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Hindi Essay, Paragraph, Speech on “Mitra ho to Esa”, “मित्र हो तो ऐसा” Complete Hindi Essay for Class 10, Class 12 and Graduation Classes.

मित्र हो तो ऐसा

Mitra ho to Esa

                मित्रता एक पवित्र वस्तु है। संसार में सब कुछ मिल सकता है, परंतु सच्चा और स्वार्थहीन मित्र मिलना अत्यंत दुर्लभ है। जिस व्यक्ति को संसार में  मित्र-रत्न मिल गया, समझो उसने अपने जीवन में एक बहुत ही बड़ी निधि पा ली। मनुष्य जब संसार में जीवन-यात्रा प्रारंभ करता है तो उसे सबसे अधिक कठिनाई मित्र खोजने में ही होती है। यदि उसका स्वभाव कुछ विचित्र नहींे तो लोगों से उसका परिचय बढ़ता जाता है और कुछ दिनों मंे यह परिचय ही गहरा होकर मित्रता का रूप धारण कर लेता है।

                एक सच्चा मित्र इस संसार में हमारा सबसे बड़ा आश्रय होता है। वह विपत्ति में हमारी रक्षा करता है, निराशा में उत्साह देता है, जीवन को पवित्र बनाने वाला, दोषों को दूर करने वाला और माता के समान प्यार करने वाला होता है।

                मित्र के अनेक कर्तव्य होते हैं जिनमें से केवल कुछ प्रमुख कर्तव्यों पर नीचे विचार किया जाएगा। एक सच्चा मित्र सदैव अपने साथी को सन्मार्ग पर चलने के प्रेरणा देता है। वह कभी नहीं देख सकता कि उसकी आँखों के सामने ही उसके मित्र का घर बर्बाद होता रहे, उसका साथी पतन के पथ पर अग्रसर होता रहे, कुवासनाएँ और दुव्र्यसन उसे अपना शिकार बनाते रहें, कुरीतियाँ उसका शोषण करती रहे, कुविचार उसे कुमार्गागामी बनाते रहें। वह उसे समझा-बुझाकर, लाड़-प्यार से और फिर, मार से किसी न किसी तरह उसे कुमार्ग को छोड़ने के लिये विवश कर देगा। तुलसीदास ने मित्र की जहाँ और पहचान बताई है वहाँ एक यह भी हैः

‘‘कुपथ निवारि सुपंथ चलावा।

गुण प्रगटहि अवगुणहिं दुरावा।।’’

                तात्पर्य यह है कि हम झूठ बोलते हैं, चोरी करते हैं, धोखा देते हैं या हममें इसी प्रकार की बुरी आदतें हैं, तो एक श्रेष्ठ मित्र का कत्र्तव्य है कि वह हमें  सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा दें, हमें अपने दोषों के प्रति जागरूक कर दे तथा उनको दूर करने का निरंतर प्रयास करता रहे।

                जब मनुष्य के ऊपर विपत्ति के काले बादल घनीभूत अंधकार के समान छा जाते हैं और चारों दिशाओं में निराशा के अंधकार के अतिरिक्त और कुछ दिखाई नहीं पड़ता, तब केवल सच्चा मित्र ही एक आशा की किरण के रूप में सामने आता है। तन से, मन से, धन से वह मित्र की सहायता करता है और विपत्ति के गहन गर्त में डूबते हूए अपने मित्र को निकाल कर बाहर ले जाता है। रहीम ने लिखा है:

‘‘रहिमन सोई मीत हैं, भीर परे ठहराई।

मथत मथत माखन रहे, दही मही बिलगाई।।’’

                मित्रता होनी चाहिए मीन और नीर जैसी। सरोवर में जब तक जल रहा; मछलियाँ भी क्रीड़ा तथा मनोविनोद करती रहीं, परंतु जैसे-जैसे तालाब के पानी पर विपत्ति आनी आरंभ हुई; मछलियाँ उदास रहने लगीं, जल का अंत तक साथ दिया, उसके साथ संघर्ष मंे रत रहीं, परंतु जब मित्र न रहा, तो स्वयं भी अपने प्राण त्याग दिये, परंतु अपने साथी जल का अंत तक विपत्ति में भी साथ न छोड़ा। मित्रता दूध ओर जल की-सी नहीं होनी चाहिए कि दूध पर विपत्ति आई और वह जलने लगा तो पानी अपना एक ओर को किनारा कर गया अर्थात् भाप बनकर भाग गया, बेचारा दूध अंतिम क्षण तक जलता रहा।

                स्वार्थी मित्र सदैव विश्वासघात करता है; उसकी मित्रता सदैव पुष्प और भ्रमर जैसी होती है। भंवरा जिस तरह रस रहते हूए फूल का साथी बना रहता है और इसके अभाव में उसकी बात भी नहीं पूछता। इसी प्रकार स्वार्थी मित्र भी विपत्ति के क्षणों में मित्र का सहायक सिद्ध नहीं होता। इसलिये तुलसीदास जी ने अच्छे मित्र की कसौटी विपत्ति ही बताई है।

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