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Hindi Essay/Paragraph/Speech on “Naitik Shiksha ka Mahatva”, “नैतिक शिक्षा का महत्व ” Complete Essay, Speech for Class 10, Class 12 and Graduation and other classes.

नैतिक शिक्षा का महत्व 

Naitik Shiksha ka Mahatva

निबंध नंबर :- 01

‘नैतिकता’ से अभिप्राय है-आचरण की शुद्धता तथा आदर्श मानवीय मूल्यों को अपनाना। सत्य, अहिंसा, प्रेम, सौहार्द, बड़ों का सम्मान, अनुशासन-पालन, दुर्बल एवं दीन-हीनों पर दया तथा परोपकार आदि गुणों को अपनाना ही नैतिकता का वरण करना है। सभी प्राणियों में ईश्वर का नूर देखना, न्याय-पथ पर चलना, शिष्टाचार का पालन करना- कुछ ऐसे मूल्य हैं जिनका वर्णन प्रत्येक धर्मग्रंथ में मिलता है। धर्म-प्रवर्तकों एवं महान पुरुषों के जीवन से भी हमें नैतिकता को अपनाने की प्रेरणा मिलती है। श्रीराम, श्रीकृष्ण, भगवान बुद्ध, ईसा मसीह, मुहम्मद साहब, गांधीजी, मदर टेरेसा, विवेकानंद, महावीर स्वामी सभी ने प्राणिमात्र से प्रेम करने की शिक्षा दी है। बेवजह किसी को कष्ट न देना, अहिंसा का पालन करना, रोगियों, असहायों एवं अपाहिजों की सहायता करना हमारा नैतिक कर्तव्य है। ‘जीवों पर दया करो’, ‘पर्यावरण की रक्षा करो’, ‘अहिंसा परम धर्म है’, ‘अपने पड़ोसी से प्रेम करो’, ‘वसुधैव कुटुंबकम्’, ‘जियो और जीने दो’, आदि विभिन्न धर्मों के ऐसे सूक्ति-वाक्य हैं जो हमें नैतिक मार्ग पर अग्रसर होने की निरंतर प्रेरणा देते हैं। बोर्डमैन के अनुसार-

 

कर्म को बोओ और आदत की फसल काटे,

आदत को बोओ और चरित्र की फसल काटो,

चरित्र को बोओ और भाग्य की फसल काटो।

नैतिकता को अपनाने से अभिप्राय उपर्युक्त मानवीय मूल्यों को सम्मानपूर्वक अपनाने से है। वर्तमान समय में भौतिकवाद का बोलबाला है। भौतिक उन्नति की ओर अग्रसर मानव ने नैतिक मूल्यों को ताक़ पर रख दिया है। परिणामस्वरूप समाज में आतंक, भ्रष्यचार, हिंसा एवं अपराध बढ़ रहे हैं। भौतिक सुखों के लिए अनैतिकता और अराजकता को बढ़ावा देकर रावण की लंका का ही निर्माण किया जा सकता है, परंतु स्वर्ग के समान सुख, शांति एवं समृधि तो नैतिकता के बल पर ही स्थापित की जा सकती है। अत: आज के परिवेश में नैतिक शिक्षा की अत्यंत आवश्यकता है। नैतिक शिक्षा को शिक्षण संस्थाओं में अनिवार्य विषय के रूप में पढ़ाया जाना चाहिए। वर्तमान शिक्षा-प्रणाली में नैतिक शिक्षा को स्थान नहीं दिया गया है। प्राथमिक स्तर से ही नैतिक शिक्षा को अनिवार्य करके विद्यार्थियों के राष्ट्रीय चरित्र एवं नैतिक चरित्र के निर्माण में सहयोग देना चाहिए तथा इसके व्यावहारिक पक्ष पर भी। बल देना चाहिए क्योंकि कोई शिक्षा तब तक कारगर सिद्ध नहीं होती जब तक उसे व्यवहार में न लाया जाए। शिक्षक वर्ग को भी नैतिक गुणों को अपनाना चाहिए क्योंकि उनके आचरण एवं चरित्र का सीधा प्रभाव विद्यार्थियों पर पड़ता है।

निबंध नंबर :- 02

 

नैतिक-शिक्षा का महत्त्व

Naitik Shiksha ka Mahatva 

आधानिक युग में नैतिकता और उसके रक्षक-संर्वद्धक तत्त्वों का पूर्णतया हास बलिक सीहो चका है। नैतिकता किस चिड़िया का नाम होता या हो सकता है, आम खास किसी को इस का अहसास या ज्ञान तक नहीं रह गया है। लगता है, नैतिकता नामक पटिया को मार और भून कर लोग खा तो चुके ही हैं, हज्म तक कर चुके हैं और वह भी बिना किसी डकार लिए। इस का मुख्य कारण स्वतंत्रता प्राप्त करने वाली पीढ़ी के समाप्त हो जाने के बाद मचने वाली लूट-पाट, आपाधापी और आदर्शहीनता ही है। इस से भी बड़ा कारण है उस तरह का राष्ट्रीय चरित्र निर्माण करने वाली शिक्षा का सर्वथा अभाव और नैतिकता और उसके मूल्यों को जगाए रखने की अवगत प्रेरणा बनी रहा करती है। पर नहीं, हमारे नेतृवर्ग ने स्वतंत्र भारत में इस सब की व्यवस्था करने के दायित्व निर्वाह की ओर कतई कोई ध्यान नहीं दिया। नैतिकता और नैतिक शिक्षा का महत्त्व इस तथ्य से भली भांति परिचित रहते हुए भी सर्वथा भुला दिया गया कि राष्ट्र-निर्माण और सुरक्षा के लिए एक प्रकार के राष्ट्रीय चरित्र की आवश्यकता रहा करती है। वह नैतिक जागृति रहने पर ही संभव हुआ करता है।

उपर्युक्त तथ्यों के आलोक में ही सहज ही देखा, परखा और समझा जा सकता है कि किसी भी युग में नैतिक शिक्षा का क्या महत्त्व हुआ करता है। उसकी कितनी अधिक आवश्यकता हुआ करती है। आज हमारा देश जिस संक्रमण काल से गुजर रहा है, जिस तरह की अपसंस्कृति और मूल्यहीनता का शिकार होकर अनवरत हीन बल्कि निकृष्टतम अमानवीय मनोवृत्तियों का अखाड़ा बन कर रह गया है, इसमें नैतिक शिक्षा का महत्त्व एवं आवश्यकता और भी बढ़ गई है। आज जिस प्रकार की शिक्षा स्कूलों-कॉलेजों में दी जा रही है, वह साक्षर तो जरूर बना देती है, सुशिक्षित क्या मात्र शिक्षित भी नहीं बना पाती। ऐसे में उसके द्वारा नैतिक मानों-मल्यों की रक्षा तो क्या करना, वह व्यक्ति का साधारण मनुष्य तक बने रहने की प्रेरणा भी दे पाने में असमर्थ है। इसी कारण आज यह बात बड़ी तीव्रता से अनुभव की जा रही है कि बाकी शिक्षा के साथ-साथ, बाल्क उस से भी पहले नैतिक शिक्षा की व्यवस्था करना बड़ा ही आवश्यक है।

आज भारत में जिधर भी दृष्टिपात कर के देखिए, चारों ओर कई प्रकार के भ्रष्टाचारी का एकाधिकार छा रहा है। नैतिकता और साँस्कतिक आयोजनों की आड़ में अनैतिकता और अनाचार का पोषण कर उसे हर प्रकार से बढ़ावा दिया जा रहा है। हर तरफ भ्रष्ट मूल्यों वालों का बोल बाला हो रहा है पश्चिम की भौंडी नकल के फलस्वरूप अपसंस्कृति अपमूल्यों, नग्नता का प्रचार इतना बढ़ गया है कि उसका कहीं कोई किनारा तल दिखाई नहीं देता। चारों ओर कामुकता, हिंसा और वासना का नंगा नाच हो रहा है। सुनहरे सपने बेचने वाले सौदागरों ने माँस-मज्जागत लज्जा तक का अपहरण कर के मानवता की उदात भावनाओं को शरे-आम नंगा कर के खड़ी कर दिया है। सहज मानवीय सम्बन्ध तक दरारे जाकर भुरभुराने लगे और टूट का गिर पड़ने को उतावले नजर आ रहे हैं। अराजक और माफिया-गिरोहों को धार्मिक, सांप्रदायिक और राजनीतिक संरक्षण प्राप्त हो जाने के कारण अच्छाई भरा आचरण तो क्या करना, उसका नाम तक ले पाना सुरक्षित नहीं समझा जाता। व्यापारिक दृष्टिकोण और आर्थिक तत्त्वों की प्रधानता ने मानवीयता का गला घोंट कर रख दिया है। फलतः चारों ओर एक प्रकार की कृत्रिमता. मात्र औपचारिकता का ही साम्राज्य छा रहा है। ऐसे वातावरण की सफलता पर प्रहार करने की क्षमता केवल आत्मिक स्तर तक नैतिक बन कर ही किया जा सकता है। नैतिक बनने – के लिए उस तरह की शिक्षा की स्पष्ट आवश्यकता तो है ही, सभी तरह के उपलब्ध उपकरणों – मानवीय मूल्यों को शुद्ध करना भी परमावश्यक है।

नैतिक शिक्षा व्यक्ति को उदार मानव तो बनाया ही करती है, एक तरह का राष्ट्रीय – चरित्र बनाने और विकसित करने में भी सहायक हो सकती है। उसके विकसित होने पर ही अपसंस्कृति, आरोपित और आयातित मूल्यों से छूटकारा पाकर अपनी संस्कृति. अपने राष्ट्रीय तत्त्वों, मल्यों एवं मानो को विकसित कर के समग्र राष्ट्रीयता का उदात तथा उच्च स्थितियों तक पहुँचाया जा सकता है। नैतिक मूल्यो-मानों को विकसित किए। बिना अन्य सभी प्रकार के विकास एक प्रकार से व्यर्थ ही हैं। उनका वास्तविक लाभ वहाँ तक पहुँच ही नहीं सकता कि जिन के लिए सारे आयोजन किए जाते हैं। इतना ही नहीं नैतिक शिक्षा द्वारा नैतिक एवं राष्ट्रीय मूल्यों का विकास किए बिना राष्ट्र की सुरक्षा तक को निश्चित कर पाना संभव नहीं कहा माना जा सकता।

कभी भारत का सारे संसार में जो गुरुवत् मान-सम्मान किया जाता था, वह उसके उदात मानवीय मूल्यों के कारण ही किया जाता था। लेकिन आज देश-विदेश सभी जगह प्रत्येक स्तर पर भारतीयता को हेय एवं त्याज्य माना जाने लगा है। उसकी आवाज का कहीं कोई मूल्य एवं महत्त्व नहीं रह गया। नेतृवर्ग ने विदेशों से ऋण-पर-ण लेकर यहाँ की अस्मिता का दीवालियापन तो घोषित कर ही दिया है, भिखारी जैसा भी बना दिया है। इस प्रकार की विषमताओं पर नैतिक बल और साहस अर्जित कर के ही पार पाया जा सकता है। इसके लिए सब से पहले तो राष्ट्र के नेतृत्व या नेतृ वर्ग को नैतिक रूप से शिक्षित बनाना परम आवश्यक है, बाद में समूचे राष्ट्र जन को जितनी जल्दी यह कार्य आरम्भ कर दिया जाएगा, उतना ही राष्ट्र और राष्ट्र जन का हित-साधन संभव हो पाएगा। कहावत भी है कि शुभस्य शीघ्रम, अर्थात् शुभ कार्य में देर नहीं करनी चाहिए।

 

निबंध नंबर :- 03

नैतिक शिक्षा का महत्त्व

Naitik Shiksha ka Mahtva 

मानव को सामाजिक प्राणी होने के नाते कुछ सामाजिक मर्यादाओं का पालन करना जा है। समाज की इन मर्यादाओं में सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह, परोपकार, विनम्रता, सच्चरित्र आदि अनेक गुण होते हैं। इन गुणों को यदि हम सामूहिक रूप से एक नाम देना चाहे तो ये सब सदाचार के अन्तर्गत आ जाते हैं। सदाचार एक ऐसा व्यापक शब्द है जिसमें समाज की लगभग सभी मर्यादाओं का पालन हो जाता है। अतः सामाजिक व्यवस्था के लिये सदाचार का सर्वाधिक महत्त्व है।

‘सदाचार’ शब्द यौगिक है, दो शब्दों से मिलकर बना है-सत् + आचार जिसका भावार्थ है उत्तम आचरण अर्थात् जीवनयापन की वह पद्धति, जिसमें सत् का समन्वय है, जिसमें कहीं भी कुछ भी ऐसा न हो जो असत् कहा जा सके। सदाचार संसार का सर्वोत्कृष्ट पदार्थ है। विद्या, कला, कविता, धन अथवा राजस्व कोई भी सदाचार की तुलना नहीं कर तकता। सदाचार प्रकाश का अनन्त स्रोत है। विश्व के समस्त गुण सदाचार में निहित है। सदाचार से शरीर स्वस्थ, बद्धि निर्मल और मन प्रसन्न रहता है। सदाचार हमें मार्ग दिखलाता है। सदाचार आशा और विश्वास का अक्षुण्ण कोष है। सदाचारी मनुष्य संसार किसी भी कल्याणकारी वस्त को प्राप्त कर सकता है। सदाचार से ही उत्तम आयु, मनचाही जान तथा अक्षय धन आदि की प्राप्ति होती है, सदाचार के बिना मनुष्य का जीवन खोखला है जिसके कारण वह कभी उन्नति नहीं कर सकता है। चरित्र ही सदाचारी व्यक्ति की शक्ति है।

कसी भी महान से महान कार्य की सिद्धि बिना सदाचार अथवा उत्तम चरित्र के ही। जो वास्तविक सफलता सदाचारी प्राप्त कर सकता है उसे दुराचारी मानव कदापि प्राप्त नहीं कर सकता है। सदाचार का पालन न करने वाला व्यक्ति समाज में घृणित माना जाता है। दुराचारी पुरुष की संसार में निन्दा होती है। पह निरन्तर व्याधिग्रस्त पासक्त रहता है तथा उसकी आयु भी कम होती है। दुराचारी मानद अपना, अपने ज और अपने राष्ट किसी का भी उत्थान नहीं कर सकता है। सदाचार विहीन मनुष्य का जीवन पाप-पंक में होने के कारण सुख-शान्ति रहित एवं अपमानजनक होता है। ऐसे लोगों को इस लोक मे चैन नहीं मिलता तथा परलोक में भी सदगति प्राप्त नहीं होती है।

‘आचार’ शब्द तो इतना महत्त्वपूर्ण है, सहज ही नहीं भुलाया जा सकता। सदाचार आम या जामुन का फल नहीं है जिसे किसी वृक्ष से तोड लिया जाय अथवा बाजार में खरीद लिया जाये। सदाचार आचरण की वस्तु है, वाणी की नहीं। सदाचार की भाषा मौन है, वह बोलता नहीं। सम्पूर्ण जीवन की आधारशिला विद्यार्थी जीवन है। अतः इस जीवन रूपी नींव को विनम्रता, परोपकार, सच्चरित्र, सत्यवादिता आदि से पुष्ट होना चाहिये ।

सदाचार के अभ्यासार्थ हमें बुरे वातावरण से सर्वदा बचना चाहिए, क्योंकि बुरे वातावरण में रहकर हम कितना ही प्रयास करे उसके प्रभाव से बचना कठिन है। सदाचार के हेतु हमें अपना अधिक से अधिक समय महापुरुषों की आत्मकथा, गीता, रामायण श्रीमद्भागवत्, कुरानशरीफ, बाइबिल, त्रिपिटक आदि धार्मिक ग्रन्थों के पठन-पाठन तथा सत्संगति में व्यतीत करना चाहिए।

सदाचारी पुरुषों का व्यक्तित्व महान होता है। वे समुद्र की भाँति गम्भीर, हिमालय की तरह उच्च, पृथ्वी के समान सहनशील, सूर्य की तरह तेजवान तथा चन्द्रमावत् शीतल होते हैं। वह मनसा, वाचा और कर्मणा से एक होते हैं। वे अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, यमों तथा शौच, संतोष, तपः, स्वाध्याय एवं ईश्वर-प्राणिधान इन नियमों का पालन करते हैं। वे ‘अतिथि देवो भव’ तथा ‘मातृ देवो भव’ को अपने-अपने अन्तःकरण में धारण करते हैं। सदाचार का क्षेत्र अत्यन्त विस्तृत है। इसमें प्रेम, सेवा, क्षमा, उदारता, धैर्य, दानशीलता, दया, परोपकार, अहिंसा, दान, पुण्य, यम-नियम इत्यादि सभी शुभ कर्म आ जाते हैं तथा झूठ, छल, द्वेष, घृणा, क्रोध, भय, स्वार्थ, कुसंग एवं रिश्वत इत्यादि दुर्गुणों । के त्याग की भावना सदैव रहती है। सदाचारी मानव आयु, आरोग्यता, प्रीति, धन, धम एवं हर प्रकार के ऐश्वर्य भी प्राप्त करता है।

आचार ही धर्म का कारण है। जहाँ आचार लुप्त हुआ वहाँ सर्वस्व लुप्त हुआ समझिए। सदाचार के अभाव में मानव के सभी प्रयास उसी प्रकार निष्फल हो जाते हैं जिस प्रकार छिद्रयुक्त पात्र में जल रखने का प्रयास। सदाचरण के अभाव में ही चारों वेदों का ज्ञाता । रावण भी राक्षस कहलाया। सदाचार से ही मनुष्य वास्तव में पतित है। इस प्रकार सदाचार का पालन चरित्र के पूर्ण विकास का प्रतीक है।

स्पष्ट है कि सदाचार पालन स्वयं की, समाज की और राष्ट्र की उन्नति के लिये परमावश्यक है। सच्चरित्रता ही सदाचार है जिसका प्रतिक्षण रक्षा करना हमारा परम पवित्र कर्तव्य है। सदाचार मानव को देवत्व प्रदान करता है। इस सदाचरण से युक्त पृथ्वी ही स्वर्ग है।

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