Hindi Essay on “Vidyarthi aur Rajniti”, “विद्यार्थी और राजनीति” Complete Hindi Nibandh for Class 10, Class 12 and Graduation and other classes.
विद्यार्थी और राजनीति
Vidyarthi aur Rajniti
निबंध नंबर :-01
‘विद्यार्थी’ का अर्थ है ‘विद्या का अर्थी’ अर्थात् विद्या की चाह चखने वाला। इस प्रकार विद्योपार्जन को ही मुख्य लक्ष्य बनाकर चलने वाला अध्येता विद्यार्थी कहलाता है। जिस प्रकार चर्मचक्षुओं के बिना मनुष्य अपने चारों ओर के स्थूल जगत् को नहीं ‘देख सकता, उसी प्रकार विद्या रूपी ज्ञानमय चक्षु के बिना बह अपने वास्तविक स्वरूप को भी नहीं पहचान सकता और अपने जीवन को सफल नहीं बना सकता। इसी कारण विद्याध्ययन का काल अत्यधिक पवित्र काम माना गया है; क्योंकि मानव अपने शारीरिक, बौद्धिक एवं आध्यात्मिक जीवन की सफलता की आधारशिला इसी समय रखता है। पर विद्याध्ययन एक तपस्या है और तपस्या बिना समाधि के, बिना चित की एकाग्रता के, सम्भव नहीं। इसलिए विद्यार्थी अन्तर्मुखी होकर ही विद्यार्जन कर सकता है। उधर राजनीति पूर्णतः बहिर्मुखी विषय है। तब, विद्यार्थी और राजनीति का परस्पर क्या सम्बन्ध हो सकता है? इस पर विचार अपेक्षित है। यह इसलिए और भी आवश्यक है कि आज राजनीति का राष्ट्रीय जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में इतना बोलबाला है कि कोई समझदार व्यक्ति चाहकर भी उसे किनारा नहीं कर सकता।
स्वतंत्रता से पहले हर व्यक्ति के मन में एक ही अभिलाषा थी, कि किसी भी प्रकार देश को विदेशी शासन से मुक्त कराया जाए। इसके लिए वयोवृद्ध नेताओं तक ने विद्याथियों से सहयोग की माँग की और सन् 1942 ई. के आन्दोलन में न जाने कितने होनहार युवक युवतियों ने विद्यालयों का बहिष्कार कर, क्रान्तिकारी बनकर देश के लिए असह्य यातनाएँ झेली और हँसते-हँसते अपने जीवन भारतमाता की बलिदेवी पर अर्पण कर दिये। वह एक असाधारण समय था, आपातकाल था,’ जिसमें उचित-अनुचित का विचार नहीं करना था। क्योंकि युवक ही किसी देश के भावी भाग्य विधाता होते हैं। वृद्धजन तो केवल दिशा-निर्देश दे सकते हैं! किन्तु उन उपदेशों को क्रियान्वित करने की क्षमता पौरुष सम्पन्न युवा में ही होती है।
जैसा कि कहा जा चुका है, कि मनुष्य का प्रारम्भिक जीवन ज्ञानार्जन का समय होता है जबकि वह अपनी शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक शक्तियों को अधिक-से-अधिक विकसित औरे पुरिपुष्ट कर अपने परिवार और समाज की सेवा के लिए स्वयं को तैयार करता है। इस समय विद्यार्थी विभिन्न विषयों का ज्ञान प्राप्त करता है। आज का विद्यार्थी कल का नागरिक और नेता होगा, परन्तु ध्यान देने योग्य बात यह है कि यह समय राजनीति तथा अन्य विषयों का ज्ञान प्राप्त करने का है, उन्हें प्रयोग करने का नहीं है।
सुयोग्य विद्यार्थी का कर्त्तव्य है कि वह अपने देश की सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर उसकी पूर्ति के लिए स्वयं को ढाले । आज हमारा देश अनेक बातों में विदेशी तकनीक पर निर्भर है! किसी स्वतंत्र देश के लिए यह स्थिति कदापि वांछनीय नहीं कही जा सकती। विद्यार्थी वैज्ञानिक, औद्योगिक एवं हस्तशिल्प आदि का उत्कृष्ट ज्ञान प्राप्त कर इस स्थिति को सुधार सकते हैं। इसी प्रकार समाज के सामने मुँह खोले खड़ी अनेक समस्याओं जैसे- अन्धविश्वास, रूढ़िग्रस्तता, अशिक्षा, महँगाई, भ्रष्टाचार, दहेज प्रथा आदि के उन्मूलन में भी वे अपना मूल्यवान योगदान कर सकते हैं।
अन्य विषयों के साथ विद्यार्थी को राजनीति का भी ज्ञान प्राप्त करना उचित है; क्योंकि वर्तमान युग में राजनीति जीवन के हर क्षेत्र पर छा गई है। यद्यपि यह स्थिति सुखद नहीं कहीं जा सकती, तथापि वास्तविकता से मुँह मोड़ना भी समझदारी नहीं है। साथ ही उसे संसार में प्रचलित विभिन्न राजनीति विचारधाराओं का गम्भीर तुलनात्मक अध्ययन करके उनके अपेक्षित गुणावगुण की परीक्षा करना तथा अपने देश की दृष्टि में उनमें से कौन-से विचार कल्याणकारी सिद्ध हो सकते हैं; इस पर गम्भीर चिन्तन-मनन करना वांछनीय है ।
लोकतंत्र में निर्वाचन प्रणाली द्वारा शासन तंत्र का संगठन होता है। लोकतंत्र में इस शासक दल का चुनाव जनता करती है, इसलिए जनता का विचार सुनिश्चित होना, अपने मत की शक्ति को पहचानना और देश के उज्ज्वल भविष्य के लिए अपने व्यक्तिगत स्वार्थ, लोभ, भय आदि को मन में स्थान न दे, देश के भावी कर्णधारों का चुनाव करना लोकतंत्र की सफलता का बीजमंत्र है। विद्यार्थियों को इस दिशा में शिक्षित करना चाहिए। ऐसा विद्यार्थी ही आगे चलकर अपने देश का सच्चा पथप्रदर्शक बन सकता है। इससे सिद्ध होता है कि विधार्जन का काल ज्ञान संचय का काल है, अर्जित ज्ञान को क्रियात्मक रूप देने का नहीं।
सक्रिय राजनीतिक में भाग लेने से विद्यार्थी को सबसे पहली हानि तो यही होती है कि उसका शैक्षणिक ज्ञान अधूरा रह जाता है अधकचरे ज्ञान को लेकर कोई व्यक्ति जनता को योग्य दिशा नहीं दे सकता। छात्रावस्था भोलेपन, आदर्शवाद और भावुकता की होती है, उस समय व्यक्ति में जोश तो होता है, पर होश नहीं होता। जिस दिन वह राजनीति में भाग लेना चाहे उसी दिन उसे कॉलेज छोड़ देना चाहिए। अनेक विद्यार्थी ऐसे हैं-जो विभिन्न राजनीतिक दलों के नेतागण अपने क्षुद्र दलगत स्वार्थों की सिद्धि के लिए विद्यार्थी समाज का दुरुपयोग करते हैं, इनको पथभ्रष्ट कर उनका भयंकर शोषण करते हैं-उनके मोहक जाल में फँस जाते हैं। वे उनको भांति-भांति के प्रलोभन देकर, उनके उज्ज्वल भविष्य का आश्वासन देकर, उन्हें आन्दोलन में कूद पड़ने को प्रेरित करते हैं, जिसका अर्थ होता है हड़ताल, प्रदर्शन, नारेबाजी, हुल्लहड़बाजी तोड़-फोड़ आदि विध्वंसात्मक कार्यवाहियों द्वारा राष्ट्रीय सम्पत्ति का विनाश और अपने विरोधी की अमर्यादित छीछालेदार। इन ओछे हथकण्डों को अपनाने से विद्यार्थी अपने ऊँचे, आदर्श से गिरकर धीरे-धीरे अपना मनोबल गिरा लेते हैं। इन भ्रष्ट राजनीतिज्ञों के चक्कर में फँसकर विद्यार्थी को नेता बनने का चस्का लग जाता है, जिसका अर्थ होता है मुफ्तखोरी की आदत, इसको उसको आपस में लड़ाकर, अपना उल्लू सीधा करना, दूसरों को उनका काम करने का झूठा आश्वासन देकर उन्हें लूटना, दिन-भर इधर-उधर मारे-मारे फिरकर स्थार्थ सिद्धि की टोह लेते रहना, दूसरों की चमचागीरी करना, स्वयं अपनी चमचागीरी कराना आदि। इस प्रकार न केवल विद्यार्थी का जीवन नष्ट हो जाता है, अपितु राष्ट्र को भी अपूरणीय क्षति पहुँचती है; क्योंकि वह अपने एक अत्यधिक उपयोगी घटक की क्षमताओं का अपने विकास के लिए उपयोग की बजाय, अपने हित के विरुद्ध प्रयोग होते देखता है।
अतः विद्यार्थी और राष्ट्र दोनों का हित इसी में है कि विद्यार्थी सच्चे अर्थों में विद्या का अर्थी ही बना रहकर अपने सर्वांगीण विकास द्वारा अपनी और राष्ट्र की सेवाओं के लिए स्वयं को तैयार करे।
सारांश यह है कि विद्यार्थी का मुख्य कार्य विद्यार्जन द्वारा अपने भावी जीवन, व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक और राष्ट्रीय मनोरथ को सफल बनाने की तैयारी करना है। वर्तमान युग में राजनीति के व्यापक प्रभाव को देखते हुए विद्यार्थी को उसका भी विभिन्न कोणों से गहरा सैद्धान्तिक ज्ञान प्राप्त करना उचित है, पर क्रियात्मक राजनीति से दूर रहने में ही उसका और राष्ट्र का कल्याण है।
निबंध नंबर :-02
विद्यार्थी और राजनीति
प्रस्तावना
एक विद्वान् ने लिखा है कि राजनीति एक वरवधू (वेश्या) है, जो समय पर किसी को अपना पति बना सकती है। यह कथन सर्वथा सत्य है। किसी समय श्री जवाहरलाल नेहरू, श्री चर्चिल की दृष्टि में अपराधी और कैदी थे, एक दिन वही चर्चिल के घर में अतिथि बनकर सम्मान पा रहे थे। रूस के कई उच्च अधिकारी एक दिन कोर्ट मार्शल कर दिये जाते हैं। खुश्चेव को ही देख लीजिये। एक दिन रूस उनके इंगित पर नाचता । था और आज समाचारपत्रों में उनका नाम भी नहीं। यह सब क्या है? राजनीति रूपी राक्षसी का माया-जाल ही तो है। ऐसी पिशाचिनी की। छाया भी छात्रों पर न पड़े, यही प्रत्येक सविचारक चाहता है।
राजनीति का ज्ञान, समय और स्थिति
विद्यार्थियों को राजनीति का ज्ञान सक्रिय राजनीति से दूर रहकर भी कराया जा सकता है। साँप से कटवा कर किसी को सर्पदंश की चिकित्सा सिखाना क्या बुद्धिमानी है ? किसी के पेट का ऑपरेशन कर, उसे शल्यचिकित्सा सिखाना क्या पाण्डित्य है ? किसी को विष खिलाकर विष का ज्ञान कराना क्या योग्यता ?
जब कौरव और चारों पाण्डव लक्ष्य-भेद न कर सके, तो द्रोणाचार्य ने अर्जुन से पूछा, “बेटे ! तुम्हें क्या दिखाई देता है ?” अर्जुन बोला, “गुरुदेव ! मुझे वह लक्ष्य मात्र दिखाई देता है, जिसे मुझे भेदना है।” गुरुदेव ने कहा, “तुम धन्य हो, तुम सफल हो जाओगे।” अर्जुन वास्तव में सफल हुआ। यही निर्देशन प्रत्येक छात्र के लिये श्रेयष्कर है। छात्र का लक्ष्य इस समय विद्याभ्यास है। राजनीति रूपी डायन के पल्ले पड्कर छात्र का जीवन इस प्रकार बर्बाद हो जाता जैसे कंटीली झाड़ियों के बीच में खड़े हुए केले के पत्ते जर्जर हो जाते हैं।
माना कि विद्यार्थी कल के नेता हैं, राजनीति के ज्ञान बिना वे क्या नेतृत्व करेंगे; परन्तु सोचिये कि महात्मा गाँधी ने बचपन में कौन-सी राजनीति सीखी थी ? तिलक, गोखले और चितरंजन को किसने राजनीति सिखाई थी, सच बात तो यह है कि जीवन का कार्य क्षेत्र स्वयं राजनीति सिखा देता है। विद्यार्थी की राजनीति तो विद्याभ्यास ही है और विद्यालय ही उसका वर्तमान कार्य क्षेत्र है। ये कोमल छात्र कुम्हड़बत्तियाँ (कोमल फल) हैं, इन्हें राजनीति की तर्जनी मत दिखाओ। ये पक्षी के छोटे बच्चे सभी पंखहीन हैं, ये अभी नीड (घोंसले) में ही रहने योग्य हैं। इन्हें राजनीति के उन्मुक्त आकाश में उड़ाने का प्रयत्न न करो। कोई हिंसक बाज इन्हें निगल जायेगा। राजनीति की दहकती हुई आग में, इधर मत आना, । यहाँ विश्व के रत्न सुरक्षित हैं। तेरा ताप पाते ही ये खण्डित हो जाएँगे।
यथार्थ में ही इस साधना के समय छात्र को ज्ञान के अथाह सागर में अवगाहन करने दो। राजनीति का बाल्टी भर पानी तो इन्हें फिर भी मिल जायेगा।
राजनीति सिखाने का अर्थ
विद्यार्थी को प्रारम्भ से ही राजनीति सिखाने का अर्थ है कि गाय के बछड़े को. जन्म लेते ही हल में जोड़ देना। अन्न के अंकुरों का ही आटा पीसने का मूर्खतामय प्रयत्न कौन करेगा ? राजनीति का कुछ सक्रिय ज्ञान महाविद्यालय के छात्रों के लिये अपेक्षित हो सकता है; परन्तु वह भी सीमित मात्रा में ही।
हाँ ! पंचतन्त्र और हितोपदेश आदि कहानी ग्रन्थों से राजनीति का कुछ ज्ञान करा सकते हैं। वह भी विष्णु शर्मा ने राजपुत्रों को राजनीति सिखाई थी, साधारण छात्रों को नहीं।
विद्यार्थी और राजनीति के बीच समस्या
विद्यार्थी और राजनीति की जब बात की जाती है, तो यह सबसे बड़ी समस्या होती है कि विद्यार्थी को राजनीति से कैसे दूर रखा जाए। हमारे देश में तो विद्यार्थी को राजनीति में फंसाया जाता है। विभिन्न राजनैतिक दलों में नेता अपनी स्वार्थ-सिद्धि करने के लिये विद्यार्थियों के कंधे पर बन्दूक रखते हैं। कोई भी राजनैतिक पार्टी इस कलंक से अछूती नहीं है।
वस्तुत: विद्यार्थी को राजनीति का ज्ञान होना चाहिए और उसे सिद्धान्त रूप से वह सब कुछ जानना चाहिए जो राजकीय जीवन में हो सकता है। इसके लिये उसे राजनीतिशास्त्र का विद्यार्थी होना चाहिए; लेकिन यह बात भी ध्यान रखनी चाहिए कि विद्यार्थी राजनीति में सक्रिय भाग न लें। इससे उनका मूल उद्देश्य शिक्षा प्राप्ति पूरा नहीं होगा।
उपसंहार
प्रत्येक बुद्धिमान् व्यक्ति ने इस बात पर विशेष बल दिया है कि राजनीति में विद्यार्थी का योग नहीं होना चाहिये अर्थात् यदि निष्पक्ष दृष्टि से विचार किया जाए, तो राजनीति से विद्यार्थी दूर ही रहकर विद्याध्ययन कर सकता है। यहाँ तक एक बात यह कहनी उचित होगी कि जब से स्वतन्त्रता मिली है भारत का विद्यार्थी कुछ अधिक राजनीति में भाग लेने लगा है। वह अपने मूल कर्त्तव्य को भूल कर तोड़-फोड और हड़तालों में लग जाता है। विद्यार्थियों की आवश्यकताएँ पूरी हों इस पर दो मत नहीं ; पर उनको पूरा करने का एक उचित रूप होना चाहिए। अन्त में निष्कर्ष रूप से यही कहा जा सकता है कि विद्यार्थी को सक्रिय राजनीति में नहीं आना चाहिये।
निबंध नंबर :-03
विद्यार्थी और राजनीति
Vidyarthi aur Rajniti
भूमिका—संसार में सभी वस्तुओं में विद्या ही सर्वश्रेष्ठ है। इसी विद्या को चाहने वाले को ही विद्यार्थी कहते हैं विद्यार्थी जीवन में ही विद्यार्थी का सर्वांगीण विकास होता है क्योंकि शरीर और मन के विकास का दूसरा नाम ही शिक्षा है।
शिक्षा प्राप्त करने के उद्देश्य से विद्यार्थी स्कुल, कालेज अथवा विश्वविद्यालय में प्रवेश करते हैं। अब प्रश्न यह उठता है कि क्या विद्यार्थीकाल में केवल विद्या ही ग्रहण करनी चाहिए अथवा इसके साथ-साथ उसे राजनीति में भी भाग लेना चाहिए? क्या एक विद्यार्थी का राजनीति में भाग लेना उचित है या अनुचित ?
वास्तव में राष्ट्र के निर्माण में विद्यार्थियों की भूमिका बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। केवल वही देश प्रगति के पथ पर अग्रसर होता है जिस की युवाशक्ति या विद्यार्थी अपनी क्षमता का एक-एक कण देश की प्रगति के लिए दाँव पर लगाता है। जीवन के भोग विषयों को त्याग कर, केवल राष्ट्र हित साधक, स्वार्थशून्य भाव भरकर यह राष्ट्रोत्थान कार्य सफल करने का साहस केवल विद्यार्थी वर्ग ही कर सकता है।
स्वाधीनता आन्दोलन के समय में भी विद्यार्थियों ने बढ़ चढ़ कर सक्रिय राजनीति में भाग लिया। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के आह्वान पर असंख्य विद्यार्थियों ने अपनी कालेज की पढ़ाई छोड़कर देश के स्वतन्त्रता आन्दोलन में भाग लिया। भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू आदि विद्यार्थी काल में ही क्रान्तिकारी बने। 1942 में जब ‘अंग्रेजो भारत छोड़ो’ का नारा सारे देश में गुंजायमान हुआ विद्यार्थियों ने इस में बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया। कितने ही विद्यार्थी स्वतन्त्रता की बलिवेदी पर अपने आपको न्यौछावर करने के लिए तैयार थे। उस समय सभी के हृदयों में एक ही भावना काम कर रही थी कि हमने हर कीमत पर देश को अंग्रेज़ो की गुलामी से मुक्त करवाना है।
आज का विद्यार्थी कालेज में केवल राजनीति-शास्त्र का अध्ययन ही नहीं करता, बल्कि राजनीति के क्षेत्र में पूरी तरह से खुलकर भाग भी लेने लग पड़ा है। आजकल विद्यार्थी और राजनीति में गहरा सम्बन्ध भी स्थापित हो गया है। स्कलों. कालेजों में राजनीतिकों ने अपने अपने दलों के दल विद्यार्थी नेताओं में भी बना लिए है। यह राजनीति खुलकर तब सामने आती है जब कालेजों या विश्वविद्यालयों में विद्यार्थी नेताओं के चुनाव होते हैं। विश्वविद्यालयों में तो राजनीति इतनी प्रवेश कर चुकी है कि विद्यार्थी अपनी इच्छानुसार परीक्षाएँ देते हैं और हड़तालें करवा देते हैं। राजनीति की दलदल में फंसकर विद्यार्थी अपने लक्ष्य से भटक जाते हैं और अपनी शिक्षा को बीच में ही छोड़ देते हैं।
अब प्रश्न यह उठता है कि क्या विद्यार्थियों को राजनीति में प्रवेश लेना या नहीं? यदि विद्यार्थियों को राजनीति में प्रवेश लेना चाहिए तो क्यों और यति तो क्यों नहीं?
राजनीति में प्रवेश से लाभ– (i) राजनीति में प्रवेश करने पर विद्यार्थियों में राजनैतिक चेतना पैदा होती है। यह राजनैतिक चेतना स्वतन्त्र राष्ट्र के लिए तथा के नागरिकों का एक आवश्यक गुण है। किसी भी देश का विद्यार्थी जितना राजनैतिक रूप से सजग होगा, उतना ही वह राष्ट्र प्रगति के मार्ग पर अग्रसर होगा। वि में जितनी भी क्रान्तियाँ हुई हैं उन सबके पीछे विद्यार्थी वर्ग का ही हाथ था।
ii) छात्रों में नेतृत्व शक्ति का विकास होता है। छात्रों में सही नेतृत्व विकसित होने से अनुयायियों को सही मार्ग प्रदर्शन कर देश की उन्नति में योगदान दे सकते हैं।
iii) छात्रों में राजनीति के प्रवेश से राजनेताओं में एक भय सा पैदा हो जाता । वह भ्रष्टाचार और अनाचार जैसे दुष्कृत्यों को छोड़कर सही कार्य करते हैं।
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि विद्यार्थियों को राजनीति में प्रवेश लेना चाहिए ताकि नवयुवकों के नेतृत्व में राष्ट्र अधिक उन्नति कर सके।
राजनीति में प्रवेश से हानियाँ-(i) विद्यार्थी जब सक्रिय राजनीति में प्रवेश कर लेता है तो वह अपने वास्तविक उद्देश्य अर्थात् विद्याध्ययन से विमुख हो जाता है। विद्यार्थीकाल ही ऐसा काल है जिसमें विद्या प्राप्त की जा सकती है।
(ii) विद्यार्थी जीवन कच्चे घड़े के समान होता है और राजनीतिक दल इस बात का लाभ उठाकर, विद्यार्थी उनकी चिकनी-चुपड़ी बातों में आकर दलगत राजनीति में फंस जाते हैं जोकि देश की प्रगति में बाधक बनता है क्योंकि विद्यार्थी का दृष्टिकोण बहुत ही सीमित होकर रह जाता है।
(ii) राजनीति में प्रवेश के बाद कई बार इतने अनुशासनहीन एवं उश्रृंखल हो जाते हैं कि वे विवेकहीन होकर राष्ट्रीय सम्पत्ति को नुक्सान पहुँचाने में भी नहीं हिचकिचाते।
अतः कहा जा सकता है कि आज के विद्यार्थी ही कल के नेता हैं। वही इस राष्ट्रक आधार स्तम्भ हैं। इसलिए राष्ट्र स्तम्भ जितना मज़बूत होगा, उतना ही हमारा राष्ट्र मज़बूत होगा। यदि उसमें थोड़ी सी भी कमज़ोरी हुई तो सम्पूर्ण राष्ट्र मान्दर ढह जाएगा। इसलिए विद्यार्थी अति उत्तम होने चाहिएं तभी वे अपने कन्धों पर राष्ट्र-मन्दिर को सुरक्षित रख पाएँगे।