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Hindi Essay/Paragraph/Speech on “Van Sanrakshan ki Avyashakta”, “वन-संरक्षण की आवश्यकता” Complete Essay, Speech for Class 10, Class 12 and Graduation and other classes.

वन-संरक्षण की आवश्यकता

Van Sanrakshan ki Avyashakta

प्रस्तावना : अनादि मानव-सभ्यता संस्कृति का उद्भव और विकास वन्य प्रदेशों में ही हुआ था, इस तथ्य से सभी जन भली-भाँति परिचित हैं। वेदों जैसा प्राचीनतम् उपलब्ध साहित्य सघन वनों में स्थापित आश्रमों में ही रचा गया, यह भी एक सर्वज्ञात तथ्य है। वन प्रकृति का सजीव साकार स्वरूप प्रकट करते हैं, मानव-जीवन का भी आदि स्रोत एवं मूल हैं; उसके पालन-पोषण के उपयोगी तत्त्वों के भी स्रोत एवं कारण हैं, ऐसा गर्व एवं गौरव के साथ कहा सुना जाता है। साहित्यिक शब्दावली में वन धरती के हृदय पर उगी रोमावली है, उसकी सघनता केश-राशि के प्रतीक एवं परिचायक हैं। मस्तक की शोभा और सदा सुहागिन प्रकृति के सीमान्त के सूचक हैं आदि-इत्यादि अनेक कुछ कह कर उनका माहात्म्य बखाना जाता या जा सकता है। अत: वन उगाने और उगे वनों का । हर प्रकार से संरक्षण करने की बहुत बड़ी आवश्यकता है।

वनों का महत्त्व : ऊपर जो बातें लिखी गई हैं, सामान्यतया वे भी वनों का महत्त्व बताने वाली ही हैं; किन्तु अनेक बातें ऐसी हैं कि जो इनसे कहीं बढ़-चढ़ कर उनके महत्त्व का प्रतिपादन करने वाली हैं। कहा जा सकता है कि प्रकृति और मानव-सृष्टि के सन्तुलन का मल आधार वन ही हैं। वे तरह-तरह के फल-फूलों, वनस्पतियों, वनौषधियों और जड़ी-बूटियों की प्राप्ति का स्थल तो हैं ही, धरती पर जो प्राण-वायु का संचार हो रहा है उसके समग्र स्रोत भी वन ही हैं। वे धरती और पहाड़ों का क्षरण रोकते हैं। नदियों को बहाव और गतिशीलता प्रदान करते हैं। बादलों और वर्षा का कारण हैं। तरह-तरह के पशु-पक्षियों की उत्पत्ति, निवास और आश्रय स्थल हैं। छाया के मूल स्रोत हैं। इमारती लकड़ी के आगार हैं। मनुष्य की ईंधन की आवश्यकता की भी बहुत कुछ पूर्ति करने वाले हैं। अनेक दुर्लभ मानव और पशु-पक्षियों आदि की जातियाँ-प्रजातियाँ आज भी वनों की सघनता। में अपने बचे-खुचे रूप में पाई जाती हैं। इस प्रकार वनों के और भी अनेक जीवन्त महत्त्व एवं उपयोग गिनाए जा सकते हैं।

सार्वकालिक उपयोगिता : इस प्रकार स्पष्ट है कि आरम्भ से लेकर आज तक तो वनों की आवश्यकता-उपयोगिता बनी ही रही है, आगे भी बनी रहेगी; किन्तु तथ्य यह है कि अपने-आप शिक्षित, ज्ञानी-विज्ञानी मानव होते हुए भी आज हम लगातार वनों को काट कर प्रकृति का, धरती का सारी मानवता का सन्तुलन बिगाड़ कर सभी कुछ। तहस-नहस करके रख देना चाहते हैं। उससे सुलभ होने वाले सार्वकालिक एवं सार्वजनीन लाभों को कुछ ही दिनों में खाकर उसे समाप्त और धरती की प्रकृति एवं जीवन के स्वरूप को विकृत कर देना चाहते हैं। अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति में दत्तचित्त हो, हम समझ ही नहीं पाते कि वनों का निरन्तर कटाव जारी रख, उन्हें उचित संरक्षण एवं संवर्द्धन न देकर प्रकृति और मानवता का तथा अपनी ही आने वाली पीढ़ियों का कितना बड़ा अहित कर रहे हैं। अपनी धरती माता को नंगा और बेडौल; बल्कि बाँझ बना कर रख देना चाहते हैं।

जीवन को अमृत पिलाने में समर्थ धरती माँ के स्तनों को रूखा-सूखा और बेजान बना देना चाहते हैं। वन बने रहें, तभी धरती पर उचित मात्रा में वर्षा होगी, नदियों की धारा प्रवाहित रहेगी, पहाड़ों और धरती का क्षरण नहीं होगा। सूखा या बाढ़ और भूकम्प जैसी प्राकृतिक आपदाओं से रक्षा होती रहेगी। आवश्यक प्राण-वायु और प्राण-रक्षक औषधियाँ-वनस्पतियाँ आदि निरन्तर प्राप्त होती रहेंगी। अनेक खनिज प्राप्त हो रहे हैं, वे भी होते रहेंगे; अन्यथा उनके स्रोत भी बन्द हो जाएँगे। जैसे बच्चे की बेशर्मी एवं कुकृत्यों से चिढ़कर और क्रोधित होकर कई बार माँ उसे घर से बाहर निकाल दिया करती है; यदि हमने वनों का विनाश न रोका, तो धरती और प्रकृति माँ इस जीवन-संसार से सारी मानवता को कान पकड़ कर बाहर निकाल देगी-अर्थात् मानवता का अन्त हो जाएगा ।

संरक्षण आवश्यक : क्योंकि वनों के अस्तित्व का सार्वकालिक महत्त्व एवं आवश्यकता है, इसलिए हर प्रकार से उनका संरक्षण होते रहना भी परमावश्यक है। केवल संरक्षण ही नहीं; क्योंकि कम-अधिक हम उन्हें काट कर उनका उपयोग करने को भी बाध्य हैं। इस कारण उन का नव-रोपण और परिवर्द्धन करते रहना भी बहुत जरूरी है। प्रकृति ने जहाँ जैसी मिट्टी है, जहाँ की जैसी आवश्यकता है, वहाँ वैसे ही वन लगा रखे हैं। हमें भी इन बातों का ध्यान रख कर ही नव वक्षारोपण एवं सम्वर्द्धन करते रहना है ताकि हमारी धरती, हमारे जीवन का सन्तुलन एवं शोभा बनी रहे। हमारी वे सारी आवश्यकताएँ युग-युगान्तरों तक पूरी होती रहें जिनका आधार वन हैं।

उपसंहार : इस सारे विवेचन-विश्लेषण से यह स्पष्ट हो जाता है कि वन संरक्षण कितना आवश्यक, कितना महत्त्वपूर्ण और मानव-सृष्टि के हक में कितना उपयोगी है या हो सकता है। लोभ-लालच में पड़कर अभी तक वनों को काट कर जितनी हानि पहुँचा चुके हैं। जितनी जल्दी उसकी क्षतिपूर्ति कर दी जाए, उतना ही मानवता के हित में रहेगा; ऐसा हमारा दृढ़ विश्वास है ।

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