Hindi Essay on “Sahitya Samaj ka Daran hai” , ”साहित्य समाज का दर्पण है” Complete Hindi Essay for Class 10, Class 12 and Graduation and other classes.
साहित्य समाज का दर्पण है
अथवा
साहित्य समाज का दर्पण ही नहीं मार्गदर्शक भी है
साहित्य का रचयिता साहित्यकार कहलाता है। साहित्यकार मस्तिष्क, बुद्धि और हदय से सम्पन्न प्राणी है। वह समाज से अलग हो ही नहीं सकता, क्योंकि उसकी अनुभूति का संपूर्ण विषय समाज, उसकी समस्याएँ, मानव जीवन और जीवन के मूल्य हैं, जिनमें वह साँस लेता है। जब कभी उसे घुटन की अनुभुूति होती है उसकी अभिव्यक्ति साहित्य के रूप में प्रकट हो जाती है। समाज में उसका यह रिश्ता उसे साहित्य सृजन की प्रेरणा देता है और तभी उसके साहित्य को समाज स्वीकार भी करता है।
सामाजिक प्रभाव और दवाब की उपेक्षा कर साहित्यकार एक कदम भी आगे नहीं चल सकता और यदि चलता भी है तो आवश्यक नहीं कि साहित्य पर समाज का यह प्रभाव सदैव अनुकूल हो, वह प्रतिकूल भी हो सकता है। कबीर की सखियों तथा प्रेमचंद के कथा साहित्य के अध्ययन से यही बात स्पष्ट होती है। कबीर ने अपने समय के धार्मिक बाह्याडंबरो, सामाजिक कृप्रवत्तियों, रूढ़ियांे एवं खोखली मान्यताओं के विरोध में अपना स्वर बुलंद किया। निराला के साहित्य में ही नहीं उनके व्यक्तिगत जीवन में भी संघर्ष बराबर बना रहा। प्रेमचंद की कहानियांे और उपन्यासांे में सर्वत्र किसी न किसी सामाजिक समस्या के प्रति उनकी गहरी संवेदना दिखाइ देती है, परन्तु साहित्यकार अपने युग तथा समाज के प्रभाव से अपने को अलग रखना भी चाहे तो कदापि नहीं रख सकता।
साहित्य समाज का दर्पण होता है, किन्तु इस कथन का यह आशय है नहीं कि साहित्यकार समाज का फोटोग्राफर है और सामाजिक विद्रुपताओं, कमियों, दोषों, अंधविश्वासों और मान्यताओं का यथार्थ चित्रण करना उसका उद्देशय होता है। साहित्यकार का दायित्व वस्तुस्थिति का यथातथ्य चित्रण मात्र प्रस्तुत कर देना ही नहीं, उनके कारणों का विवेचन करते हुए श्रेयस मार्ग की ओर तक ले जाना है। साहित्य युग और समाज का होकर भी युगांतकारी जीवन मूल्यों की प्रतिष्ठा कर सुंदरतम समाज का जो भी रूप हो सकता है, उसका भी एक रेखाचित्र प्रस्तुत करता है। उसमें रंग भर कर जीवतंता प्रदान कर देना पाठकों एवं सामाजिकों का कार्य होता है। इस प्रकार जीवन के शाश्वत मूल्यों की प्रतिष्ठा करने के कारण साहित्यकार एक देशीय होकर भी सार्वदेशिक होता है।
श् ज्ञान-राशि के संचित कोश का नाम साहित्य है।श् महावीर प्रसाद द्विवेदी के इस कथन से भी यही बात स्पष्ट होती है कि किसी भी देश, जाति अथवा समाज की सभ्यता और संस्कृति का स्पष्ट चित्रण उसका साहित्य है। प्रत्येक युग का उत्त्म और श्रेष्ठ साहित्य अपने प्रगतिशील विचारों, रचनात्मक संस्कारांे एंव भावात्मक संवेदनाओं को एक स्वरूप प्रदान करता है, उनको भली-भाँति सफलतापूर्वक वहन करता है।
साहित्य का प्रसाद समाज की पृष्ठिभूमि पर ही प्रतिष्ठित होता है। जिस काल में जिस जाति की जैसी सामाजिक परिस्थितियाँ होगी, उसका साहित्य भी निःसंदेह वैसा ही होगा। हिन्दी साहित्य के संदर्भ में यह तथ्य देखा जा सकता है। आदिकाल, जिसे हम वीरगाथा काल भी कहते है, एक प्रकार से युद्व काल था। इस युग का साहित्य युद्धों और आशयदाताओं की प्रशस्तियों से अनुप्राणित होता है। इस काल के साहित्य में वीर और श्रंृगार रस ही प्रमुखता प्राप्त कर सके और चारण कवियों का प्राधान्य बना रहा।
फिर मध्यकाल का भक्ति आदोलन प्रकट हो सामने आया और इस युग में कबीर, सूर, तुलसी और जायसी जैसे कवियों को जन्म दिया।
मध्यकालीन सामंतीय समाज रीतिकालीन कवियों को सामने लेकर आया, जिसमें राधा और कृष्ण का पवित्र स्वरूप विकृत हो उठा, लेकिन कुछ अपवाद भी मौजूद हैं। बिहारी की एक अन्योक्ति ने नवोढ़ा रानी से प्रेम मे आबद्व महाराज जयसिंह के मन को परिवर्तित कर दिया, उनकी मोह-मूच्र्छा को तोड़ दिया।
साहित्यकार समाज का द्रष्टा और सृष्टा है। वह जो कुछ देखता है, सुनता है, उसी को ध्यान में रखकर साहित्य की रचना करता है। आचार्य हजारीप्रसाद दिवेद्वी जी के शब्दों में श्साहित्य केवल बु़ि़़द्ध-विलास नहीं है। यह जीवन की वास्तविकता की उपेक्षा करके जीवित नहीं रह सकता। श् इसलिए समाज में होने वाली घटनाओं का प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से साहित्य पर भी प्रभाव अवश्य पड़ता है।