Hindi Essay, Paragraph, Speech on “Sanyukt Parivar ki Aavyashakta” , “संयुक्त परिवार की आवश्यकता” Complete Essay for Class 10, Class 12 and Graduation Classes.
संयुक्त परिवार की आवश्यकता
Sanyukt Parivar ki Aavyashakta
अर्थ–संयुक्त परिवार का अर्थ है-अपने कुनबे के साथ इकट्ठे जीवनयापन करना। इसका विलोम है-एकल परिवार, अर्थात् नि-पत्नी का अपने अविवाहित बच्चों के साथ जीवनयापन करना। हमारे अतीत ने हमें समह में रहना सिखाया। हम कबीलों में, नबों में और संयुक्त परिवारों में जिए। आज संयुक्त परिवार भी टूट गए हैं। हर आदमी अकेला हो गया है। यह अकेलापन अब इन खड़े कर रहा है कि हम एकल परिवारों में जिएँ या फिर से संयुक्त परिवारों में लौट जाएँ।
एकल परिवार के दुख–एकल परिवार की कल्पना मनोरम प्रतीत होती है। वहाँ अवरोध, निर्देश और झंझट कम-से-कम हैं। पति-पत्नी का नवयुगल अपनी सपनों की दुनिया बसाने के लिए स्वतंत्र होता है। न तो वहाँ सास-ससर का झंझट होता है, न भाई-भतीजों की भीड़। विवाह के पहले-पहले दिनों में नवयुगल सपनों-का-सा सुख अनुभव करता है। परंतु जैसे ही रोज-रोज चल्हे-चौके की समस्या सताने लगती है, घर-गृहस्थी के सारे भार सिर पर सवार हो जाते हैं। सबसे बड़ी समस्या सुरक्षा की आती है। तब महसूस होता है कि काश! तुम्हारे इर्द-गिर्द एक सुरक्षित संसार होता। सुरक्षित के साथ-साथ अपनों का संसार होता। मनुष्य प्रेम की स्वतंत्रता भी चाहता है किंतु आत्म-विस्तार और सुरक्षा भी चाहता है। प्रेम की स्वतंत्रता एकल परिवार में अधिक है तो आत्म-विस्तार तथा सुरक्षा संयुक्त परिवारों में।
असुरक्षा–आज महानगरों में अपरिचित लोग रहते हैं। महानगरों का परिचय रेत के महल की भाँति होता है। लोग भीड़ बनाकर तमाशबीन की भाँति खड़े तो हो जाते हैं किंतु वे साथ नहीं होते। शादी-ब्याह के मौके पर वे फूलों का गुच्छा और पैसों से भरा लिफाफा तो ला सकते हैं किंतु समय नहीं दे सकते। दुख के अवसर पर भी उनकी सांत्वना बहुत उथली, हल्की और व्यर्थ होती है। तब अहसास होता है कि हमें समझने-जानने वाले हमारे अपने लोगों की क्या कीमत है। तब हम अपने संगी-साथियों में आत्मीयता ढूँढ़ते हैं, किंतु जो हृदय अपने माता-पिता और भाई-बहनों का अपना न हो सका, वह मित्रों-अपरिचितों का अपना कैसे हो? अतः हम धनुष से छूटे हुए तीर की भाँति एकल परिवार की पीड़ा भोगने के लिए अभिशप्त हो जाते हैं। इसी पीड़ा को भोगते हुए कविवर राधेश्याम शुक्ल ने लिखा है-
लौटा ले मेरी सदी, अपने सब त्योहार।
पर मुझसे मत छीन तू, रिश्ते खुशियाँ, प्यार।।
बच्चों का अकेलापन–एकल परिवारों के कारण बच्चों को न माता-पिता का दुलार मिलता है, न दादा-दादी का लाड़ और न चाचा-बुआ का स्नेह। बड़े-बुजुर्ग अपने ही घर में बेगाने, फालतू और लाचार हो जाते हैं। न बच्चे खुश, न बुजुर्ग खुश। खुश होते हैं केवल युवा दंपती जिन्हें हर प्रकार की छूट मिल जाती है। परंतु मन-ही-मन वे भी अकेलापन और असुरक्षा अनुभव करने लगते हैं। बस 20-25 वर्षों का खेल होता है कि बाद में वे बुजुर्ग होकर अपने बच्चों के लिए तरसते हैं।
समाधान–आज एकल और संयुक्त परिवार की व्यवस्था में संतुलन बैठाने की आवश्यकता है। अलग-अलग रहने के दुख भोगने से अच्छा यही है कि आपसी समझदारी विकसित की जाए। एक-दूसरे की स्वतंत्रता में खलल डाले बिना इकट्ठे रहा जाए।