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Rashtriya Yuva Diwas – 12 January “राष्ट्रीय युवा दिवस – 12 जनवरी” Hindi Nibandh, Essay for Class 9, 10 and 12 Students.

राष्ट्रीय युवा दिवस – 12 जनवरी

स्वामी विवेकानन्द का जन्म-दिवस

हमारे देश में 12 जनवरी को प्रतिवर्ष स्वामी विवेकानन्द का जन्म दिन “राष्ट्रीय युवा दिवस” के रूप में मनाया जाता है।

स्वामी विवेकानन्द का जीवन-परिचय

विवेकानन्द के बचपन का नाम नरेन्द्रनाथ दत्ता था। इनका जन्म 12 जनवरी, 1863 को कोलकाता की ‘सिमूलिया’ नामक पल्ली में हुआ था। इनके पिता का नाम विश्वनाथ दत्ता तथा माता का नाम भुवनेश्वरी देवी था। कोलकाता विश्वविद्यालय में नरेन्द्रनाथ पश्चिम के दर्शनशास्त्र की ‘संदेहवाद’ प्रवृत्ति से प्रभावित हुए। नवम्बर, 1881 में नरेन्द्रनाथ का रामकृष्ण परमहंस के साथ प्रथम परिचय हुआ। इन्होंने 15 अगस्त, 1886 को रामकृष्ण परमहंस के निधन दिवस तक उनके पास रहकर शिक्षा प्राप्त की।

नरेन्द्रनाथ बचपन से ही बड़े मेधावी थे। उनकी विलक्षण प्रतिभा बाल्यकाल से ही स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगी थी। इनके घर में नियमित पूजा-पाठ होता था। अपनी माता भुवनेश्वरी देवी से रामायण और महाभारत सुनने से उनकी इन्हें बचपन में ही पूरी जानकारी हो गई थी। इनमें बचपन से ही धर्म के प्रति श्रद्धा और आदर का भाव था। नरेन्द्रनाथ निर्भीक और रहस्यप्रिय थे। इनकी स्मृति काफी तेज थी। जिसे ये एक बार पढ़ लेते थे वह इनको हमेशा के लिए याद हो जाता था।

इन्होंने बचपन में एक बार सुना कि पवन पुत्र हनुमान कदलीवन में रहते हैं और वे अमर हैं। अपनी जिज्ञासा के कारण ये पवन पुत्र से भेंट करने के लिए केलों के वन में अर्द्धरात्रि तक बैठे रहे। पवन पुत्र हनुमान नरेन्द्रनाथ दत्ता के जीवन के आदर्श थे।

नरेन्द्रनाथ बचपन में जिद्दी स्वभाव के थे। ये बिना तर्क के किसी बात को नहीं मानते थे। जब तक किसी बात का इन्हें प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं मिल जाता था, तब तक ये उसे नहीं मानते थे। इनकी माता इनसे तंग आकर कहा करती थी— “मैंने बहुत मनौती करके शिव से एक पुत्र की कामना की थी, किन्तु उन्होंने भेज दिया एक भूत।”

विद्यालय में पाठ याद करने में इन्हें देर नहीं लगती थी। इसलिए इनके पास काफी समय बचता था, जिसे ये खेलकूद में बिताते थे। दौड़-धूप, कुश्ती, तैराकी आदि इनके नित्य के काम थे। इनसे कुश्ती और खेलकूद में कोई मुकाबला नहीं कर सकता था। 1879 में इन्होंने स्कूल की शिक्षा पूरी की।

जब ये 18 वर्ष के थे, तब इन्होंने एफ.ए. की परीक्षा दी। इस समय तक नरेन्द्रनाथ ने वेदों और दर्शनों का भारतीय दर्शन के साथ तुलनात्मक अध्ययन कर लिया था। किन्तु अभी तक इन्हें कोई ऐसा गुरु नहीं मिला था, जो इनकी शंकाओं का समाधान कर सके।

रामकृष्ण परमहंस नरेन्द्रनाथ की विद्वत्ता और उत्कण्ठा के बारे में जान चुके थे। वे एक दिन कोलकाता में अपने मित्र सुरेन्द्रनाथ के घर आए थे। नरेन्द्रनाथ उनसे भेंट करने वहाँ पहुँचे। रामकृष्ण परमहंस उन्हें देखते ही चौंक पड़े और उन्होंने कहा- “अरे, यही तो सप्तर्षि मण्डल का महर्षि है।”

उन्होंने नरेन्द्रनाथ का सही परिचय दिया। वे तो अब तक नरेन्द्रनाथ की ही प्रतीक्षा कर रहे थे। नरेन्द्रनाथ ने वहाँ पर एक भजन गाया, जिस पर रामकृष्ण परमहंस हो उठे। उन्होंने नरेन्द्रनाथ के रूप में अपना उत्तराधिकारी पा लिया था। रामकृष्ण परमहंस ने उन्हें दक्षिणेश्वर आने का निमंत्रण दिया। इस घटना के बाद उनके पिता ने उनका विवाह करने का प्रयत्न किया, किन्तु उन्होंने विवाह नहीं किया।

दिसम्बर, 1881 में नरेन्द्रनाथ ने दक्षिणेश्वर में प्रवेश किया। रामकृष्ण परमहंस उनको देखते ही प्रसन्नता से भाव-विह्वल हो गए। नरेन्द्रनाथ ने उस समय उनको एक भजन सुनाया। इस भजन को सुनकर रामकृष्ण परमहंस समाधि में लीन हो गए। समाधि से जागृत होते ही आनन्द-अश्रु बहाते हुए उन्होंने कहा-

“इतने दिनों बाद आए? मैं तो प्रतिदिन तुम्हारी प्रतीक्षा में बैठा रहा। आज तुम्हारे जैसे सदृश्य त्यागी पुरुष से भेंट करते हुए मेरी आत्मा को आनन्द हो रहा है।” नरेन्द्रनाथ उन्हें आश्चर्य से देखते रहे। रामकृष्ण परमहंस इसके बाद हाथ जोड़कर रोते हुए कहने लगे- “तू कोई साधारण मनुष्य नहीं है। भगवान ने तुझे मानव जाति का कल्याण करने के लिए भेजा है। मुझे मालूम है तुम भगवान के वरद पुत्र हो। तुम्हारे हाथों विश्व का कल्याण होने वाला है। मुझे इसका ज्ञान है, तुम्हें नहीं ।”

नरेन्द्रनाथ ने रामकृष्ण परमहंस की बातों पर खूब सोच-विचार किया। तर्क के आधार पर चलने वाले नरेन्द्रनाथ को रामकृष्ण परमहंस को पहचानने में कुछ समय लगा, लेकिन एक दिन नरेन्द्रनाथ ने उनको अपना गुरु मान लिया।

15 अगस्त, 1886 को रामकृष्ण परमहंस की मृत्यु हो गई। नरेन्द्रनाथ ने विवेकानन्द के रूप में छह वर्ष तक अपने गुरु से अध्यात्म का ज्ञान प्राप्त किया था। अपने गुरु मृत्यु के बाद विवेकानन्द कोलकाता के उत्तर में बाराह नगर के आश्रम में रहने लगे। 25 वर्ष की आयु में विवेकानन्द परिव्राजक बन कर भारत की लम्बी यात्रा पर चल पड़े। उन्होंने अपने गुरु रामकृष्ण परमहंस का सन्देश दूर-दूर तक पहुँचाने के लिए देश की चारों दिशाओं का भ्रमण किया।

विवेकानन्द से जो भी मिलता, वह उनकी अलौकिक आभा व शक्ति से प्रभावित हुए बिना नहीं रहता। परिव्राजक के रूप में भ्रमण करते हुए उन्होंने देखा कि भारत में नवजागरण लाने की आवश्यकता है। इसके लिए भारतवासियों में विभिन्न प्रकार से नवचेतना लाना आवश्यक है।

स्वामी विवेकानन्द भारत के दार्शनिक दूत बनकर 31 मई, 1893 को भारत से शिकागो (अमेरिका) के लिए रवाना हुए। 11 सितम्बर, 1893 का दिन भारत के लिए एक स्वर्णिम दिन था। इस दिन स्वामी विवेकानन्द के द्वारा प्रतिपादित भारत के वेदान्त धर्म के दर्शन ने विश्व धर्म संसद में विजयी होकर विश्व को आश्चर्य में डाल दिया। स्वामी विवेकानन्द उस समय 30 वर्ष के थे तथा उस संसद के विभिन्न देशों के प्रतिनिधियों में आयु में सबसे छोटे थे।

धर्म संसद में भाषण के बाद स्वामी विवेकानन्द ने अमेरिका के भिन्न-भिन्न शहरों में व्याख्यान दिए। उनके भाषणों की अमेरिका में धूम मच गई। वे दो वर्ष तक अमेरिका में रहे। इसके बाद स्वामी विवेकानन्द ने 1895 में इंग्लैण्ड का भ्रमण किया। वे वर्ष 1896 व 1897 में भी इंग्लैण्ड गए।

वे 1897 में भारत लौटकर आए। स्वामी विवेकानन्द ने चेन्नई में अपने भाषण में भारत के लोगों को सन्देश दिया-

धर्मरहित शिक्षा से हमारे युवकों के चरित्र नहीं बनते। जो शिक्षा दुश्चरित्र बनाने में सहायक होती है, वह त्याज्य है। युवकों को पुस्तकीय ज्ञान की अपेक्षा चरित्र-निर्माण पर बल देना चाहिए।”

20 फरवरी, 1897 को स्वामी विवेकानन्द कोलकाता गए। वहाँ उनका उल्लासमय वातावरण में भव्य स्वागत हुआ। वहाँ स्वामी विवेकानन्द ने कहा- “भारत का जीवन उसकी आध्यात्मिकता में निहित है, शेष सभी प्रश्न इस एक प्रश्न के साथ जुड़े हुए हैं। भारत की मुक्ति सेवा और त्याग पर अवलम्बित है।”

इस प्रकार अपने भाषणों से उन्होंने भारत की जनता में नई चेतना का सृजन किया। कोलकाता के चालम बाजार में स्वामी विवेकानन्द ने एक मकान में अपना निवास स्थान बनाया। वे लोगों को देश-कार्य में योगदान देने के लिए निरन्तर उत्साहित करते रहे।

उनका कहना था-

दुनिया में रहने वाले मनुष्यों के जो अनेक कर्त्तव्य हैं, उनमें देश-सेवा का कर्त्तव्य सबसे ऊँचा है।”

मानव सेवा के लिए स्वामी विवेकानन्द ने रामकृष्ण मिशन स्थापित किया था। यह संस्था उस त्याग, तपस्या और सेवा की प्रतीक है, जिसके लिए उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन अर्पित कर दिया था। इस संस्था का मुख्य उद्देश्य दरिद्रनारायण की सेवा करना है। वे कहा करते थे-

दरिद्रनारायण की उपेक्षा करना राष्ट्रीय पाप है। हमें ईश्वर के बदले दरिद्रनारायण की पूजा करनी चाहिए। ईश्वर तो इन्हीं पीड़ितजनों में निवास करता है।”

अथक परिश्रम के कारण स्वामी विवेकानन्द का स्वास्थ्य खराब हो गया। उन्होंने कुछ दिन अल्मोड़ा (उत्तराखंड) में स्वास्थ्य लाभ किया। 1898 में वहाँ कुछ दिन रहने के बाद वापिस कोलकाता आ गए। उन्होंने गंगा नदी के पश्चिमी किनारे पर बैलूर मठ की स्थापना की। इसी बीच कोलकाता में प्लेग फैला। उन्होंने बीमारों के लिए निःशुल्क अस्पताल खोले।

20 जून, 1899 को स्वामी विवेकानन्द धर्म-प्रसार के लिए फिर से विदेश यात्रा में चले गए। 1901 में वे ढाका गए। इसके बाद इनका स्वास्थ्य इतना खराब हो गया कि उनके लिए इधर-उधर जाना-आना अत्यन्त कठिन हो गया। 4 जुलाई, 1902 को कोलकाता में उनका स्वास्थ्य अचानक खराब हो गया। उन्होंने इस दिन बैलूर मठ में अपने प्राण त्याग दिए।

स्वामी विवेकानन्द का योगदान

भारत के नव-जागरण में स्वामी विवेकानन्द का महत्त्वपूर्ण योगदान है। उन्होंने भारतीयों के जीवन में अद्वैत वेदांत का आदर्श स्थापित करने का प्रयत्न किया। रामकृष्ण मिशन की स्थापना करके स्वामी विवेकानन्द ने अपने गुरु के उपदेशों का प्रचार किया। उनका जीवन तथा आदर्श स्वदेशी आंदोलन का प्रेरणा स्रोत था। स्वामी विवेकानन्द वर्तमान भारत के अग्रदूत थे। उन्होंने भारत की सुप्त आध्यात्मिक महिमा का विदेशों में प्रचार करके उसके दर्शन और अध्यात्म का विदेशों में डंका बजाया।

भारत के युवाओं को देश प्रेम के लिए प्रेरित करने के लिए ही स्वामी विवेकानन्द के जन्म दिन को “राष्ट्रीय युवा दिवस” के रूप में मनाया जाता है।

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