Sahitya aur Rajniti “साहित्य और राजनीति” Hindi Essay, Paragraph in 1000 Words for Class 10, 12 and competitive Examination.
साहित्य और राजनीति
Sahitya aur Rajniti
साहित्य समाज का दर्पण ही नहीं होता बल्कि वह दिशा-निर्देशक और पथ-प्रदर्शक भी होता है। साहित्य की भांति राजनीति भी किसी स्वतंत्र राष्ट्र और सर्वसत्ता-सम्पन्न राष्ट्र के कार्यों, गतिविधियों का आईना बनकर उसका पथ-प्रदर्शन भी किया करती है। कार्य या उद्देश्य की दृष्टि से इस प्रकार की समानता रहते हुए भी दोनों में एक बुनियादी अन्तर है। साहित्य में भाव या हृदय पक्ष की प्रधानता रहती है जबकि बुद्धि तत्व उसे जीवन- व्यवहारों के तटबन्धन और कल्पना तत्व सब-कुछ को सजा-संवार कर प्रस्तुत करते रहने की प्रेरणा देती है। इसके विपरीत राजनीति में भावना और हार्दिकता के लिए, कल्पना के लिए प्रायः स्थान नहीं होता। इसमें बौद्धिक एवं भौतिक यथार्थ ही सत्य हुआ करता है। राजनीति का समूचा ढांचा सिद्धान्ततः उसी पर अवलम्बित रहा करता है जबकि आज की राजनीति गुण्डागर्दी, वोटों की गिनती और कुर्सी तक पहुँच पाने की सीढ़ी ही बनकर रह गई है।
साहित्य का कार्य या उद्देश्य मनोरंजक ढंग से जन-कल्याण करना, उसके जीवन-समाज को स्फूर्त कर नव-निर्माण और सुख-समृद्धि के शान्त पड़ावों की ओर ले जाना ही मुख्य रहा और माना गया है। इसी प्रकार बुनियादी तौर पर राजनीति का उद्देश्य मात्र मनोरंजन को छोड़ और सब कुछ भी करना है कि जो साहित्य के बारे में ऊपर कहा गया है। यदि वास्तव में अपने मूल सिद्धान्तों पर चलना जीवन-समाज को उन्नत विकसित बना दे, तो मनोरंजन या आनन्द का तत्व बाद में स्वयं ही आकर उसका महत्त्व बढ़ा देती है। लेकिन आज का सत्य या तथ्य राजनीति और साहित्य दोनों क्षेत्रों में स्वयं पथभ्रष्ट होकर मानव-जीवन-समाज को भड़का एवं भटका रहा है। खेद सहित स्वीकार करना पड़ता है कि ऊपर कथित बातें सच हैं। इसके लिए दोनों क्षेत्रों की विभिन्न और विविध निहित स्वार्थों वाली गुटबन्दियां ही जिम्मेदार हैं, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं ।
साहित्य जब कई तरह के वादों के साथ जुड़ जाता है तब उसकी सारी चेतना वादात्मक सिद्धान्तों, मान्यताओं और रूप-रेखाओं में बंधकर ही चला करती है। फलतः उसमें ‘सर्वजन हिताय’ की भावना नहीं आ पाती है और वह लोक-हित का साधन तो क्या, ठीक प्रकार से लोकरंजन तक नहीं कर सकता। यही बात कई तरह के वादों, गुटों में बंटकर मात्र वोटों की संख्या और सत्ता की कुर्सी पर नजर रखने वाली राजनीति का भी सत्य है। आज की राजनीति और साहित्य दोनों इसी कारण जीवन-समाज को जितना चाहिए उतना नहीं दे पाते हैं।
ऐसा माना गया है कि तीर, बन्दूक, बमगोला आदि में उतनी शक्ति और प्रभाव नहीं जितने कि कलम और उससे रचे जाने वाले साहित्य में रहा करती है। इससे स्पष्ट है कि साहित्य जीवन को बहुत अधिक प्रभावित कर सकता है। साहित्य का उद्भव चूंकि हृदय से होता है इसलिए उसका प्रभाव भी सीधे हृदय पर ही पड़ा करता है। वह अपनी प्रभविष्णुता से, अपनी सारी ऊर्जा, अजस्र शक्ति पाठकों और श्रोताओं के अन्तर्मन में उड़ेल दिया करता है। हर दृष्टि से उसमें नवीन प्राणों को उद्वेलित कर दिया करता है। कुछ इसी प्रकार की बात राजनीति के बारे में भी कही जा सकती है। सच यह है कि उसका उद्देश्य उतना हृदय पर नहीं हुआ करता जितना कि जीवन-समाज के बौद्धिक क्षेत्रों पर। इनके माध्यम से ही हृदय में प्रवेश कर वह जन-मानस को क्रान्ति एवं नव-निर्माण के लिए, त्याग और बलिदान के लिए भी तैयार किया करती है। इस प्रकार स्पष्ट है जन-जीवन में नवचेतना, नवस्फूर्ति का संचार करना, नवक्रान्ति और नव-निर्माण की प्रेरणा देना साहित्य और राजनीति दोनों का काम है।
राजनीति और साहित्य के क्षेत्र सर्वथा भिन्न और अलग रहे हैं। लेकिन जब और जिस युग में भी ये दोनों गलबहियां डाल कदम से कदम मिलाकर चले हैं, इन्होंने जीवन-समाज में आमूल परिवर्तन लाकर रख दिए हैं। फ्रेंच क्रान्ति, रूस क्रान्ति, के मूल में युगीन साहित्य और साहित्यकारों का जबरदस्त हाथ माना जाता है। भारत जब स्वतन्त्रता-प्राप्ति के लिए संघर्ष कर रहा था, तब भी साहित्य राजनीति के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर चलता रहा, इस तथ्य से सभी लोग भली-भांति परिचित हैं। वीरगाथा काल और परवर्ती कालों के चारण और भाट कवियों को रीतिकाल के भूषण आदि कवियों को भला कौन भुला सकता है। कि जिनके स्वर वीरों की भुजाएं फड़काकर उन्हें अपनी तलवारों की म्यान से बाहर निकाल देने को बाध्य कर दिया करते थे। भारतेन्दु-युग द्विवेद्वी युग में रचे गए साहित्य ने भी राजनीति का उचित मार्गदर्शन कर लोगों को राष्ट्र निर्माण का स्वतन्त्रता प्राप्ति की राह पर अग्रसर किया।
यह हमें स्वीकार करना पड़ता है कि आज की राजनीति और साहित्य अपनी वह आन्तरिक ऊर्जा खो चुके हैं कि जिनके द्वारा मैथिली शरण गुप्त, माखनलाल चतुर्वेदी, नवीन और दिनकर जैसे कवि, लेखक राजनीति में रहकर भी जन-भावनाओं का कुशल प्रतिनिधित्व करते रहे। साहित्य और राजनीति दोनों के दायित्व-निर्वाह को औचित्य भी प्रदान करते रहे।
(1000 शब्दों में)