस्कृति की मूल भावना “वसुधैव कुटुम्बकम्’ अथ त् सारा संसार एक परिवार के समान है, के पावन उद्देश्य पर आधारित है। भारतीय संस्कृति में मानव कल्याण की भावना ही यत्र तत्र सर्वत्र दिखाई देती है।
भारतीय संस्कृति की सबसे बडी विशेषता और मूल मन्त्र आध्यात्मिकता है। भारतीय संस्कृति की आध्यात्मिकता का आधार ईश्वरीय विश्वास है। यहाँ विभिन्न धर्मों व मतों में विश्वास रखने वाले लोग आत्मा-परमात्मा में विश्वास रखते हैं। त्याग और तपस्या भारतीय संस्कृति के प्राण हैं। त्याग की भावना के कारण मानव मन में दूसरों की सहायता और सहानुभूति जैसे गुणों का विकास होता है तथा स्वार्थ और लालच जैसी दुर्भावनाओं का विनाश होता है। कर्ण, हरिश्चन्द्र, दधीचि आदि का त्याग भारतीय संस्कृति का आदर्श है।
फूलों में जो स्थान सुगन्ध का है, फलों में जो स्थान मिठास का है, भोजन में जो स्थान स्वाद का है ठीक वही स्थान जीवन में सम्यक् संस्कार का है। विवाह भी एक धर्म संस्कार है कि एक पत्नी के जीवन में एक ही पति रहे, एक ही पुरुष के साथ उसका सम्बन्ध रहे। विवाह मन्त्रों द्वारा दोनों में यह संस्कार डाला जाता है कि यह मेरा पति है और यह मेरी पत्नी है, हमारा और तुम्हारा हृदय एक है, हमारे और तुम्हारे विचार एक हैं और हम जीवन भर एक दूसरे से मिलकर साथ-साथ चलेंगें।
संस्कार और संस्कृति दोनों शब्दों का अर्थ है धर्म। धर्म का पालन करने से ही मनुष्य मनुष्य है, अन्यथा खाना-पीना, रोना-धोना, सन्तान उत्पन्न करना आदि सब काम पशु भी तो करते हैं परन्तु पश और मनुष्य में भेद यह है कि मनुष्य उक्त सभी कार्य संस्कार के रूप में करता है। गाय, भैंस घोडा, बछड़ा आदि जेसा खेत में अनाज खड़ा रहता है वैसा ही खा जाते हैं। लेकिन कोई मनुष्य खड़े अनाज को खेतों में ही खाने को तैयार नहीं होता, खाएगा तो लोग कहेंगे पशु स्वरूप है। इसलिए संस्कार, संस्कृति और धर्म के द्वारा ही मानव में मानवता आती है।
संस्कृति की छाप हमारे दैनिक जीवन को भी प्रभावित करती है। उदाहरण के लिए हमारे जीवन का यह सामान्य नियम है कि हम अपनी पत्नी को छोड़कर बाकी सभी स्त्रियों को मां कह कर ही पुकारते हैं, चाहे वह जिस अवस्था एवं प्रतिष्ठा की हो, यह हमारी संस्कृति का विशेष स्वरूप है। इस सम्बन्ध में शिवाजी का एक प्रसिद्ध उदाहरण देखिए कि उन्होंने कल्याण के मुसलमान सूबेदार को सुन्दर पुत्रवधू को नाना प्रकार के उपहारों के साथ अत्यन्त सम्मान पूर्वक लौटा दिया था।
पर्व एवं त्यौहार जन जन में सांस्कृतिक संस्कारों का जागरण करते हैं, परम्पराओं को प्रेरित करते हैं, लोक जीवन को प्रभावित करते हैं। लोक जीवन ही संस्कृति का साकार रूप धारण कर लेता है। वह फिर चाहे राम लीला हो या कृष्ण की रास लीला। दोनों में ही संस्कृति का उदात्त रूप देखने को मिलता है। संस्कार व्यक्ति को जागृत करते हैं जबकि पर्व एवं त्यौहार सम्पूर्ण समाज को।
यह कितने दुर्भाग्य की बात है कि विदेशी अपनी संस्कृति से ऊबकर हमारी संस्कृति अपना रहे हैं और हम उनकी मरती हुई संस्कृति की ओर ललचाई नज़रों से देख रहे हैं। प्राचीन काल से भारतीय संस्कृति विश्व की संस्कृतियों को नियन्त्रित करती थी। हम इतने बलशाली थे कि सारा विश्व हमारा लोहा मानता था लेकिन आज हम इतने निर्बल हो गए हैं कि छोटे से छोटा देश भी हमें आँखें दिखा देता है। आज हमारा अर्थशास्त्र भी दूसरे देशों पर निर्भर होता जा रहा है। जिसके राज में कभी सूर्य अस्त नहीं होता था, वे हमारे कर्जदार थे, लेकिन आज अरबों-खरबों का कर्ज़ लेकर हम आत्म सम्मान से जीने का ढोंग कर रहे हैं।
भारतीय संस्कृति को अपनाकर, शास्त्रों द्वारा दिखाए गए मार्ग पर चलकर जीवन सफल बनाएं, यश के भागीदार बने एवं संस्कार सम्पन्न सनातम धर्म एवं संस्कृति की रक्षा करें तभी हम अपने प्राचीन गौरव को प्राप्त कर सकते हैं और भारत वर्ष को फिर से विश्व गुरू के आसन पर बिठा सकते हैं।
बहुत ही बढ़िया लेख लिखा है इसकी आज समाज को बहुत जरुरत है आपका बहुत बहुत धन्यवाद |