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Hindi Essay, Paragraph, Speech on “Rojgar Ka Adhikar”, “रोजगार का अधिकार” Complete Essay 1500 Words for Class 9, 10, 12 Students.

रोजगार का अधिकार

Rojgar Ka Adhikar

आज रोजगार पाने की समस्या विकट रूप धारण कर चुकी है। लगभग सारी दुनिया इस समस्या से ग्रस्त हैं तीसरी दुनियाँ के देशों का इसका अभिशाप भोगना पड़ रहा है। भारत में इस समस्या ने विकराल रूप धारण कर लिया है। जनसंख्या में निरंतर तीव्रगति से संवर्द्धन महिलाओं का रोजगार में तेजी से प्रवेश, प्रौद्योगिकी का तेजी से मनुष्य का स्थान लेना, अकाल मृत्यु से आश्चर्यजनक राहत, औसत आयु में विकास, बाल कामगरों की संख्या में भारी वृद्धि इत्यादि ऐसे कारण हैं, जिनसे रोजगार पाने में कठिनाई हो रही है। आरक्षण प्रतिशत में बढ़ोतरी और अर्थाभाव के कारण जनसंख्या संबर्द्धन के अनुपात में पदों की संख्या में संवर्द्धन नहीं होने से यह संकट त्रासदी का अनुभव कराने लगा है। यद्यपि प्रौद्योगिकी और कंप्यूटरी विकास से रोजगार के नए क्षेत्रों का उद्घाटन हुआ है। तथापित उसे रोजगार में लगे लोगों को हटाना भी पडा है। फलत: इस यक्ष प्रश्न ने मानवाधिकार का दहलीज पर दस्तक दे दी है और इसके लिए विश्वमत संग्रह करना शुरू कर दिया है।

अब यह सोचा जा रहा है कि जैसे स्वतन्त्रता मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार स्वीकार किया जा चुका है, ठीक वैसे ही रोजगार पाना भी मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है। उदात समाज की संस्थापना और उद्देश्यपरक जीवन के लिए यह और भी आवश्यक हो जाता है कि पूरा समाज तथा समाज का प्रत्येक व्यक्ति, चाहे वह अपंग क्यों न हो, रोजगार में लगा हो। रोजगार का अर्थ है कि सभी उन्नत और समृद्ध समाज की कल्पना को साकार करने में बराबरी की भूमिका का निर्वाह कर रहे हैं। साथ ही समतामूलक व्यवहार को जीवन में उतारने का प्रयास भी हो रहा है। बिना रोजगार के जीने का अर्थ क्या रह जाता है। खाली दिमाग और खाली हाथ सदा शैतान को जन्म देते हैं। अराजकता, हत्याओं का चक्रव्यूह, काला व्यापार, चारित्रिक पतन, अपराधिक वातावरण आदि का प्रमुख कारण है रोजगार का सबके लिए अभाव। जो जन्मा है, उसे रोजगार चाहिए, यह उसका जन्मसिद्ध अधिकार है, उसे इससे वंचित रखना जीवन की उपेक्षा, अनादर और उसके प्रति षड़यंत्र है।

जैसे-जैसे लोकतन्त्र का उदय होता चला गया और संविधान बनते चले गए, वैसे-वैसे मानव-जाति को स्वतन्त्रता और जीने के संदर्भो को अपेक्षाकृत पहले के अधिक स्पष्ट, सारपूर्ण, उत्तरदायित्वपूर्ण और ठोस आधार मिलते चले गए। राज्य में वह बराबरी का हिस्सेदार बन गया। राज्य की नीति, उसके व्यवहार और चरित्र का न केवल वह भाष्यकार सिद्ध होने लगा अपितु उस पर उसकी आँख भी रहने लगी।

सामूहिक उत्तरदायित्व की चेतना का तेजी से विकास हुआ और उसके सोच का धरातल एकदम बदल गया है। वह कुँए से निकलकर विशाल समुद्र में आ गया है। अब उसकी चेतना को विश्व के किसी भी कोने में घटने वाली घटना या दुर्घटना प्रभावित करने लगी है। यथार्थत: वह विश्व की एक आवश्यक इकाई बन गया है। उसका ऐसा सोच पाना कभी एक अधिकार की शक्ल भी ले सकता है। यह कदाचित् पहले किसी ने सोचा ही नहीं था।

सभी लोकतान्त्रिक संविधानों में रोजी-रोटी के लिए अवसर प्राप्त करने की पूरी स्वतन्त्रता दर्ज है। उसमें जाति, धर्म, लिंग, रंग, सम्प्रदाय आदि का कोई व्यवधान नहीं है। सरकारी और गैर-सरकारी क्षेत्र में अथवा देश व विदेश में जहाँ भी मन बने रोजगार प्राप्त करने की सुविधा दर्ज है।

संवैधानिक रोजगार की व्यवस्था के बाद भी रोजगार प्राप्त करना अत्यंत दुष्कर हो गया है। रोजगार मिलने के अवसर का अभाव स्पष्ट सामने आ चुका है। रोजगार नहीं मलने की स्थिति व्यक्ति के लिए आत्मघाती बनती जा रही है। रोजी-रोटी की तलाश में बूढी होती युवा पीढ़ी इतनी टूट जाती है कि वह या तो आत्महत्या कर लेती है अथवा काले धंधे या आपराधिक कार्यों में लग जाती है। विकास के स्थान पर विनाश की ओर बढ़ने वाली युवा पीढ़ी समूची मानवता के लिए भयावह खतरा है। रोजगार के अनुकूल (योग्यता और अभिरुचि के अनुसार) अवसरों का अभाव युद्ध से भी भयानक त्रासदी को जन्म दे सकता है, इसमें दो मन नहीं है।

यह अहम सवाल है कि रोजगार कौन मुहैया कराए यह दायित्व किसका है? क्या इसके लिए परिवार, समाज और राज्य उत्तरदायी है? जिजीविषा के लिए व्यक्ति को स्वयं संघर्ष करना पड़ता है। इसके लिए किसी का मुहँ ताकने की जरूरत नहीं है। रोजगार व्यक्ति के चारों ओर है। सवाल ईमानदारी, कर्मठता, जिम्मेदारी और आत्मविश्वास का है तथा पराश्रित होने की अपेक्षा स्वाश्रित होने की चट्टान की सुदृढ़ आस्था, संशय, अटूट धैर्य और कार्यक्षमता का है।

सरकार इसके लिए उत्तरदायी क्यों? क्यों समाज पर इसका दायित्व जाता है? स्वयं वह व्यक्ति इसके लिए कितना जिम्मेदार है, जिसे नौकरी के अवसर मुहैया करवा दे? या हर व्यक्ति को सरकार नौकरी देने के लिए जिम्मेदार मानी जाए लोकतान्त्रिक व्यवस्था में यह प्रश्न सरकार से सीधा जुड़ गया है।

यह प्रश्न उस समय और जटिल हो जाता है जब यह मानवाधिकार से जुड़ जाता है। दरअसल सरकार का दायित्व भी आदर्श समाज की संस्थापना है, जिसमें हर एक व्यक्ति उन्नति के समान अवसर पाते हुए अपनी स्वतन्त्रता का पूरा-पूरा लाभ उठा सके, बिना दूसरे की स्वतन्त्रता की चेतना को क्षति पहुँचाए। समाज पारस्परिक ऊर्जा और आनंद का ऐसा स्वैच्छिक संगठन है, जिसके अभाव में आज के मानव विकास की कल्पना भी नहीं की जा सकती राज्य गौण है और उसी प्रकार सरकार भी, जबकि समाज का क्षेत्र व्यापक है और गहन भी।

सुख और आनंद के स्त्रोत तलाश कर उनसे संबद्ध होना मानव की जन्मजात प्रवृत्ति है। यह मात्र आदर्श (यूटोपिया) नहीं है बल्कि यह यथार्थ के संघर्ष का आत्मिक और जातीय प्रतिफल है। “जो है” को “जो होने” में बदलना ही आदर्श है। रोजगार की सम्मानजनक तथा सामाजिक चेतना को गति देने वाली स्थिति होना लोकमर्यादा का लोकधर्म है। परन्तु रोजगार में सेवा की चेतना, लोककल्याण की उत्कट भावना और समर्पण के सुख से जुड़ने की पुरजोर मानसिकता को होना भी अपरिहार्य है। यथार्थत: रोजगार सेवा की स्वैच्छिक मांगलिक कामना है। समाज-यज्ञ में सहर्ष अपना संपूर्ण मन, बुद्धि और श्रम से समर्पण करना अधिकार के साथ का जन्मसिद्ध कर्तव्य भी है।

इस तरह यह लगता है कि जहाँ रोजगार दिलाना सरकार का भी दायित्व है वहाँ मानव होकर पुरूषार्थ सिद्ध करना उसका अपना कर्तव्य भी। रोजगार अर्थात् सेवा के अवसर व्यक्ति को स्वयं तलाशते हैं। जब इसका उत्तरदायित्व राज्य या सरकार पर छोड़कर यह सोचना शुरू होता है कि सरकार उसे सम्मानजनक रोजगार दिलाए, तब सोच के तेवरों में गाँठ पडने लगती है। सम्मानजनक रोजगार का अर्थ व्यक्तिपरक होने से सामाजीकृत नहीं हो पाता, जबकि लोक-कल्याण में निहित अर्थ सबकी प्रतिष्ठा से स्वत: ही संबद्ध है। फलतः रोजगार कदापि, असम्मानजनक नहीं हो पाता परन्तु आज शोषण-चक्र के कारण अंधकार-अज्ञान के कारण, अत्यंत गरीबी के कारण प्राकृतिक प्रकोप के कारण ऐसा अनुभव हो रहा है। जो भोगा जा रहा है, उस हकीकत से इन्कार कैसे? और इसके लिए घूम-फिरकर सबकी दृष्टि सरकार पर जा टिकती है। यहाँ सरकार निकम्मी हो जाती है और वह उसे आधारभूत मानवाधिकार के कठघरे में ला खड़ी करता है। ऐसा लगता है कि सरकार उनमें से नहीं है और न उसका हिस्सा है, जिनके कारण वह बनी है। रिश्तों का यह सरकारीकरण समानांतरित होकर एक-दूसरे को मुहँ चिढ़ाने लगता है। विरोध बढ़ता है, तनाव फैलता है, कुंठा नारे उछालती है, वर्जनाएं जुलूस और बंद के मुकाम पर आ खड़ी होती है। एक वाक्य तीर की तरह कपाट चीरता हुआ हृदयप्रदेश के बीचों बीच आ टँगता है कि आर्थिक सुरक्षा के बिना राजनीतिक स्वतन्त्रता बेमाने हैं।

विखंडित होने से पूर्ण सोवियत संघ और पूर्व यूरोपीय देशों के पूर्व सामाजिक गट के संविधान में निहित रोजगार पाने का अधिकार आज चकनाचूर हो चुका है। आज संपूर्ण संवैधानिक मिजाज ही बदल गया है। आर्थिक स्थिति से सदृढ होने वाले देशों (जैसे जापान और पाश्चात्य देश) ने भी रोजगार की गारंटी देने से पल्ला झाड लिया है जबकि ऐसा करना उनके लिए सहज संभव था। वे रोजगार का वायदा कर सकते थे पर उन्होंने ऐसा किया नहीं। यद्यपि राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय मंचों से तत्सदंर्भ में लगातार बड़ी-बड़ी घोषणाएं की जाती रही है, संकल्प लिए जाते रहते हैं और वायदे किए जाते रहे हैं, तथापि उनसे हुआ कुछ नहीं है। समाजवादी व्यवस्था (यथा रूस में विखंडन पूर्व) में इस ओर उत्तरदायित्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया गया था। आज वहां भी यही संकट व्याप्त है। हालाँकि विकसित पूँजीवादी देशों ने बेरोजगारी भत्ता मुकर्रर कर रखा है लेकिन यह इस समस्या का सम्मानजनक और लक्ष्याभिप्रेरित समाधान नहीं है। यह छल है और बेकारी में जीने का खतरनाक नशीला माधयम।

यह ध्रुव सत्य है कि आर्थिक सुरक्षा के बिना लोकतंत्रात्मक संविधान की समस्त सुविधाएं अर्थहीन ही नहीं है, अपितु मानवतावादी समाज की स्थापना के संकल्प के प्रतिकूल भी है। आजीविका का सम्मानजनक व योग्यता-आधृत अभाव सबसे बड़ा संकट है विश्व के सामने। मानवाधिकार प्रेमियों ने इसीलिए इस अहम सवाल को विश्व मंच पर उठाया ताकि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इस आधारभूत समस्या का समय रहते हुए सम्मानजनक समाधान संभव हो सके। संवेदनशील, बौद्धिक और मानवता के प्रति समर्पित मनीषियों को यह मुद्दा सर्वाधिक उद्वेलित और द्वन्द्वित करता रहा है, क्योंकि आजीविका पाएं बिना मनुष्य के जीवित रहने की संस्थिति की कल्पना भी नहीं की जा सकती।

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