Hindi Essay, Paragraph, Speech on “Karm hi Pooja Hai”, “कर्म ही पूजा है” Complete Hindi Essay for Class 10, Class 12 and Graduation Classes.
कर्म ही पूजा है
Karm hi Pooja Hai
व्यक्ति की सफलता के लिए कर्मठ होना आवश्यक है। उसे कर्म में ही विश्वास करना चाहिए। जिस व्यक्ति में आत्म-विश्वास है, वह व्यक्ति जीवन में कभी असफल नहीं हो सकता है, हाँ जो व्यक्ति हर बात के लिए मुँह जोहता है, उसे अनेक बार निराशा का सामना करना पड़ता है।
अकर्मण्य व्यक्ति ही भाग्य के भरोसे बैठता है। कर्मवीर व्यक्ति तो बाधाओं की उपेक्षा करते हुए अपने बाहुबल पर विश्वास रखते हैं। उनके बारे में हरिऔध जी कहते हैं-
’’देखकर बाधा विविध बहु विघ्न घबराते नहीं।
रह भरोसे भाग्य के दुःख भोग पछताते नहीं।’’
केवल आलसी लोग ही हमेशा दैव-दैव पुकारा करते है और कर्मशील व्यक्ति ’दैव-दैव आलसी पुकारा’ कहकर उनका उपहास किया करते हैं। आलसी व्यक्तियों का गुरूमंत्र है-
’’अलगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम
दास मलूका कह गए, सबके दाता राम।’’
एक समय ऐसा भी आया जब इस विषैले मंत्र ने देश में अकर्मण्यता कर दिया। आलसी व्यक्ति परिवार, समाज और देश के लिए कलंक होता है। संस्कृत मंे कहा गया है-
’’आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थे महान् रिपुः।’’
जीवन में सफलता केवल पुरूषार्थ से ही पाई जा सकती है। अकर्मण्य व्यक्ति सदा दूसरों का मुँह ताका करता है। वह पराधीन हो जाता है। स्वावलंबी व्यक्ति अपने भरोसे रहता है। वे तो असंभव को भी संभव बना देते हैं-
’’पर्वतों को काटकर सड़कें बना देते हैं वे
सैकड़ों मरूभूमि में नदियाँ बहा देते हैं वे।’’
विश्व का इतिहास ऐसे महापुरूषों से भरा पड़ा है जिन्होंने कर्म में रत रहकर सफलता की उच्च सीमा को जा छू लिया। जो पुरूष उद्यमी एवं स्वावलंबी होते हैं, वे निश्चय ही सफल होते हैं। अग्रलिखित पंक्ति पर ध्यान दीजिए-
’’कायर मन कहं एक अधारा,
दैव-दैव आलसी पुकारा।’’
वास्तव में यह व्यक्ति अपने में सारगर्भित है। आलसी मनुष्य ही दैव या प्रारब्ध का सहारा लेते हैं। कायर मनुष्य का जीवन इसलिए होता है कि वह निदिन्त एवं तिरस्कृत होता रहे। उससे समस्त समाज घृणा करता है। नीतिकारांे का कथन है-
’’उद्योगिनं पुरूष सिंह मुपैति लक्ष्मी
दैवेन देयमिति का पुरषाः वदन्ति।
देवं निहत्थ कुरूँ पौरूष मात्मशकत्या,
तजे कृत यदि न सिध्यन्ति कोत्र दोषः।’’
अर्थात् पुरूषों में सिंह के समान उद्योगी पुरूष को ही लक्ष्मी प्राप्त होती है। ’दैव देगा’ ऐसा कायर पुरूष कहा करते हैं। दैव को छोड़कर अपनी भरपूर शक्ति से पुरूषार्थ करो और फिर भी कार्य सिद्व न हो तो सोचिए कि कहाँ और क्या कमी रह गई है।
रविन्द्रनाथ ठाकुर ने भी अपनी ’पुजारी, भजन, पूजन और साधन’ कविता में बताया है कि देवालय में बैठना ईश्वर की सच्ची उपासना नही है। इस कविता में कवि कहता है कि देवालय के द्वार बंद करके किसी कोने में बैठकर पूजा करना व्यर्थ है। देवता देवालय मे निवास नहीं करता। उसका वास तो कर्म भूमि में होता है। उसे किसान मजदूरों के मध्य ही पाया जा सकता है। वह स्वंय सृजन कर्म में बंधा है। पुजारी को भी फूलों की डाली एक ओर रखकर निर्माण कार्य में जुट जाना चाहिए। इसमंे चाहे उसके वस्त्र फट जाएँ अथवा वह धूल में सन जाए। उसे इसकी परवाह नहीं करनी चाहिए। जब पुजारी श्रमिकों के साथ पसीना बहाएगा तभी वह ईश्वर की सच्ची पूजा कर पाएगा।
कवि का आशय है कि देवालय में बैठकर ईश्वर की सच्ची उपासना नहीं की जा सकती। कर्म करके ही ईश्वर की उपासना हो सकती है, अतः किसान-मजदूरो के पसीने के साथ पसीना बहाना चाहिए। इसी से ईश्वर प्रसन्न होता है।