Vyatirek Alankar Ki Paribhasha aur Udahran | व्यतिरेक अलंकार की परिभाषा और उदाहरण
व्यतिरेक अलंकार
Vyatirek Alankar
जब कविता में कवि कहें,
उपमेय बड़ा और लघु उपमान।
गुण विशेष के कारण तब,
व्यतिरेक अलंकार को पहचान।
परिभाषा – जब काव्य में गुण विशेष के कारण उपमेय (जिसका वर्णन किया जा रहा हो) को ही उपमान (जिससे तुलना की जा रही हो) से बड़ा बताया जाये, तो वहाँ पर व्यतिरेक अलंकार होता है।
स्वर्ग की तुलना, उचित ही है यहाँ,
किंतु सुरसरिता कहाँ, सरयु कहाँ?
वह मरों को मात्र पार उतारती,
यह यहीं से जीवितों को तारती ।
यहाँ धरती की तुलना स्वर्ग से की गयी है, किंतु धरती को स्वर्ग से भी श्रेष्ठ बताया गया है।
जन्म सिन्धु पुनि बंधु विष, दिनन मलीन सकलंक।
सिय मुख समता पाव किमि, चंदु बापुरौ रंक।।
यहाँ पर सीता का मुख उपमेय है और चंद्रमा उपमान। इस उपमान को सीता के मुख के सामने हीन बताया गया है, अतः यहाँ व्यतिरेक अलंकार है।
सन्त-हृदय नवनीत समाना,
कहौं कवनि पर कहै न जाना।
निज परताप दवै नवनीता,
पर दुःख दवै सुसंत पुनीता ।।
यहाँ सन्तों (उपमेय) को नवनीता (उपमान) से श्रेष्ठ प्रतिपादित गया है।
अहा अंबरस्था ऊषा भी इतनी शुचि संस्फूर्ति न थी ।
अवनी की ऊषा सजीव थी, अंबर की कीन्सी मूर्ति न थी ।।
यहाँ पर सीता को पृथ्वी की ऊषा कहकर उनकी तुलना आकाश स्थित प्रातः कालीन सूर्य से की गई है। किन्तु सीता को ही श्रेष्ठ बताया गया है।
राधा मुख को चन्द्र सा कहते हैं मतिरेक।
निष्कलंक है यह सदा, उसमें प्रकट कलंक।।
यहाँ राधा का मुख उपमेय है और चन्द्रमा उपमान। उपमान की अपेक्षा उपमेय का उत्कर्ष वर्णित है और उत्कर्ष का यह कारण बताया गया है कि चन्द्रमा सकलंक है और उपमेय मुख-निष्कलंक है। इसलिये यहाँ व्यतिरेक अलंकार है।