Ramdhari Singh Dinkar “रामधारी सिंह दिनकर” Hindi Essay, Paragraph in 800 Words for Class 10, 12 and competitive Examination.
रामधारी सिंह दिनकर
Ramdhari Singh Dinkar
कोई भी साहित्य अपने युग का प्रतिनिधि होता है और साहित्यकार अपने भावों की अभिव्यक्ति उसी के अनुकूल अपनी कृति में करता है। यही कारण है कि प्रत्येक युग के साहित्य तथा उसके रूप-चित्रण में कुछ-न-कुछ अन्तर अवश्य रहता है। बदलती हुई मानवीय विचारधारा के साथ उसके कलेवर में भी परिवर्तन हो जाता है। जब यह बदलती प्रवृत्ति किन्ही सीमित व्यक्तियों तक ही उफन कर रह जाती है। तब इसे ‘वाद’ की संज्ञा प्रदान की जाती है। हिन्दी-साहित्य का आधुनिक युग इस दृष्टि से अनेक वादों का जैसे घटाटोप है, कभी छायावाद स्थूल के प्रति सूक्ष्म का संघर्ष लेकर आया तो कभी पुनः इस आन्तरिक सूक्ष्म वृत्ति के विरुद्ध भौतिक प्रगतिवाद ने शाब्दिक नारे लगाए और समाज के अनियंत्रित स्वरूप को तोड़ देने का भागीरथ प्रयत्न किया। ‘दिनकर’ इसी प्रगतिवाद के प्रतिनिधि कवि रहे हैं। यों उनके काव्य में सरलता और मधुरता का अनूठा काल्पनिक योग है। परन्तु कभी की ओजमयी हुंकार सदैव समाज के उत्पीड़न के विरुद्ध स्वर साधना में ही अधिक निमग्न रही है और इस दृष्टि से हम उन्हें युग पुरुष-कवि कहें तो उचित होगा। उनकी कविता में ओज और यथार्थ की अभिव्यंजना अनूठी है। उसमें ‘बागी’ प्रवृत्ति भी क्षमता है। के दर्शन होते हैं जहाँ सूखी धमनियों में रक्त प्रवाह के अमर स्रोत को जगाने की
चूंकि हिन्दी प्रगतिवाद साम्यवादी विचारधारा से अधिक प्रभावित है, अतः वर्गहीन समाज की स्थापना उनका मूलमंत्र है। इसके लिए वहाँ क्रान्ति का स्वर ही प्रधान है। वहाँ निरर्थक कल्पना एवं आदर्शवाद का कोई महत्त्व नहीं, जीवन का यथार्थ ही सब कुछ है। भौतिक जीवन में वह मानव-मात्र के समान स्वयं का पोषक है तभी तो दिनकर जी की क्रान्ति का स्वर लगाते हुए कहते हैं-
देख कलेजा फाड़, कृषक दे रहे हृदय शोणित की धारें।
बनती ही उन पर जाती हैं, वैभव की ऊंची दीवारें ॥
धन-पिशाच कृषक-मेघ में नाच रही पशु मतवाली।
अतिथि मग्न पीते जाते हैं दोनों के शोणित के प्यासी ॥
उठ भूषण के भाव रंगीनी! लेनिन के दिन की चिनगारी।
युग-मर्दित यौवन ज्वाला! जाग-जाग, री क्रान्ति कुमारी ॥
इसी साम्यवादी स्वर की प्रधानता के कारण वह व्यक्ति के दुःख-दर्द और प्रेम वेदना को सुनने के स्थान पर समष्टि की क्षुधा-पिपासा और आर्त्तनाद को सुनने का अभिलाषी है। यही कारण है कि ‘दिनकर’ जी छायावादी प्रकृति की मृदुल क्रोड में जीवन के मूल को नहीं भूलाना चाहते। उनकी कविता सुनकर उद्घोषित करती है-
आज न उड़कर नील कुंज में स्वप्न खोज न जाऊँगी।
आज चमेली में न चन्द्र-किरणों से चित्र बनाऊँगी।।
और पुनः उन्होंने देश के नौजवानों को भी संघर्ष ओर प्रेरित किया है-
खड़ा हो, जवानी का झण्डा उड़ाओ मेरे देश के नौजवान। ‘दिनकर’ जी दलित और समाज द्वारा पतित दुःखी वर्ग की अवस्था को देखकर करुणा से भर जाते है और उनका भावुक अन्तःकरण ‘हुंकार’ कर उठता है :-
श्वानों को मिलता दूध कहीं, भूखे बालक अकुलाते हैं।
मां की हड्डी से चिपक ठिठुर, जोड़ो की रात बिताते हैं ॥
युवती के लज्जा वसन बेच, जब ब्याज चुकाये जाते हैं।
मालिक तब तेल-फुतेलों पर, पानी-सा द्रव्य बहाते हैं।
पापी महलों का अहंकार, देता मुझको तब आमंत्रण ||
और क्षुधा से जर्जरित मजदूर-वर्ग मिल-मालिकों को चुनौती देता है अरे मिल मालिकों! अब इन्सान जागा है :-
हमारी हड्डियों में खून का तूफान जागा है।
तुम्हारी पाप की हस्ती मिटाने को।
हजारों वर्ष का सोता हुआ इन्सान जागा है।
अहिंसावाद में उनका विश्वास नहीं, तभी ‘कुरुक्षेत्र’ में भीष्म पितामह सोचते हैं-‘हिंसा का आघात तपस्या ने कब कहाँ सहा है, देवों का बस सदा दानवों से हारता रहा है।’ और पुनः-
राज्य-द्रोह की ध्वजा उठाकर कहीं विचारा होता,
न्याय-पक्ष को लेकर दुर्योधन को ललकारा होता।
प्रगतिवादी रूस के अतिरिक्त ‘दिनकर’ जी भारतीय अतीत संस्कृति के भी अमर गायक है। ‘हिमालय’ नामक उनकी कविता कल्पना, भाव और देश-प्रेम की अमरता से पूर्ण है। वह उसे, मेरी जननी के हिमकिरीट, मेरे भारत के ‘दिव्य-लाल’ कहकर सम्बोधित करते हैं और फिर भी अतीत के सम्बन्ध में पूछने लगते हैं-
कितनी द्रुपदा के बाल खुले, कितनी कलियों का अन्त हुआ,
कह हृदय खोल चितौड़, कहाँ कितने दिन ज्वाल वसंत हुआ?
वैशाली के मग्नावशेष से, पूछ लिच्छवी शान कहाँ?
वन-वन स्वतंत्रता दीप लिए, फिरने वाला बलवान कहा?
‘सामधेनी’ में कवि जगत् के प्रति कटु सत्य अंकित हुआ है तथा ‘रसवंती’ उनकी सरस कविताओं का संकलन है। इसके सम्बन्ध में स्वयं कवि ने लिखा है-
ये अबोध कल्पना के शिशु क्या रीति जगत् की जान।
कुछ फूटे रोमांच पुलक से, कुछ अस्फुट विस्मय से ॥
नारी के प्रति उनके भाव अतीव पावन है-
तुम्हारे अधरों का रस प्राण, वासना तट पर पिया आधीर ।
अरी ओ यां हमने है पिया, तुम्हारे स्तन का उज्जवल क्षीर ॥
‘कुरुक्षेत्र’ दिनकर जी की सर्वोत्कृष्ट महत्त्वपूर्ण कृति है, जिसे डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने हिन्दी-भाषा का गौरव स्वीकार किया। इनके अतिरिक्त आपकी अन्य कृतियों में ‘रेणुका’ ‘हुंकार’ ‘द्वन्द्वगति’, ‘रश्मिरथी’ तथा ‘मिट्टी की ओर’ आदि हैं। ‘संस्कृत के चार अध्याय’ आपके गहन चिन्तन का साकार ग्रन्थ है। ‘उर्वशी’ दिनकर जी की अन्तिम और श्रेष्ठ काव्य कृति है।
निष्कर्ष यही है कि दिनकर जी ने हिन्दी-काव्य को एक नवीन दृष्टि प्रदान की है। उनकी कविताओं में भाषागत ओज और प्रवाह पर्याप्त मात्रा में मिलता है। जहाँ उनकी प्राचीन त्याग की आस्था है वहीं यौवन सुलभ उमंग का भी पूर्ण आकर्षण है। निस्सन्देह उनका राष्ट्र-प्रेम अनूठा है, हिन्दी काव्य-जगत् को उनकी बहुत बड़ी देन है।