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Hindi Moral Story, Essay “बाह्य आवरण और वास्तविकता” “Bahri Aavaran aur Vastvikta” for students of Class 8, 9, 10, 12.

बाह्य आवरण और वास्तविकता

Bahri Aavaran aur Vastvikta 

राजकुमारी मल्लिनाथ जैनों की उन्नीसवीं तीर्थंकर मानी जाती है। सुंदर होने के साथ वह विदुषी भी थी। उसके सौंदर्य पर मुग्ध हो उससे विवाह के लिए राजकुमारों के प्रस्ताव आने लगे, किन्तु उसके पिता मिथिलानरेश कुंभा ने उन प्रस्तावों को अस्वीकृत कर दिया। इससे वे राजकुमार नाराज हो गए और उन्होंने मिथिला पर आक्रमण कर दिया। अकेला राजा उन सबका मुकाबला नहीं कर सकता था, फलस्वरूप उसकी पराजय होने लगी।

अपने पिता की पराजय होते देख मल्लिनाथ ने सभी राजाओं को राजमहल के एक कमरे में बुलवाया। उन्होंने जब कमरे में प्रवेश किया, तो वे वहाँ खड़ी मल्लिनाथ का अनुपम सौंदर्य देख स्तिमित रह गए। लेकिन उन्हें यह देख और आश्चर्य हुआ कि हूबहू वैसी ही एक आकृति द्वार के अंदर आ रही है। यह आकृति और कोई नहीं मल्लिनाथ थी, जबकि कमरे में उसकी स्वर्ण प्रतिमा रखी हुई थी। ज्योंही मल्लिनाथ अंदर आई, उसने प्रतिमा के सिर का ढक्कन खोल दिया, किन्तु इससे कमरे में इतनी दुर्गंध भर गई कि सबका वहाँ बैठना भी मुश्किल हो गया। सबने नाक-भौं सिकोड़ी और वे वहाँ से जाने के लिए उद्यत हुए। तब मल्लिनाथ बोली, “यह दुर्गंध इस स्वर्ण-प्रतिमा के मुख में डाले गए एक ग्रास की सड़ाँध थी।

जब इसकी दुर्गंध असह्य हो सकती है, तब मनुष्य देह में संचित नाना द्रव्यों की दुर्गंध भी असहनीय हो सकती है। आप लोग मेरे बाह्य सौंदर्य पर मुग्ध हैं, मगर इसके पीछे भी सड़ा-गला तत्त्व विद्यमान है। सांसारिक सुख-भोग क्षणिक रहता है और वह मनुष्य को पाप के गर्त की ओर ले जाता ।

इसीलिए मैंने निश्चय किया है कि राजसी सुख-वैभव का त्यागकर साधुओं जैसा निर्मल जीवन व्यतीत करूँ। आपकी भलाई भी इसी में है कि सत्कर्म करते हुए आप प्रजा की सुख-सुविधाओं का ध्यान रखें।” इन शब्दों का नरेशों पर इतना असर पड़ा कि उन्होंने अपना राजपाट उत्तराधिकारियों को सौंप दिया और वे भी जैन भिक्षुक बन गए।

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