Hindi Essay, Paragraph, Speech on “Dahej Rupi Danav” , ”दहेज रूपी दानव” Complete Essay for Class 10, Class 12 and Graduation Classes.
दहेज रूपी दानव
Dahej Rupi Danav
निबंद संख्या :- 01
दहेज वह होता है जो धन अथवा वस्तुएं लड़की के माता-पिता उसे उसकी शादी के समय देते हैं। पुराने समय में यह उनकी इच्छा पर निर्भर होता था और ये प्यार की निशानी के रूप में दिया जाता था लेकिन आजकल यह शादी का एक आवश्यक हिस्सा बन चुका है। लोगों में लालच की भावना बढ़ती जा रही है। कई लड़कियों को इस दहेज रूपी दानव के कारण अपना जीवन खोना पड़ा है।
हम भौतिकवादी युग में जी रहे हैं। हर व्यक्ति पैसे की अंधी दौड़ में लगा हुआ है। समाज में किसी के रुतबे की पहचान आज उसके व्यवहार से नहीं बल्कि पैसों से होने लगी है। अमीर लोग अपनी लड़कियों के लिए पैसों के बल पर दूल्हे खरीद रहे हैं। गरीब लोगों के लिए अपनी लड़कियों के लिए योग्य वर ढूंढना एक समस्या बनती जा रही है। दहेज प्रथा ने कई बुराइयों को जन्म दिया है। कई युवतियां पैसे के अभाव के कारण अयोग्य लड़कों से विवाह करने को मजबूर हो रही हैं और कई तो अविवाहित ही रह जाती हैं।
दहेज प्रथा मानवता के माथे पर एक कलंक है। लड़कियां आज एक आर्थिक बोझ के रूप में देखी जाने लगी हैं। लडकी के जन्म पर माँ-बाप आज प्रसन्न नहीं होते। कई माता-पिता अपनी लड़कियों को पढाई लिखाई नहीं करवा रहे। वे जितनी जल्दी हो सके उनकी शादी कर के उनसे छुटकारा पाना चाहते हैं। दहेज रूपी इस बुराई का अन्त शादी के बाद भी नहीं होता। शादी के बाद भी लडकियों को उनके ससुराल वालों द्वारा और अधिक दहेज लाने के लिए मजबूर किया जाता है। उन्हें तंग ही नहीं किया जाता बल्कि कई मामलों में तो लडकियों को जिन्दा जला दिया जाता है।
दहेज प्रथा को जड़ से उखाड़ फेंकने की ज़रूरत है। लोगों को इसके लिए शिक्षित किया जाना चाहिए। युवक और युवतियों को यह प्रण लेना चाहिए कि वे बिना दहेज के विवाह करेंगे। संचार माध्यमों को दहेज प्रथा की बुराइयों को उजागर करना चाहिए। जो लोग दहेज लेते हैं उनका सामाजिक बहिष्कार किया जाना चाहिए। समाज-सुधार तथा फिल्म निर्माता इस बुराई को दूर करने के लिए महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। दहेज प्रथा कानून बनाने से नहीं बल्कि हृदयों में और सोच में बदलाव लाकर ही समाप्त की जा सकती है।
निबंद संख्या :- 02
दहेज रूपी दानव
मानव-जीवन का सबसे आकर्षक और महत्त्वपूर्ण संस्कार है विवाह। विवाह दो हृदयों का मिलन, दो शरीरों का मिलन, दो परिवारों और समाजों का मिलन, नर और नारी का मिलन है। वस्तुतः यह सृष्टि का अनिवार्य धर्म है। प्रकृति और पुरुष के इस पारस्परिक मिलन के अभाव में सृष्टि का रथ-चक्र कब का रूक गया होता। यह सम्मिलन सभी जीवधारियों का होता है, पशु-पक्षी का होता है, किन्तु मनुष्य वृद्धि वाला जीव है। इसी कारण इस अवसर को स्मरणीय बनाने के लिए उत्सव का आयोजन करता है, किन्तु उसे नहीं पता था कि कभी और कहीं यह उत्सव आकर्षक, प्रेरक और मंगलदायी न रहकर आत्मघाती भी सिद्ध हो सकता है। इस पवित्र उत्सव के बीच घुस आई दहेज की कुप्रथा इन दो ध्वजों के मंगलमय मिलन को सदैव सदैव के लिए कलुषित भी बना सकती है, किसने सोचा होगा।
सम्भवतः दहेज प्रथा उतनी ही पुरानी है जितनी पुरनीविवाहोत्सव की प्रथा, किन्तु यह प्रथा ही थी, कुप्रथा नहीं थी। यह कन्या के माता-पिता के हर्षोल्लास की प्रतीक थी, इसके अश्रु और रुदन की नहीं । अथर्ववेद में एक सूक्त आता है। जिसके अनुसार पिता कन्या की विदाई के समय उसे पलंग, गद्दा और कुछ इसी प्रकार की अन्य सामग्री देता था, जो उसके नए गृहस्थ जीवन में संचालन में सहायक होती थी और कन्या के माता-पिता अपनी सामर्थ्य के अनुसार यह सब देकर उभगित होते थे और वर के माता-पिता तथा अन्य सदस्य उसे स्वीकार करके संतुष्ट होते थे जो हजारों वर्षों तक होता रहा है। किन्तु पिछले कुछ वर्षों से विवाह एक व्यापार बन गया है। इतना, महत्त्वपूर्ण उत्सव, इतनी पवित्र प्रक्रिया, दहेज के दानव के द्वारा कलुषित बन चुकी है। वर कन्या के माता-पिता के साथ डटकर सौदेबाजी होती है। और जो व्यक्ति अधिक धन दहेज देने में समर्थ होता है, विजय उसी के हाथ लगती है। वर कन्या के बीच जो पारस्परिक प्रेम-भाव उत्पन्न होना चाहिए था, वह द्वेष प्रेम परिणित हो जाता है। जिस लड़की के माता-पिता अधिक धन दहेज देकर अपनी लड़की का विवाह करते हैं। उनके मन में भी अपने जामाता तथा उसके परिवार के लोगों के प्रति सम्मान का भाव नहीं रहता। लड़की के मन में भी अपने पति और ससूराल वालों के प्रति अवज्ञा का भाव उत्पन्न हो सकता है और वह उन्हें धन लिप्सु एवं स्वार्थी समझने लगती है। इस प्रकार धन के रूप में दहेज लेने वाला पक्ष जो कुछ ग्रहण करता है उसमें कहीं अधिक वह भावात्मक स्तर पर खो चुका होता है। जिस लड़की के माता-पिता धनी हैं और मुँह माँगा दहेज देने में जिनको किसी प्रकार की कठिनाई का अनुभव नहीं होता, वहाँ तक तो किसी प्रकार चल सकता है। किन्तु जिसके माता-पिता निर्धन हैं, दहेज देने के लिए जिन्हें अपना मकान, दुकान या जमीन तक बेचनी पड़ जाती है, उस लड़की की मनोस्थिति की कल्पना की जा सकती है। जिस गृहस्थी की शुरुआत ही पारस्परिक मनमुटाव से होगी, उसके भविष्य की कल्पना करना कठिन नहीं है। इस प्रकार जिस विवाह की योजना दो हृदयों को जोड़ने के लिए हुई है, वह आरम्भ से ही तोड़ने का काम करने लगता है। टूटें न टूटें, पर गाँठ तो पड़ ही जाती है। ‘रहीम’ ने उचित ही कहा है-
रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ों चटकाय ।
टूटे से फिर न जुरै, जुरै गाँठ परि जाय ॥
दहेज की यह प्रथा इतनी कलुषित और अमानवीय कैसे हो गई इसका भी यहाँ विवेचन करना आवश्यक प्रतीक होता है। वस्तुतः भारत में बच्चे को स्वावलम्बी होने की शिक्षा न के बराबर दी जाती है। जब तक वह पढ़-लिखकर स्वयं कमाने योग्य नहीं होता, तब तक माता-पिता पर वह भार बना रहता है। यहाँ तक कि अनेक घरों में तो माता-पिता केवल उसे नौकरी मिल जाने या काम-धन्धा शुरू करने तक ही मदद नहीं करते, बल्कि उससे आगे भी उसके सहायक बने रहते हैं। इससे वह परजीवी बनता है। माता-पिता उसकी शिक्षा में बहुत पैसा खर्च कर चुके होते हैं। अतः विवाह के अवसर पर वे लड़की वालों से सब कुछ वसूल करना चाहते हैं। यदि लड़का डाक्टर है तो वे आशा करते हैं। कि उसके ससुराल वाले उसके लिए क्लीनिक खुलवा देंगे। इन्जीनियर है तो वे फैक्टरी स्थापित करने की आशा रखते हैं, अर्थात् माता-पिता चाहते हैं कि उसके बेटे को बिना हाथ-पैर हिलाये ही सब कुछ मिल जाना चाहिए। वस्तुतः इस मानसिकता ने भारत का बहुत अहित किया है। विदेशों में प्रारम्भिक शिक्षा के बाद माता-पिता बच्चे को स्वयं कुछ बनने का अवसर देते हैं। यदि उसे उच्च शिक्षा प्राप्त करनी है तो वह स्वयं कमाते हुए शिक्षा प्राप्त करें। इस परालम्बी बने रहने की मानसिकता ने दहेज की प्रवृत्ति को बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। झूठी मान-प्रतिष्ठा भी दहेज के मूल कारणों में से एक है। समाज की दृष्टि में ऊंचा दहेज लाने वाले लड़के का ही सम्मान नहीं बढ़ता, बल्कि उस परिवार का भी सम्मान बढ़ता है। यह झूठी मान-प्रतिष्ठा की बात केवल वर पक्ष में ही पाई जाती हो, ऐसा नहीं है। यह कन्या पक्ष में भी मिलती है। वे भी अच्छी सजी-धजी बारात, प्रचुर मात्रा में आतिशबाजी, अच्छी सवारी, अच्छा बैण्ड तथा लड़की के लिए प्रचुर मात्रा में वस्त्राभूषण पाकर समाज में अपनी नाक ऊंची करते हुए देखे जाते हैं।
इस प्रथा के उन्मूलन के लिए सर्वप्रथम आवश्यक है कि हम विवाह के मूल प्रयोजन को समझें। विवाह एक पवित्र बन्धन है, वह व्यवसाय नहीं है। वह प्रत्यक्ष अर्थोत्पादन का साधन नहीं है। वह सृष्टि का कारण है, जिसकी मूल आधार-भित्ति प्रेम है। दहेज उस आधार-भित्ति की ही कमर तोड़ देता है। दूसरे, हमें बिना स्वयं श्रम किये धनी बनने की मानसिकता और परावलम्बिता की भावना को जोड़ना होगा। सुख-सुविधाएं एकत्रित करना बुरा नहीं, यदि उनका अर्जन स्वयं किया गया हो। दूसरों के द्वारा अर्जित धन से स्वयं सुख-सुविधायें पाना मनुष्य को आलसी और निकम्मा बनाता है। यह भी हमें सीखना होगा। झूठी मान प्रतिष्ठा की तिलांजली देनी होगी।
भारत सरकार का इस कुप्रथा की ओर ध्यान अवश्य गया है। उसने दहेज-विरोधी कानून बनाया गया है। केन्द्र के साथ-साथ कुछ राज्यों में भी दहेज विरोधी कानून बने हैं। इन कानूनों के अन्तर्गत किसी राज्य ने दहेज की अधिक तम धनराशि यदि तीन हजार निश्चित की है, तो किसी ने पांच हजार। बारातियों की संख्या को भी निर्धारित किया गया है और सज-धज पर होने वाले व्यय की भी अधिकतम सीमा निर्धारित की गई है। राजस्थान एवं उत्तर प्रदेश में सरकारी कर्मचारियों के लिए दहेज लेने एवं देने पर भी प्रतिबन्ध लगा दिया गया है। राजस्थान के फैसले के अनुसार जो व्यक्ति अपने विवाह में दहेज लेगा, उसे सरकारी नौकरी के लिए अयोग्य माना जायेगा। वहाँ यह व्यवस्था की गई है कि विवाहित उम्मीदवारों की यह घोषणा करनी होगी कि उन्होंने अपने विवाह में दहेज नहीं लिया। तभी किसी सरकारी नौकरियों में उन्हें प्रवेश मिल सकेगा। 1975 में आपात काल के दौरान दहेज-विरोधी वातावरण बनाने का प्रयत्न किया गया था। अनेक अवसरों पर देश के नवयुवक-नवयुवतियों को शपथ दिलायी गई थी कि वे दहेज का विरोध करेंगे। कुछ स्वयंसेवी संगठन भी इस बुराई को जड़-मूल से उखाड़ने के प्रयत्न में लगे थे, किन्तु परिणाम लगभग शून्य ही रहा। जहाँ कानून का भय हो, वहाँ दहेज चोरी-छुपे लिया-दिया जाने लगा है। इतना ही नहीं महंगाई बढ़ने के साथ-साथ दहेज की रकम भी अशातीत वृद्धि हुई है। समाज के बहुत कम वर्ग ऐसे हैं जिसमें दहेज की प्रथा नहीं है।
वस्तुतः कानून बना कर इस कुप्रथा को समाप्त नहीं किया जा सकता। इसके लिए तो एक आन्दोलन की आवश्यकता होगी। सामूहिक विवाहों की पद्धति को प्रोत्साहित करना होगा-प्रेम विवाहों को स्वीकृति देनी होगी। लड़की को आर्थिक रूप से स्वावलम्बी बनाना होगा। यदि समाज इस समस्या के उन्मूलन के लिए कमर कस ले तो समस्या कितनी ही दुस्साहय क्यों नहीं हो गई हो, उसका निराकरण असम्भव नहीं होगा। समाज में ऐसे प्रयोग भी नहीं हुए हैं। बड़ौत (मेरठ) के पास किसान सम्मेलन के पास किसान सम्मेलन में कुछ नेताओं ने आई बारात को गांव से वापस भेज दिया, क्योंकि बारात में लोगों की संख्या अधिक थी। कई लड़कियों ने दहेज लालची वर के साथ विवाह करने से इन्कार कर दिया। हरियाणा राज्य के लायलपुर गांव के निवासी ने भी कुछ इसी प्रकार का प्रयोग किया था। अनेक जातियों के सम्मेलन में दहेज विरोधी नीतियां तय की गई हैं। इन सब की एकजुटता इस बात पर निर्भर करती हैं कि भारत का जन-जन इसके लिए तैयार होता है।
भारतवासियों को शीघ्र से शीघ्र इस तनाव से मुक्ति पानी होंगी। अन्यथा किसी की बहू स्टोव से जल कर मरेगी, कोई फाँसी लगाकर मरेगी, किसी को विषपान करना होगा, कोई चलती गाड़ी के नीचे आकर आत्मघात करने के लिए विवश होंगी और स्वयं को तिलतिल जलाकर जिन्दगी भर इस यातना को भोगने के लिए अभिशप्त होंगी।
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