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Hindi Essay, Paragraph, Speech on “Par Updesh Kushal Bahutere”, “पर-उपदेश कुशल बहुतेरे” Complete Hindi Essay for Class 10, Class 12 and Graduation Classes.

पर-उपदेश कुशल बहुतेरे

Par Updesh Kushal Bahutere

निबंध नंबर – 01

                इस कहावत का अर्थ है- दूसरों को उपदेश देना बड़ा अच्छा लगता है। उपदेशक को उपदेश देना बड़ा प्रिय होता है। उपदेश का अपना महत्त्व होता है और इसका प्रभाव भी पड़ता है। राष्ट्र निर्माण में समाज-सुधारकों का भी महत्व है। वे हमारे पथ-प्रदर्शक होते हैं। वे आकाश-दीप की भाँति हमें दिशा-निर्देश देते हैं। पर उपदेशक की कथनी और करनी में साम्य की आवश्यकता होती है तभी उसी बात का प्रभाव पड़ता है। जब उपदेशक केवल उपदेश देता है और स्वयं उन पर अमल नहीं करता, तब वह प्रभावहीन हो जाता है। आज के युग में श्रोता भी बहुत समझदार हो गए हैं। वे आँख मींचकर किसी भी बात पर ऐसे ही विश्वास नहीं कर लेते। वे यह भी देखते ही हैं उपदेश देने वाले का जीवन किस प्रकार का है। वह किन बातों पर अमल करता है और किन्हें कहने तक सीमित रखता है।

                आप देखिए कि आपके साथ कोई भी बुरी घटना घटित हो जाए, आपको उपदेश देने वालों की भीड़ लग जाएगी। जीभ चलाने मात्र से कुछ होने वाला नहीं है। विचारों का क्रियान्वयन जरूरी होता है। उपदेश देना बड़ा सरल है। आजकल धार्मिक उपदेशकों की बाढ़ आई हुई है। वे ऐसे दर्शाते हैं कि मानो भगवान ने उनको अपने विचारों ठेका दे रखा है। इन ढोंगी बाबाओं का अपना जीवन बड़ा सुखपूर्ण है जबकि ये लोगों को सादगी की शिक्षा देते हैं। ये समझते हैं कि लोग इनकी बात पर आँख मूँदकर विश्वास करते हैं। दूसरों को उपदेश देने से पहले स्वयं व्यवहार में लाना सीखो।

                दूसरों को उपदेश देना अत्यंत सरल काम है। उपदेश देने के पीछे दो बातें काम करती हैं। एक तो उपदेशक स्वयं को संत के रूप में प्रस्तुत करता है तथा स्वयं को बहुत बड़ा ज्ञानी बाताने का प्रयास करता है। दूसरे वह सामने वाले को तुच्छ समझकर उसे अपने से हीन दर्शाने का भ्रम पालता है। प्रायः उपदेशकों के उपदेश व्यावहारिक नहीं होते। ये उपदेश सुनने में तो बड़े अच्छे प्रतीत होते हैं, पर इन पर अमल करना कठिन होता है।

                पर-उपदेश के संदर्भ में एक घटना का उल्लेख किया जाता है। एक स्त्री का बालक बहुत अधिक गुड़ खाता था। वह स्त्री बालक से गुड़ खाना छुड़वाना चाहती थी। बालक उसकी बात मानता नहीं था। अतः वह एक साधु के पास पहुँची और उसे अपनी समस्या बताई। साधु ने पूरी बात सुनकर कहा कि अगले हफ्ते आना। जब वह स्त्री अगले हफ्ते बालक को लेकर साधु महाराज के पास गई तो उसने बालक को समझाया- बालक अधिक गुड़ खाना हानिकारक है, इससे दाँत खराब हो जाते हैं। यह सुनकर स्त्री बोली- इतनी सी बात तो आप इससे उस दिन भी कह सकते थे, व्यर्थ दो चक्कर कटवाए। इस पर साधु ने कहा- ‘‘ बहन, उस दिन तक मैं भी गुड़ खाता था। इस सप्ताह में मैंने गुड़ खाना छोड़ा है तभी इस बच्चे को गुड़ न खाने का उपदेश दे पाया हूँ।’’ यह उदाहरण इस बात को समझने के लिए काफी है कि उपदेश के पीछे नैतिक बल का होना आवश्यक है। पहले स्वयं व्यवहार में लाओ, फिर किसी को उपदेश दीजिए। तभी उसका अपेक्षित प्रभाव पड़ सकेगा।

निबंध नंबर – 02

पर उपदेश कुशल बहुतेरे

Par Updesh Kushal Bahutere

उपदेशों का हमारे दैनिक जीवन में बहुत महत्वपूर्ण स्थान है। जिस प्रकार एक छोटी सी चाबी से कोई बहुत बड़ा खज़ाना खल जाता है उसी प्रकार कई बार उपदेशात्मक एक सूक्ति के द्वारा कभी-कभी ज्ञान-कोष खुल जाता है और मनुष्य का जीवन ही बदल जाता है। उपदेश अच्छे से अच्छे दिल और दिमाग के अच्छ से अच्छे भावों और विचारों का संग्रह हैं। महापुरुषों द्वारा दिए गए उपदेशों स ही नहीं बल्कि उनके चरित्र से भी बहुत कुछ सीखा जा सकता है।

उपदेशक का संसार के निर्माण में बहुत योगदान है। एक अध्यापक को राष्ट्र निर्माता का दर्जा दिया गया है। जिस प्रकार एक कम्हार मिट्टी के कच्चे घड़ को जैसा भी रूप देना चाहता है उसी की शक्ल में ढाल देता है, इसी प्रकार एक अध्यापक, गुरू या उपदेशक भी राष्ट्र के निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान दे सकता है और लोगों के जीवन को एक नई दिशा प्रदान कर सकता है। अर्जुन एक अच्छा धनुर्धारी नहीं बन सकता था, यदि उसे गुरु द्रोणाचार्य जैसे गुरु न मिलते । स्वामा विवेकानन्द भी स्वामी विवेकानन्द न होते यदि उनको स्वामी रामकृष्ण परमहंस जैसे योग्य गुरु न मिलते ।।

एक उपदेशक अपने उपदेशों द्वारा समाज में फैली बुराइयों की ओर ध्यान दिलाकर उनको दूर करने के लिए प्रयत्नशील रहता है। स्वामी दयानन्द सरस्वती तथा राजा राममोहनराय ने समाज में फैली कुरीतियों को दूर करने का भरसक प्रयत्न किया । आजकल भी अनेक धर्म उपदेशक समाज में फैली विसंगतियों को दूर करने का प्रयत्न कर रहे हैं। प्राचीन ऋषि-मुनि, ईसा, बुद्ध, मुहम्मद, कबीर, गुरु नानक आदि ने किसी स्कूल कालेज या विश्वविद्यालय से कोई शिक्षा की डिग्री हासिल नहीं की थी परन्तु फिर भी उन्होंने अपने समय में प्रचलित सभी सामाजिक बुराइयों जैसे अस्पृश्यता,ऊँच-नीच,जाति-पाति आदि के भेद भाव को समाप्त करने के लिए भरसक प्रयत्न किया ।

एक उपदेशक हमें जीवन पथ पर आगे बढ़ने के लिए एक पथ प्रदर्शक का काम करता है। हमारे ऋषि-मुनियों का कहना है जिस कार्य को मनुष्य करना चाहे, उसे वह कर सकता है, जैसा बनना चाहे, वैसा बन सकता है। एक अंग्रेज़ी कहावत है- Where there is a cart ahead there is a track. भाव जहाँ आगे एक गाड़ी दिखाई पड़ती है.वहाँ उसके पीछे रास्ता भी होगा । उस रास्ते से हमारी जावन गाड़ी भी वहां तक पहुँच सकती है। पहुंचे हुए लोग इसी प्रकार हमारा मार्ग-प्रदर्शन करते हैं। मनुष्य का पथ प्रदर्शक मनुष्य की देह में ही रहता है। उसा का अनुभव करके शायद हमारे ऋषि-मुनियों ने कहा था- मेरे भीतर किसी अज्ञात देवता का वास है, वह मुझसे जैसा करवाता है, में वैसा ही करता हूं।

एक उपदेशक एक आकाशदीप की भान्ति दिशा निर्देशक का काम करता है। जिस प्रकार अन्धकार में भटकने से बचने के लिए हमें प्रकाश की आवश्यकता हाती है इसी प्रकार भविष्य के अन्धकारमय मार्ग पर चलने वाले जीवन-यात्री के लिए भी ज्ञानरूपी दीपक को यत्नपूर्वक पकड़ रखना चाहिए । जब तक कोई नेता तब तक वह किराए के घर में भी गृहस्थी चलाता व्यक्ति अपना घर नहीं बना लेता, तब तक वह है। क्या कोई बुद्धिमान यह सोचकर बैठा रहता है कि हम दूसरों की बनाई हुई सड़क पर नहीं चलेंगे,जब अपनी सडक बना लेंगे तभी चलेंगे? जिस मार्ग पर चलकर लोग सफलता प्राप्त कर चुके हैं, उसको अपनाने में क्या हानि है ?

उपदेशक वही श्रेष्ठ माना जाता है जिसकी कथनी और करनी में समानता हो। यदि कथनी और करनी में अन्तर होगा तो उस उपदेशक का समाज पर विपरीत प्रभाव ही पड़ेगा । नेता लोग समाज का सुधार सही ढंग से करने में असमर्थ हैं। लोग उनके द्वारा बताए गए मार्ग पर चलने के लिए तैयार नहीं है और उसका मुख्य कारण है उनकी कथनी और करनी में अन्तर । दूसरी ओर सन्त जिसका सारा जीवन सादगी और तपस्या में व्यतीत होता है, यदि वह सादगी तथा तपस्या पर उपदेश देता है तो उसका प्रभाव मानव समाज पर अवश्य पड़ेगा क्योंकि उनकी कथनी और करनी में अन्तर नहीं होता। गुरुओं तथा सन्तों की वाणी इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि उन्होंने जैसा जीवन व्यतीत किया वैसा ही उपदेश लोगों को दिया और उसका प्रभाव समाज पर भी पड़ा। करनी के अभाव में वह चाहे जितना भी बड़ा उपदेशक क्यों न हो, एक सफल उपदेशक नहीं हो सकता। यदि आप किसी दूसरे के जीवन में सुधार लाना चाहते हैं तो सबसे पहले आपको अपने आचरण में सुधार लाना होगा। कथनी और करनी को एक करना होगा।

यदि कोई उपदेशक स्वयं शराबी या सिगरेट का सेवन करता होगा, वह अपने शिष्यों को, अपने भक्तों को जितना चाहे कहता रहे कि आप शराब न पिएँ, आप सिगरेट न पिएं या किसी भी प्रकार का नशा न करें तो उसके उपदेश का उसके शिष्यों या भक्तों पर किसी प्रकार का कोई असर नहीं होगा । इसके विपरीत यदि कोई उपदेशक अपने भक्तों या शिष्यों को शराब छोड़ने या अन्य नशे छोड़ने के लिए नहीं भी कहता तो भी मेरा पूरा विश्वास है उसके शिष्य अथवा भक्त अपने उपदेशक गुरु की जीवन पद्धति से उसके रहन सहन से उसके विनम्र व्यवहार से अपने आप ही इतना प्रभावित हो जाएगा कि उसको फिर कहने की ज़रूरत नहीं पडेगी। इसलिए करनी के अभाव में उपदेशों में नीरसता पाई जाती है जब कि करनी वाले के उपदेशों में अपने आप सरसता आ जाती है।

दसरों को उपदेश देना तो सरल है परन्तु स्वयं उस पर चलना बड़ा ही दष्कर कार्य है। ‘में परमात्मा हूँ, कहने भर से कोई परमात्मा नहीं बन जाता, जैसे मैं करोडपति हूँ कहने मात्र से कोई करोड़पति नहीं बन जाता। जो लोग कहते कुछ हैं और करते कुछ हैं उनसे मेरा मन बहुत दु:खी होता है क्योंकि उनके कहने और करने का कुछ ठिकाना नहीं। कथनानसार कार्य करने वाले मनुष्य की वाणा सफल होती है। जिसने स्वयं को समझ लिया,वह दूसरों को समझने नहीं जाएगा। जो व्यक्ति किसी महापुरुष का उपदेश नहीं सुनना चाहता, उसे लानत-मलायत सननी पड़ती है। उपदेशक की जाँच यह कहने में नहीं कि अमुक उपदेश कितना सन्दर है, अपितु यह कहने में है कि मैं ऐसा करके दिखाऊँगा।

निबंध नंबर – 03

पर-उपदेश कुशल बहुतेरे 

Par updesh kushal bahutere

  • उपदेश देना सरल
  • कथनी और करनी में एक रूपता
  • आचरण का महत्त्व

दूसरों को उपदेश देना बड़ा सरल है परंतु उसे जीवन में उतारना बड़ा कठिन है। मंच पर खड़े होकर लंबी-चौड़ी बातें करना विशेष कठिन कार्य नहीं है, परंतु उन्हें जीवन में चरितार्थ करने के लिए बड़े संयम, त्याग और साधना की आवश्यकता होती है। जिसने स्वयं को समझ लिया है वह दूसरों को उपदेश नहीं देता। उपदेश केवल वही देता है जो अंदर से खोखला होता है। ऐसा व्यक्ति उपदेश देने में ही गौरव का अनुभव करता है। वह समझता है कि उसने अपने प्रवचन से श्रोताओं को मंत्र-मुग्ध कर लिया है, परंतु सच्चा उपदेश वाणी के द्वारा नहीं, कर्म के द्वारा दिया जाना चाहिए। उपदेश एक ऐसी वस्तु है जिसे देने के लिए प्रत्येक व्यक्ति तैयार रहता है। वाणी और कर्म की एकता बहुत कम लोगों में दिखाई देती है। मनुष्य की महानता उसकी कथनी में नहीं, करनी में निहित है। आचरण में विश्वास न करने वाला व्यक्ति अपने व्यक्तित्व से दूसरों को प्रभावित नहीं कर सकता। वास्तव में उपदेश उसी का प्रभावोत्पादक हो सकता है जो स्वयं उस पर आचरण करता है। उपदेश से आदर्श उत्तम है।

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