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Hindi Essay on “Sab Din Jaat na Ek Saman” , ”सब दिन जात न एक समाना” Complete Hindi Essay for Class 10, Class 12 and Graduation and other classes.

सब दिन जात न एक समाना

Sab Din Jaat na Ek Saman

 

समय परिवर्तनशील है, यह कठोर सत्य है। समय हमेशा एकसा नहीं रहता। इसके सहस्रों उदाहरण वर्तमान हैं। समय-समय पर समाज में अनेक प्रकार के परिवर्तन हए। ये परिवर्तन ही इस उक्ति के द्योतक हैं। इतिहास इस बात का साक्षी है कि ‘मन दिन जात न एक समाना’ । उदाहरणताः भारत का वैभव सूर्य कभी विश्व-गगन में पूर्ण तेज के साथ दैदीप्यमान था। इसकी वीरता, विद्या, कला सबका सिक्का विश्व पर जमा था। आज विश्व के अनेक राष्ट्र राजनैतिक दृष्टि से पूर्ण विकसित हैं। इस स्वतन्त्र भारत में आजकल तो आतंक व महंगाई के युग में पूर्ण स्वतन्त्रता के दर्शन हो रहे हैं। अंग्रेजों के राज्य में कभी सूर्य अस्त नहीं होता था। सात समुद्र पार तक उनकी पूर्ण शासन व्यवस्था थी, परन्तु आज उनका भाग्य वैभव लुप्त हो गया। जापान तथा जर्मनी दोनों ही राष्ट्र कुछ समय पूर्व अविकसित और निर्धन देश थे, आज वे संसार के सर्वोच्च राष्ट्र हैं।

समय-समय पर संसार में अनेक धार्मिक एवं सामाजिक परिवर्तन होते हैं। जो सिद्धान्त कभी किसी समय निकृष्ट माने जाते हैं, वही कभी समय पाकर आदर्श रूप ग्रहण कर लेते हैं। कभी आदर्श निकृष्ट बन जाता है। आश्रम’ तथा ‘वर्ण’ जो कभी आदर्श थे आज अभिशाप बन गये। आज हमारी दशा ‘त्रिशंकु के समान हो रही है। आज हम पश्चिम की संस्कृति को भी पूर्णतः अपना नहीं सकते; क्योंकि हम इस योग्य हैं, ही नहीं, दूसरी ओर हम अपनी भारतीय शिक्षा व दर्शन को हेय दृष्टि से देखकर त्याग सकते हैं। अभी हमारी स्थिति–‘धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का है।

सुख-दुःख दोनों सृष्टि के परिवर्तन चक्र हैं। आज एक क्षण को जो सुखी दिखाई देता है, वही कल को दुःखी दृष्टिगोचर होता है और जो आज दःखी है, वही कल को सुखी जीवन व्यतीत करता दिखाई पड़ता है।

विश्व परिवर्तनशील है और वास्तव में परिवर्तन ही जीवन है। यदि सभी दिन एक समान रहें तो सृष्टि में निराशा का साम्राज्य छा जाये। यदि ऐश्वर्यशाली सदा अपनी स्थिति में रहें और दीन-दुःखी अपनी स्थिति में, तो विश्व में पाप ही अधिक हों। उनमें अराजकता, अत्याचार तथा अन्याय की भावना आ जायेगी। यदि दुःखी तथा निर्धन मानव यह सोच ले कि मैं तो सदा ऐसा ही दुःखी तथा निर्धन बना रहूँगा, तो फिर उसमें आशा समाप्त हो जायेगी और वह आलसी बन जाएगा। परिश्रमी दुःख के दिरों को भी अपने पुरुषार्थ एवं परिश्रम से सुख के दिनों में बदल देता है।

सुख-दुःख दोनों ही वस्तुएँ प्रत्येक प्राणी के हिस्से में विधाता ने लिखी हैं। हाँ कभी दुःख पहले तो सुख पीछे, कभी सुख पहले तो दुःख बाद में। अतः सुख पाने वाले व्यक्ति को यह न भूल जाना चाहिए कि हम कभी दुःखी भी हो सकते हैं। अतः हमें गर्व नहीं करना चाहिए।

व्यक्ति और राष्ट्र दोनों के सन्दर्भ में एक सच्चाई के दर्शन होते हैं कि यदि व्यक्ति परिश्रम करे तो उसके दुःख व कष्ट के दिन भी सख में परिवर्तित हो सकते हैं। सार ही प्रत्येक व्यक्ति अच्छे-बुरे दिनों को देखता है। अतः अपने कर्त्तव्य में आलस्य करना चाहिए। समय का मूल्य समझते हुए प्रत्येक कार्य को उचित समय पर ही कर लेना चाहिए। समय बीत जाने पर पश्चाताप के अतिरिक्त अन्य कुछ हाथ नहीं आता है।

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