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Hindi Essay-Paragraph on “Dharam aur Rajniti” “धर्म और राजनीति” 900 words Complete Essay for Students of Class 10-12 and Subjective Examination.

धर्म और राजनीति

Dharam aur Rajniti

 

‘धर्म और राजनीति’ का संबंध त्रेता और द्वापर युगों में भी एक-दूसरे के संबद्ध रहा है। त्रेता में रामावतार और द्वापर के कृष्णावतार दोनों ही धर्म की ध्वजा थामे हुए थे और राजनीति से अनभिज्ञ या अछूते भी नहीं थे। रावण पर राम की विजय में धर्म और राजनीति दोनों की बातें अपने मर्यादित स्वरूप दिखाती हैं। वैसे ही महाभारत के सूत्राधार श्रीकृष्ण का अभियान भी काफी ध्यानाकर्षक है। महाभारत में तो एक ही नहीं कई रूपों में धर्म की स्थापना दिखाई गई है। और उसी रूप में राजनीतिक प्रौढ़ रूप तथा वैचारिक परिपक्वता भी स्पष्ट होती चली है। लेकिन राम और कृष्ण ने न तो धर्म को उपहासास्पद होने दिया और न राजनीति को ही हास्यास्पद होने दिया। धर्म का अक्षय भंडार श्रीकृष्ण ने ‘श्रीमद्भगवतगीता’ में प्रस्तुत किया तो धर्म को वस्तुतः ऊर्ध्वगामी बनाने में श्रीराम ने भी कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। तभी तो स्वयं वे पुरुष से पुरुषोत्तम हो गए और नर से नारायण हो गए।

धर्म और राजनीति दोनों के क्षेत्र दो हैं, लेकिन दोनों के गंतव्य एक हैं। धर्म और राजनीति को एक-दूसरे से बिलकुल अलग रहना चाहिए। यह कोई शर्त नहीं है। लेकिन धर्म और राजनीति दोनों का संबंध भी एक दायरे में है। दोनों की अपनीअपनी आचार संहिता है। आज तक दोनों की मर्यादा का पालन एक ही शरीर में अर्थात् एक ही व्यक्ति द्वारा होता रहा है। महात्मा गांधी जितने ही धार्मिक थे, उतने ही राजनीतिक भी। उन्हें जितनी वैष्णता पसंद थी, उतनी ही देश की स्वाधीनता भी। उन्हें अंग्रेजों की क्रूरता, बर्बरता और अत्याचार का जवाब भी देना आता था और नियत समय पर भजन करना भी। अपने ही देश में जब तक धर्म और राजनीति अपनी-अपनी सीमाओं में रहें, दोनों फलते-फूलते रहे।

जब से अपने भारत देश में धर्म और राजनीति का संपर्क बढ़ा, एक-दूसरे के अहाते में प्रवेश निषिद्ध रहा, तब से व्यवधान शुरू हुआ और व्याधियां पैदा होने लगीं। समाजवादी विचारक डॉ. राम मनोहर लोहिया के विचार उस संदर्भ में अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं।

धर्म दीर्घकालीन राजनीति है, राजनीति दीर्घकालीन धर्म । एक ही वस्तु के दो स्वरूपों, एक अल्पकाल और दूसरा दीर्घकाल के भेद का एक नतीजा अवश्य होता है। धर्म जो दीर्घकालीन राजनीति है-मतलब यह है कि दीर्घकाल तक अच्छाई करता है। और अच्छाई की स्तुति करता है। अपनी दीर्घकालीन राजनीति में धर्म अच्छाई लाना चाहता है। धैर्य के साथ काफी लंबे समय में वह ठोस नतीजा चाहता है। राजनीति का जो अल्पकालीन धर्म है, उस धर्म के तहत वह बुराई की निंदा करती है और बराई की निंदा करती है। बुराई से लड़ती है। दोनों तो एक ही काम करते हैं। धर्म अच्छाई करता है और राजनीति बुराई से लड़ती है। हालांकि स्थूल रूप दोनों का एक ही है। लेकिन अल्पकाल में धर्म वाला काम राजनीति और अधिक मुश्तैदी से करती है, क्योंकि वह न सिर्फ बुराई की निंदा करती है, बल्कि बुराई से लड़ती है।

डॉ. लोहिया ने धर्म और राजनीति के संबंध में एक बात कही है- “धर्म जब बुरा होता है, वह झगड़ालू बन जाता है, जब राजनीति बुरा बनाती है, तब मुर्दा होकर श्मशान-शक्ति अपनाती है।” ये बातें भी काफी महत्त्व की हैं। व्यवहार में भी ये बातें खरी उतरती हैं।

आज अपने देश में जो भी अव्यवस्था, अत्याचार, अशोभनीय कार्य हो रहे हैं उन सबकी जड़ में सिर्फ इतनी-सी ही बात है कि राजनीति को दुधारू बनाने के लिए चारे के रूप में धर्म का इस्तेमाल किया जा रहा है और धर्म को अंतर्राष्ट्रीय व्यापार बनाने के लिए संसदीय कार्य में हस्तक्षेप की वांछनीयता तीव्र हो गई है। धर्म के संबंध में अगर यह बात सच नहीं है तो धार्मिक संगठनों द्वारा भारतीय राजनीति में हस्तक्षेप की जरूरत कहां है। धर्म को राजनीति की रेल-पेल में धकेलकर धर्म-धुरंधरों ने अपनी शक्ति में निस्संदेह इजाफा करने की बात सोच रखी है। उसी तरह राजनीति वालों ने भी धार्मिकता के धुएं से मदहोश कर भारतीय मतदाताओं की संख्या लाभ उठाना चाहा है। आजकल दोनों तरह के काम बखूबी बेरोक-टोक हो रहे हैं। प्रकारांतर में इसका बुरा प्रभाव यह हो रहा है कि राजनीतिक पकड़ ढीली पड़ रही है। दोनों क्षेत्रों में ही घाटा ही घाटा है। देश की जनता भी बीच में कष्ट भोग रही है।

लूट, हत्या, आगजनी, राहजनी, अपहरण, बलात्कार, आतंकवादी गतिविधियां, अलगाववादी गतिविधियां तेज हो रही हैं। आदमी अपराध जगत का निरीह प्राणी बन गया है। धर्म और राजनीति से जुड़े हुए तथाकथित तमाम मार्गदर्शक शिकारी हैं और देश की जनता शिकार है। बड़ी से बड़ी योजनाएं-परियोजनाएं करोड़ों की होती हैं, तो हम किसी से कम नहीं, की तर्ज पर घोटाले भी करोड़ों के हैं। धार्मिक उन्नाद में हजारों एक साथ मारे जाते हैं। राजनीति प्रेरित की संख्या भी कम नहीं, जो अपने आकाओं के एक इशारे पर सैकड़ों की संख्या में मर कर दुर्लभ मानव जीवन गंवाते हैं। इस कार्य में न धर्माचार्य और न नेताजी ही हताहत होते हैं। ये हमेशा ही अपने चतुराई से बच जाते हैं।

धर्म और राजनीति की खिचड़ी अभी-अभी राजनीतिक संगठनों को स्वादिष्ट लगती है। अगर यह बात नहीं है तो हिंदुओं के धार्मिक संगठन को सांप्रदायिक करार देने वाले लोग उस सांप्रदायिकता की काट में घाटे कट्टर पंथी मुस्लिम संगठन का साथ हो जाने के लिए हाथ पकड़ लेते हैं-ऐसा क्यों? तब उनका निर्लज्जता पूर्ण तर्क है-विषस्य विषभौषधम्।

अतः पूरा भारत वर्ष धर्म और राजनीति के चारित्रिक पतन के कारण सांप्रदायिक रूप से विषाक्त हो गई है। धर्म और राजनीति का वैचारिक पतन हो रहा है। दोनों की मर्यादा खंडित हो रही है, दोनों की साख मर चुकी है। अब दोनों ही दोनों को क्षतिपूर्ति की आशा से पकड़े रहते हैं।

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