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Paryavaran Sanrakshan “पर्यावरण संरक्षण” Complete Hindi Essay, Paragraph, Speech for Class 9, 10, 12 Students.

पर्यावरण संरक्षण

Paryavaran Sanrakshan

पर्यावरण शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है- परि + आवरण। परि का अर्थ है ‘चारों ओर’ तथा आवरण का अर्थ है ‘ढंका हुआ’। पूरे शब्द का तात्पर्य हुआ चारों ओर से ढंका हुआ। हमारी पृथ्वी चारों ओर से जिन तत्वों

और वस्तुओं से ढंकी या आच्छादित है, वही हमारा पर्यावरण है। हमारे पर्यावरण में पेड-पौधे, जीव-जन्त, नदी-तालाब समुद्र-जंगल, हवा-पानी, सूर्य का प्रकाश आदि सभी कुछ सम्मिलित हैं।

पृथ्वी ग्रह हमारा वास स्थान है और इस पर हम जीवित इसी कारण है कि प्रकृति ने पर्यावरण में संतुलन बना रखा है। जीवन की रक्षा और विकास के लिये हवा, पानी, भोजन, प्रकाश, पेड-पौधों और अन्य जीव प्रजातियों की जितनी और जिस मात्रा में आवश्यकता है, प्रकृति उन्हें उस मात्रा में बनाये रखती है।

यह संतुलन अब बिगड़ रहा है। इसे हम मनुष्यों ने ही बिगाड़ा है। मनुष्य प्रकृति के अनुरूप जीवन-यापन न करने वाला एकमात्र घटक है, शेष सभी प्राणी प्रकृति के अनुरूप जीवन-यापन करते हैं। मनुष्य ने यही नहीं किया, बल्कि प्रकृति को अपने अनुरूप बनाने के प्रयास भी किये।

मनुष्य में स्वामी बनने की जबरदस्त भावना है, इसी भावना ने पर्यावरण का विनाश कर समूचे पृथ्वी ग्रह को ही विनाश के मुँह में पहुँचा दिया है। उसने जंगलों को देखा और सोचा कि यह मेरे लिये है, नदियाँ मेरे लिये हैं, जीव-जंतु मेरे लिये हैं।

पेड़ काटे और उनका फर्नीचर, दरवाजे, खिड़कियाँ बना लीं। नदियों पर बाँध बाँधे और जल का अंधाधुंध दोहन किया। जीव-जन्तु को या तो अपना गुलाम बना लिया या उन्हें भोजन की तरह प्रयोग करने लगा।

आरम्भ में जब मनुष्यों की संख्या कम और प्रकृति की सम्पदा अपार थी, तो इस दोहन का प्रभाव दिखाई नहीं दिया, किन्तु धीरे-धीरे ऐसी स्थिति आई कि मनुष्यों की संख्या निरंतर बढ़ती चली गई और प्रकृति की सम्पदा उसी अनुपात में घटती गई।

इससे असंतुलन पैदा हो गया। मनुष्य को जीवित रहने के लिये सबसे पहले प्राणवायु चाहिये। यह प्राणवायु हमें पेड़-पौधों से मिलती है, परंतु हमने ही अपने लालचीपन के कारण जंगलों को काटकर नष्ट कर दिया। अब हालात यह है कि प्राणवायु देने वाले घट रहे हैं, जबकि प्राणवायु लेने वाले निरंतर बढ़ रहे हैं। पर्यावरणवादियों का अनुमान है कि दुनिया में अब पच्चीस वर्षों के लिये ही प्राणवायु बची है।

यही दशा पानी की है। पानी भी इतना घट चुका है कि भूमिगत जल स्रोत समाप्त हो रहे हैं। पीने के पानी का संकट सारी दुनिया के सामने आ गया है। भोजन के लिये भी मनुष्य को बड़े संकट का सामना करना पड़ेगा। शहरीकरण बढ़ने के कारण खेती की जमीन लगातार कम हो रही है। शहरीकरण ने कचरे की समस्या, शोर, प्रदूषण और अस्वास्थ्यकर परिस्थितियाँ पैदा कर दी हैं।

ऐसी सभी गतिविधियों ने मिलकर हमारे पर्यावरण को प्रदूषित कर दिया है। पर्यावरण इतना बिगड़ चुका है कि अब पृथ्वी ग्रह का बचा रहना असंभव होता जा रहा है। हमारा जीवन ही खतरे में पड़ गया है। जरूरत है समय रहते हमारे चेतने की। चेतना से तात्पर्य है कि हम पर्यावरण के संकटों को समझें और उसे सुधारने में अपना योगदान दें। पर्यावरण रक्षा के उपाय बहुत सरल हैं। हमें अपनी जीवन शैली में थोड़ा सा बदलाव लाना होगा, बस।

हम प्रतिवर्ष दस-पाँच पेड़ लगाएँ; पानी का दुरुपयोग न करें; किसी प्राणी की हत्या न करें। मच्छर, चींटी, साँप, बिच्छुओं का जीवित रहना भी हमारे जीवित रहने के लिये जरूरी है।

प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग संतुलित रूप से करें। जानवरों को मारकर उनकी खाल, बाल, सींग आदि से बनी वस्तुएँ उपयोग न करें। सभी जीव और वनस्पति प्रजातियों का जीवित रहना पर्यावरण के लिये अनिवार्य है। इसे ही जैवविविधता का संरक्षण कहा जाता है।

हमें पर्यावरण-संरक्षण की भावना से ही अपनी जीवन-शैली बनाना होगी, तभी पर्यावरण की रक्षा हो सकेगी।

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