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Hindi Essay on “Shiksha Ka Madhyam” , ”शिक्षा का माध्यम” Complete Hindi Essay for Class 10, Class 12 and Graduation and other classes.

शिक्षा का माध्यम

Shiksha Ka Madhyam

माध्यम का अर्थ होता है वह साधन या ढंग, जिसको अपनाकर कोई व्यक्ति या हम कुछ ग्रहण करते हैं। शिक्षा के माध्यम पर विचार करने से पहले उसका उद्देश्य जान लेना आवश्यक है। मनुष्य की सोई और गुप्त शक्तियों को जगाना, उन्हें सही दिशा में प्रयुक्त कर सकने की क्षमता प्रदान करना ही शिक्षा का वास्तविक उद्देश्य और महत्व हुआ करता है। अपने इस महत्वपूर्ण उद्देय की पूर्ति किसी देश की कोई शिक्षा-पद्धति तभी सफलतापूर्वक कर सकती है, जब वह उस माध्यम या भाषा में दी जाए जिसे शिक्षार्थी भली प्रकार से समझ-बूझ सकता है-जो उसे अपरिचित और कठिन न लगे और जो उसकी अपनी परिस्थितियों के सर्वथ अनूकूल हो। स्वतंत्र भारत में शिक्षार्थी का यह दुर्भाज्य ही कहा जाएगा कि एक तो यहां शिक्षा-पद्धति वही पुरानी, पराधीन मानसिकता की परिचायक, गुलाम मनोवृति वाले मुंशी और क्लर्क पैदा करने वाली चालू हैं, दूसरी तरफ उसे प्रदान करने का तभी तक सर्वसुलभ माध्यम भी नहीं अपनाया जा सका। परिणामस्वरूप हमारी समूची शिक्षा-पद्धति और उसका ढांचा एक खिलवाड़ बनकर रह गया है। इस खिलवाड़ को मिटाने के लिए यह आवश्यक है कि समूची शिक्षा-पद्धति को बदलकर उसे प्रदान करने का कोई एक सार्वदेशिक माध्यम भी निश्चित-निर्धारित किया जाए। ऐसा करके ही शिक्षा, शिक्षार्थी और राष्ट्र का भला संभव हो सकता है।

इस देश में शिक्षा का माध्यम क्या होना चाहिए, इस प्रश्न पर सामान्य और उच्च स्तरों पर कई बार विचार हो चुका है। पर संकल्प शक्ति के अभाव में आज तक हमारी शिक्षाशास्त्री, नेता और सरकार किसी अंतिम निर्णय तक नहीं पहुंच सके। भिन्न प्रकार के विचार अवश्य सामने आए हैं। एक मुख्य विचार यह आया कि आरंभ से अंत तक शिक्षा का माध्यम तथाकथित अंतर्राष्ट्रीय भाष अंग्रेजी ही रहना चाहिए। पर इस विचार को एक तो मानसिक गुलामी का परिचायक कहा जा सकता है, दूसरे इस देश की आम जनता के लिए ऐसा हो पाना संभव और व्यावहारिक भी नहीं है। सामान्य एंव स्वतंत्र राष्ट्र के गौरव की दृष्टि से भी यह उचित नहीं। दूसरा विचार यह है कि अन्य सभी स्वतंत्र राष्ट्रों के समान क्यों न हम भी अपनी संविधान-स्वीकृत राष्ट्रभाषा को ही शिक्षा का माध्यम बनांए। लेकिन इस विचार के रास्ते में निहित स्वार्थों वाले राजनीतिज्ञ उत्तर-दक्षिण का प्रश्न उठा, हिंदी में तकनीकी और ज्ञान-विज्ञान के विषयों से संबंधित पुस्तकों के अभाव की बातें कहकर रोड़े अटकाए हुए हैं। इसे हमारी शिक्षा-पद्धति और उससे जुड़े अधिकांश शिक्षार्थियों का दुर्भाज्य ही कहा जाएगा। अन्य कुछ नहीं।

उपर्युक्त मतों के अतिरिक्त एक मत यह भी सामने आया है कि प्रारंभिक शिक्षा तो प्रदेश विशेष की प्रमुख मातृभाषा में ही हो। उसके बाद पांचवीं-छठी कक्षा से राष्ट्रभाषा और अंग्रेजी का अध्ययन-अध्यापन भी आरंभ कर दिया जाए। यह क्रम उच्चतर माध्यमिक शिक्षा तक चलता रहे। उसके बाद उच्च शिक्षा के लिए राष्ट्रभाषा या कोई भी एक भाषा माध्यम के रूप में स्वीकार कर उसी में शिक्षा दी जाए। प्रश्न यह उठता है कि वह भाषा कौन सी हो? निश्चय ही वह विदेशी भाषा अंग्रेजी नहीं, बल्कि राष्ट्रभाषा हिंदी ही हो सकती है।

इस प्रकार यह विचार भी सामने आ चुका है कि देश को भाषा के आधार पर कुछ विशेष संभागों में बांटकर एक विशिष्ट और प्रचलित संभागीय भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाया जाए। पर इस प्रकार करने से व्यावहारिक स्तर की कई कठिनाइयां हैं। सबसे बड़ी बाधा तो यह है कि तब विशेष प्रतिभाओं का उपयोग साार्वदेशिक स्तर पर न होकर मात्र संभागीय स्तर तक ही सीमित होकर रह जाएगा। दूसरी कठिनाई किसी एक संभागीय भाषा विशेष के चुनाव की भी है। सभी अपनी-अपनी भाषा पर बल देंगे। तब एक संभाग भी भाषाई झगड़ों का अखाड़ा बनकर रह जाएगा। अत: यह विचार भी व्यावहारिक नहीं कहा जा सकता। ऐसा करके भाषा के आधार पर प्रांतों का और विभाजन कतई संगत नहीं हो सकता।

हमारे विचार में शिक्षा की माध्यम-भाषा का जनतंत्री प्रक्रिया से ही निर्णय संभव हो सकता है। जनतंत्र में बहुमत का निर्णय माना जाता है। अत: देखा  यह जाना चाहिए कि संविधान-स्वीकृत पंद्रह-सोलह भाषाओं में से सर्वाधिम क्षेत्र किसी भाषा का है, कौन-सी ऐसी भाषा है जिसे राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सबसे अधिक पढ़ा-लिखा, उसके बाद बोला और अंत में काम चलाने केलिए समझा जाता है। जनतंत्र की इस बहुमत वाली प्रणाली को अपनाकर शिक्षा की माध्यम-भाषा का निर्णय सरलता से किया जा सकता है। इसके लिए क्षेत्रीय भाषाओं तथा अन्य स्वार्थों के त्याग की बहुत आवश्यकता है और आवश्यकता है राष्ट्रीय एकत्व की उदात्त भावना की। इसके अभाव में निर्णय कतई संभव नहीं हो सकता। यदि अब भी हम शिक्षा के सारे देश के लिए एक माध्यम स्वीकार कर उसकी व्यवस्था में नहीं जुट जाते, तो चालू पद्धति और समूची शिक्षा अंत में अपनी वर्तमान औपचारिक स्थिति से भी हाथ धो बैठेगी। अत: प्राथमिकता के आधार पर अब इस बात का निर्णय हो ही जाना चाहिए कि शिक्षा का सर्वाधिक उचित माध्यम क्या हो सकता है। स्वंय शिक्षा और उसके साथ भारतीय समाज एंव राष्ट्र का वास्तविक भला तभी संभव हो सकेगा। अन्य कोई उपाय नहीं। इस ज्वलंत समस्या से आंखे चुराए रहने के कारण देश का बहुत अहित हो चुका है और निरंतर हो रहा है। परंतु अब अधिक नहीं होना चाहिए।

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