Hindi Essay on “Vigyan Aur Shiksha” , ”विज्ञान और शिक्षा” Complete Hindi Essay for Class 10, Class 12 and Graduation and other classes.
विज्ञान और शिक्षा
Vigyan Aur Shiksha
निबंध नंबर:- 01
आज जिस युग में हम मानव कहे जाने वाले प्राणी सांस ले रहे हैं, उसे मुख्य रूप से विज्ञान का युग कहा जाता है। शिक्षा मात्र आज का विषय न होकर मानव-जाति के साथ आरंभ से ही जुड़ा आ रहा विषय है और तब तक जुड़ा रहेगा, जब तक मानवता का अस्तित्व समाप्त नहीं हो जाता। आज के संदर्भों में कहा जा सकता है कि आधुनिक विज्ञान को भी शिक्षा का एक अनविार्य अंग बना देना चाहिए। कुछ प्राथमिक अंशों में ऐसा किया जा चुका या किया जा रहा है। यह एक अच्छी बात स्वीकारी जा सकती है।
यह भी एक ऐतिहासिक तथ्य है कि प्रत्येक युग में, युग की आवश्यकता और उपलब्धियों के अनुरूप विज्ञान शिक्षा का अंग हमेशा रहा है। भारत के संदर्भ में विगत डेढ़-दो हजार वर्षों के संघर्षों और पराधीनता के काल को यदि छोड़ दिया जाए, तो कहा जा सकता है कि यहां चिरंतन काल से विज्ञान की शिक्षा दी जाती रही है। पराप्राकृतिक विज्ञान, नक्षत्र-विज्ञान, रसायन गणित-यहां तक कि मारक शस्त्रास्त्रों के निर्माण में भी भारत के वैज्ञानिक हमेशा आगे रहे-विगत कई शताब्दियों का इतिहास इसका गवाह है। चरक, सुश्रूत, पाणिनि, आर्यभट्ट, आर्य मिहिर आदि ऐसे अनेक नाम गिनाए जा सकते हैं कि जिनकी उपलब्धियां आज के देशी-विदेशी सभी वैज्ञानिकों का भी पथ-प्रदर्शन कर रहीं या कर पाने में सक्षम हैं। अत: यह कहना युक्तिसंगत प्रतीत नहीं होता कि शिक्षा के क्षेत्र में वैज्ञानिक विषय केवल आधुनिक युग या पश्चिम की ही देन है। ऐसा कहना या मानना वास्तव में घटित सत्य से मुंह मोडऩा है।
जो हो, यहां हमारा मुख्य विचारणीय विषय यह है कि वर्षों की गुलामी ने हमारी शिक्षा-पद्धति को जो अवैज्ञानिक बना दिया, विज्ञान संबंधी विषयों को एक प्रकार से बहिष्कृत कर दिया-एक तो शिक्षा के क्षेत्र में उनकी पुनस्र्थापना होनी चाहिए, दूसरे जिस रूप में और जिस ढंग से शिक्षा दी जा रही है, वह भी बहुत कुछ अवैज्ञानिक हो चुका है, अत: उसे भी विज्ञान-सम्मत बनाया जाना चाहिए। ऐसा करके ही हम अपने देश में शिक्षा को समायानुकूल सार्थक और उपयोगी बना सकते हैं। आज शिक्षा को नए सांचे में ढालने का शोर चारों ओर सुनाई पड़ रहा है। उसमें वास्तविक नयापन वैज्ञानिक दृष्टि अपनाकर ही लाया जा सकता है, ऐसी हमारी दृढ़ धारणा है।
शिक्षा में वैज्ञानिकता लाने का यह अर्थ भी नहीं है कि प्रत्येक विद्यार्थी को भौतिकी या रसायन शास्त्र पढऩे के लिए बाध्य किया जाए। वास्तविक अर्थ यह है, हर विषय का पाठयक्रम ऐसा बनाया जाए कि वह व्यक्ति की समयानुकूल मानसिकता के विकास में सहायक हो सके। विशुद्ध विज्ञान ने आरंभ से लेकर आज तक मानवता के लिए जो उपलब्ध किया है, उस सबकी जानकारी शिक्षा के अंग रूप से हर शिक्षार्थी को इतनी अवश्य दी जाए कि वह उसके भले-बुरे स्वरूप एंव प्रभाव से परिचित हो सके। तात्पर्य यह है कि अध्ययन-अध्यापन चाहे साहित्य का कराया जाए चाहे इतिहास का, भूगोल का कराया जाए चाहे भौतिकी और पुरातत्व का, राजनीतिशास्त्र का कराया जाए चाहे अर्थशास्द्ध का-उस सबके पीछे वैज्ञानिक दृष्टि रहनी चाहिए। ऐसा होने पर ही शिक्षार्थी की दृष्टि को भी सहज वैज्ञानिक बनाया जा सकता है। ऐसी दृष्टि ही जीवन के हर क्षेत्र में आगे बढ़ पाने में सहायक हो सकती है। उससे जीवन और समाज के हर व्यक्ति का शुभ और कल्याण भी संभव हो सकता है।
सोचने की बात है कि कहने को तो हम आज के युग को बड़े गर्व और गौरव के साथ वैज्ञानिक युग कहते हैं पर क्या जीवन के प्रति हमारी दृष्टिकोण व्यवहार के स्तर पर वैज्ञानिक हो पाया है? शायद नहीं! यदि हो पाया होता, तो आज जो अनेक प्रकार के आयाचित वातावरण बन रहा है, विघटनकारी प्रवृतियां एंव तत्व उभर रहे हैं, पारस्परिक अविश्वास और संदेह का वातावरण बन रहा है, वह सब कभी नहीं बन पाता। इस प्रकार की समस्त दूषित प्रवृतियों और मारक मानसिकताओं की हीनता से छुटकारा पाने के लिए ही आज शिक्षा के क्षेत्र में अधिकाधिक वैज्ञानिक दृष्टि अपनाए जाने की आवश्यकता है। वैज्ञानिक दृष्टि अपनाकर ही शिक्षा को उपयोगी एंव सार्थक बनाया जा सकता है। हर विषय जब एक स्पष्ट, सहज वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक दृष्टि अपनाकर पढ़ाया जाएगा, तभी हमारी दृष्टि वस्तुत: समुन्नत बन सकेगी। तभ्ज्ञी हम वैज्ञानिक युग में रहने का सच्च गर्व और गौरव प्राप्त कर सकेंगे। ‘विज्ञान और शिक्षा’ के विचार-पक्ष की मूल पृष्ठभूमि यही रेखांकित की जा सकती है।
निबंध नंबर:- 02
शिक्षा और विज्ञान
शिक्षा का चरम लक्ष्य मानव-जाति और समाज का हर प्रकार से विवेक सम्मत राह पर चलना ही हुआ करता है। व्यक्ति के स्तर पर शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति के व्यक्तित्व का हर प्रकार से सम्पूर्ण विकास करना ही है। यदि शिक्षा व्यक्ति एवं समाज के विकास में इनके आचरण व्यवहार एवं जीवन मूल्यों में सन्तुलन करने का सार्थक प्रयास नहीं कर पाती, तो उसे उचित एवं सार्थक शिक्षा नहीं कही जा सकती। इस प्रकार विज्ञान का कार्य भी व्यक्ति और समाज के जीवन को विकास के नए-नए आयाम प्रदान कर उसे एक सुख- सुविधापूर्ण सन्तुलन प्रदान करना ही है। इसी प्रकार उसकी दृष्टि को व्यापक बनाना, मन- मस्तिष्क के बन्द पड़े या संकीर्ण द्वारों पे खुलापन लाना भी विज्ञान का ही एक कार्य है। इस तरह कहा जा सकता है कि शिक्षा हो या विज्ञान दोनों की सफलता-सार्थकता हित-साधन करने में ही है।
अब देखना यह है कि शिक्षा और विज्ञान में क्या कोई सीधा सम्बन्ध है भी या नहीं। फिर दोनों क्षेत्रों एवं विषयों में कोई सीधा सम्बन्ध स्थापित किया जा सकता है या नहीं? इन प्रश्नों पर दो तरह से विचार करना सम्भव हो सकता है। एक तो इस दृष्टि से कि शिक्षाक्रम में हर स्तर पर वैज्ञानिक विषयों का समावेश किया जाना चाहिए। दूसरे शब्दों में विज्ञान-सम्बन्धी विषय ही प्रमुख रूप से पढ़ाए जाने चाहिए, अन्य सभी विषय गौण या ऐच्छिक बना लिए जाएं। दूसरी विचारणीय दृष्टि यह हो सकती है कि अभी जो और जिस प्रकार की शिक्षा दी जा रही है, उसे वैज्ञानिक ढंग अपनाकर दी जाए ताकि पढ़ने-लिखने वालों में नवीन एवं आधुनिक दृष्टि का विकास सम्भव हो सके। आधुनिक ढंग से जीवन जीने की कला सभी को समान स्तर पर आ सके।
पहली दृष्टि यानि कि समूची शिक्षा, उसके सभी विषयों को बाद में देकर केवल विज्ञान-सम्बन्धी शिक्षा को ही लागू किया जाए, यह उचित प्रतीत नहीं होता। ऐसा करने से एक तो शिक्षा एकांकी होकर रह जाएगी, दूसरे उसमें सम्पूर्ण रूप से शुष्कता एवं नीरसता आ जाएगी। माम बौद्धिक बनने या बना दिए जाने से शिक्षा का अपना हृदय पक्ष एवं सहृदयता का अन्त हो जाएगा। फलस्वरूप पढ़ने वाले भी समग्रत हृदयहीन शुष्क एवं नीरस बनकर रह जाएंगे। जीवन में कोमलता, कोमल पक्षों और स्नेह-सम्बन्धों से पले रिश्ते-नातों का महत्त्व समाप्त हो जाएगा। दूसरे, केवल विज्ञान पढ़ एवं सीख लेने से जीवन का काम भी नहीं चल सकता। जीवन और उसके व्यवहारों को चलाने के लिए अन्यान्य विषयों की शिक्षा एवं जानकारी, उतनी ही आवश्यक है जितनी कि वैज्ञानिक विषयों की। सभी की शिक्षा को उचित एवं व्यावहारिक सन्तुलन देने से ही उसका अपना और जीवन का वास्तविक महत्त्व बना रह सकता है। तीसरे, हर रुचि कोरे ज्ञान-विज्ञान सम्बन्धी विषयों को पढ़ने में न तो हुआ ही करती है, और न संभव ही हो सकती है। शिक्षा का पढ़ने वालों की इच्छा एवं रुचियों के अनुसार होना ही उचित एवं सार्थक हुआ करता है। जीवन के साथ-साथ व्यक्तित्व का विकास भी तभी संभव हुआ करता है। प्रमुखतः इन तथा कई अन्य कारणों से भी शिक्षा को केवल वैज्ञानिक विषयों पर आधारित बनाना उचित प्रतीत नहीं होता।
अब दूसरी दृष्टि से विचार किया जाना चाहिए। वह यह कि समूची शिक्षा-पद्धति एवं पढ़ाए जाने वाले विषयों को पढ़ाते समय वैज्ञानिक जीवन-दृष्टि अपनाई जाए। हमारे अपने विचार से भी यह दृष्टि और धारणा उचित प्रतीत होती है। आज हम जिस युग जीवन में जी रहे हैं, उसमें वैज्ञानिक दृष्टि अपनाए बिना ठीक ढंग से जी पाना कतई संभव नहीं है। शिक्षा के द्वारा ही वैज्ञानिक दृष्टि एवं ढंग अपनाकर प्रत्येक विषय को पढ़ाने का तात्पर्य यही हो सकता है कि उन्हें पढ़ाते समय उनकी व्याख्या और विवेचना शाश्वत् एवं युगीन व्यवहारों के सन्दर्भों के साथ जोड़कर की जाए ताकि शिक्षा केवल किताबी ज्ञान न देकर व्यावहारिक ज्ञान का स्रोत बन सके। ऐसा होने पर ही एक पढ़ा-लिखा व्यक्ति स्वयं जीवन के जीवन्त सन्दर्भों के साथ जुड़कर जीवन को उचित दृष्टि से देख सकेगा। अन्यों को भी ऐसा सब करने के लिए प्रेरित कर सकेगा।
जीवन का हित साधन करने के लिए शिक्षा और विज्ञान दोनों हैं – यह एक निर्विवाद तथ्य है। यह भी निर्विवाद है कि इन दोनों की सफलता, सार्थकता युगानुरूप विचरण में ही है। आज का युग ही जब वैज्ञानिक कहलाने लगा तो, शिक्षा को भी अन्य सन्दर्भों की तरह उसके बाद देखकर कैसे रहा जा सकता है। फिर आज तो साहित्य तक के सृजन में वैज्ञानिक दृष्टि को अधिकाधि महत्त्व दिया जा रहा है। एक यही वह विषय है जिसको पढ़ाते समय वैज्ञानिक ढंग अपनाना कठिन प्रतीत हो सकता था, पर साहित्य-सृजकों ने स्वयं ही इस कठिनाई को दूर कर दिया है। अतः वैज्ञानिक दृष्टि से सही ढंग अपनाकर शिक्षा देने में अब किसी तरह की कहीं कोई बाधा नहीं रह गई है।
विज्ञान हो या शिक्षा, दोनों को सहयोगी बनाकर या मानकर इन दोनों की सफलता-सार्थकता तभी प्रमाणित की जा सकती है जब ये आधिकारिक तौर पर अधिकाधिक मानव-कल्याण करें। ऐसा करने के लिए शिक्षा को वैज्ञानिक, उसके माध्यम को वैज्ञानिक बनाना निश्चय ही आज की आवश्यकता है।