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Hindi Essay, Paragraph, Speech on “Sampradayikta”, “सांप्रदायिकता” Complete Hindi Essay for Class 10, Class 12 and Graduation Classes.

सांप्रदायिकता

Sampradayikta

भारत में  ‘ सांप्रदायिक एकता ’ का प्रश्न ज्वलन्त है, क्योंकि प्रति वर्ष सैकड़ों लोग सांप्रदायिक दंगों में मारे जाते हैं। संप्रदाय के नाम पर घृणा, ईष्र्या, द्वेष, क्रोध, दंगा, हत्या, तोड़-फोड़, क्रूरता, बर्बरता जैसी अमानवीय प्रवृत्तियाँ पनपती हैं, और इनके कारण मानवीय संवेदना ही समाप्त हो जाती है। मानव, मानव न रहकर पशु हो जाता है, हिंसक हो जाता है। ऐसी अवस्था में मानवीय मूल्यों पर विश्वास करने वालों के मन पर एक अजीव प्रभाव पड़ता है, उनका अंतःकरण बेचैन हा उठता है। शांति एवं सद्भाव के स्थान पर जब रक्तपात और हत्या का दृश्य खड़ा होता है, तो मानवता सिसक उठती है, हृदय हाहाकार करने लगता है। कैसे सांप्रदायिक सद्भाव बढे़ घ् मानव-मानव के दर्द को कैसे समझे घ्े ये प्रश्न मन को झकझोरने लगते हैं इन मानवीय प्रश्नों का सामाधान कारक और सकारात्मक उत्तर तभी मिल ससता है जब विभिन्न संप्रदायों के लोग समझें कि संप्रदाय क्या हैं घ्  धर्म क्या है और राष्ट्र क्या हैं घ्  इन्हें इनके अंतर के समझे बिना सांप्रदायिक एकता स्वप्न होगी इन्हें कभी साकार रूप नहीं ग्रहण कर सकेगी।

‘ संप्रदाय ’ एक विशेष प्रकार की पूजा पद्वति का नाम है। संप्रदाय, पंथ, उपपंथ, ईश्वरोपासना की दृष्टि से पद्वति-विशेष का परिचायक है। सामान्यतः किसी व्यक्ति के द्वारा चलाये गये मत या पंथ को संप्रदाय कहते हैं। इस्लाम, ईसाईयत, बौद्व, जैन, वेष्णव, शाक्त, लिंगायत, सिख आदि पंथ हैं, संप्रदाय हैं, जिन्हें किसी-न-किसी महापुरूष, पैगम्बर या संतक का मार्गदर्शन प्राप्त हुआ था। किन्हीं निश्चित प्रकार के सिद्धाँतों द्वारा संप्रदाय शब्द आजकल अपना मूल अर्थ खो चुका है। संप्रदाय जहाँ सम्मान और श्रद्धा का प्रतीक माना जाता था आज वहीं घृणा, लज्जा, का सूचक माना जाता है। हिन्दुस्तान में अनेक सम्प्रदायों का जन्म हमारे समाज में व्याप्त विचार स्वातंत्र्य, औदर्य के कारण हुआ। बहुदेववाद की अवधारणा ईश्वरोपासना के जगत् में भारतीय मनीषा के औदार्य का ही परिणाम है। विचार संकीर्णता ही संप्रदाय को अवमानना प्रदान कर रही है।

संप्रदाय और धर्म में मूलभूत अंतर है। संप्रदाय एक विशेष प्रकार की पूजा पद्धति, मत, मजहब का प्रतीक है। अपनी रूचि और प्रकृति के आधार पर व्यक्ति किसी संप्रदाय में सम्मिलित होकर अपना विकास कर सकता है, अपने आराध्यदेव को प्राप्त करने की चेष्टा कर सकता है। संप्रदाय मत, पंथ या मजहब को धर्म नहीं कहा जा सकता। धर्म तो समाज की धारणा करता है। ‘ धारणात धर्ममित्याहुः धर्मों धारयते प्रजाः’। धर्म तो समाज के नियमों को कहते हैं। वे नियम जिनसे समाज व्यक्त रूप से चलता है, धर्मराज्य  ;त्नसम व िस्ंूद्ध के परिचायक हैं। धर्म और संप्रदाय का यही मूलभूत अंतर है। संप्रदाय को धर्म की संज्ञा देना धर्म को न समझना है। संप्रदाय संकुचित और धर्म विशाल है। संप्रदाय एक विशेष मत का आग्राही है, धर्म सर्वसमन्वयकारी तथा सर्वग्राहक है, मानवमात्र के लिये जीवन की सम्यक् प्रकार से जीवन धारणा, समाज धारणा के लिये विधिसम्मत जीवन का दृष्टिकोण है।

सांप्रदायिक एकता के लिये आवश्यक है मनों की उदारता। मेरा ही रास्ता ठीक है, अन्यों का नहीं, यही सोच ही द्वेष, घृणा की परिचायक है। निम्न सुझाव सांप्रदायिक एकता के लिये उपादेय सिद्व हो सकते हैं-

  1. सर्वप्रथम यह समझना होगा कि ‘ हिंन्दू ’ संप्रदाय का प्रतीक नहीं राष्ट्रीयता का वाचक है। यह शब्द संकीर्णता का नहीं व्यापकता का द्योतक है। हिन्दू पूजा-पद्धति का नहीं जीवन पद्धति का परिचायक है। ‘ हिन्दू ’ जाति तथा संप्रदाय का अर्थ नहीं है, यह समस्त राष्ट्र को अपने में समाविष्ट किए हुए है। हिन्दू धर्म नाम जैसी कोई चीज नहीं है ‘ हिन्दू ’ शब्द को संकीर्णता प्रदान करने की कोशिश की राजनीति ने ।
  2. विभिन्न संप्रदायों के पूजा स्थलों के प्रति आदर रखना सांप्रदायिक एकता की दृष्टि से आवश्यक है।
  3. विभिन्न संप्रदायों के परस्पर विरोधी जीवन मूल्यों को समझना और आदर देना होगा। उनकी आलोचना करने से कोई लाभ नहीं होगा। अपने-अपने पंथ में व्याप्त दोषों को दूर करना संबधित संप्रदायों के मुखियाओं का काम है, अन्यों का नहीं।
  4. यह राष्ट्र हम सबका है। संप्रदाय, मत, पंथ, आदि से राष्ट्र बड़ा है। यही अवधारणा सांप्रदायिक एकता के लिये सहायक होगी।
  5. आर्थिक संपन्नता भी सांप्रदायिक संकीर्णता को समाप्त करती है।
  6. शिक्षा का सम्यक् प्रचार-प्रसार भी जीवन दृष्टि में व्यापकता उत्पन्न करता हे। अतएव उसकी ओर भी समाज का ध्यान जाना चाहिये।
  7. राजनेता सांप्रदायिकता की आग में अपने हाथ सेकना बंद करें।

निष्कर्षः सांप्रदायिक एकता का स्वप्न अभी तक साकार नहीं हो पाया है। विचारों में मतभेद और पूजा पद्धतियों में विविधता हमारे देश के लिये नयी बात नहीं है, किन्तु इसके कारण खून-खराबा जरूर नयी चीज है। इन सब चीजों से ऊपर है मानवता का उदात्त दृष्टिकोण मानवीय दृष्टिकोण के आधार पर संप्रदायिकता से ऊपर उठा जा सकता हैं। राष्ट्रीयता का प्रबल भाव भी इसमें सहायक होगा।

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