Hindi Essay on “Parmanu Aprasar Sandhi aur Bharat” , ”परमाणु अप्रसार संधि और भारत” Complete Hindi Essay for Class 10, Class 12 and Graduation and other classes.
परमाणु अप्रसार संधि और भारत
Parmanu Aprasar Sandhi aur Bharat
ज्ञान-विज्ञान प्रगति और अनवरत विकास की राह पर चलते हुए आज परमाणु-युग में पहुंच चुका है। परमाणु प्रकृति का अत्यंत सूक्ष्म तत्व तो है ही, बड़ा शक्तिशाली तत्व भी है। परमाणुओं के संगठन से ही संसार की सभी वस्तुओं की रचना और निर्माण हुआ है, ऐसा वैज्ञानिकों और शास्त्रों का स्पष्ट मानना है। परमाणुओं में विद्यमान शक्ति का विकास और संगठन अचूक मारक शक्ति के रूप में भी संभव हो सकता है इसका पहला अनुभव विश्व को उस समय हुआ था। जब सन 1945 में अमेरिका ने जापान के हिरोशिमा और नागासाकी नामक नगरों पर परमाणु बमों से आक्रमण कर विनाश-लीला प्रस्तुत की थी। आधी शताब्दी बीत जने के बाद भी जिसके चिन्ह तो वहां प्रकट होते ही रहते हैं, विध्वंस के अवशेष अब भी बाकी हैं। यत्र-तत्र देखे जा सकते हैं। परमाणु बम के इस प्रयोग से उपस्थित विनाश-लीला ने विश्व के बड़े-बड़े वैज्ञानिकों यहां तक कि इनके निर्माताओं तक को चकित-विस्मित कर दिया था। कहा जा सकता है कि उसके बाद से ही परमाणु-प्रसार के निषेध का युग आरंभ हुआ। इसके लिए कई प्रकार से और कई स्तरों पर प्रयत्न किया जाने लगा।
सन 1945 में समाप्त द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद वर्तमान संयुक्त राष्ट्र संघ अस्तित्व में आया। सन 1945 में 15 अगस्त के दिन भारत को कड़े, संघर्ष और विभाजन के बाद स्वतंत्रता प्राप्त हो सकी। स्वतंत्र भारत में संयुक्त राष्ट्र संघ की स्वतंत्रता की सदस्यता स्वीकार करने के बाद से ही परमाणु-शक्ति को, विशेषकर मारक और संघातक शस्त्रास्त्रों के निर्माण को प्रतिबाधित करने के लिए अपना स्वर सबसे पहले मुखारित करना आरंभ किया। हां, शांतिपूर्ण विकास-कार्यों के लिए परमाणु-शक्ति का विकास एंव प्रयोग अवश्य किया जाना चाहिए, भारत इस बात का समर्थन तो करता ही रहा, स्वंय भी इस दिशा में कार्यरत रहा और आज भी वह अपनी इस मान्यता एंव सक्रियता पर सुदृढ़ है। संयुक्त राष्ट्र संघ के माध्यम से यह प्रयत्न होने लगा कि परमाणु-मुक्त विश्व का निमा्रण होना चाहिए। अत: वहां परमाणु शक्ति के संघातक रूप में विकास एंव परीक्षणों को निषिद्ध करने, इस प्रकार के कार्यों को प्रतिबंधित करने के लिए कई प्रकार के प्रयास किए और प्रस्ताव पारित किए जाने लगे, जिनता अस्तित्व आज भी विद्यमान है।
सोवियत संघ राज्य, अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी आदि इनमें से भी सोवियत संघ और अमेरिका पारस्परिक प्रतिद्वंद्विता एंव शीत युद्ध के चलते अपना-अपना वर्चस्व एक-दूसरे से अधिक बताने और बनाए रखने के लिए परमाणु शस्त्रास्त्रों के निर्माण एंव संचयन में सबसे आगे रहे। लेकिन जब गोर्बाचोव सोवियत संघ के राष्ट्रपति बनकर आए तो उन्होंने मुक्त विश्व, मुक्त व्यवसाय और मानव-मुक्ति एंव खुलेपन के प्रति अपना विश्वास व्यक्त किया। इतना ही नहीं, इपने देश सोवियत संघ में से भी साम्यवादी व्यवस्था को समाप्त कर मुक्त व्यवस्था लागू की। अमेरिका के साथ मिलकर परमाणु अस्त्रों की संख्या घटाने, उन्हें नष्ट करने, भविष्य में नए शस्त्रास्त्रों का निर्माण न करने की भी संधि की। उसके अनुसार योरुष की ओर मुख करके लगाई गई परमाणु मिसाइलें तो हटा ही लीं, उन्हें नष्ट भी कर दिया। यहां तक कि सोवियत संघ का विघटन तक हो गया। तब ही जाकर परमाणु-संधि प्रकाश में आई। अमेरिका, फ्रांस, ब्रिटेन, जापना आदि अनेक छोटे-बड़े देशों ने, चीन तक ने भी उस पर हस्ताक्षर तो कर दिए पर अपने यहां निर्मित परमाणु शस्त्रास्त्र नष्ट नहीं किए।
उधर पाकिस्तान ने कुछ चोटी और स्मगलिंग का सहारा लेकर और कुछ चीन आदि की सहायता से परमाणु रिएक्टर भट्ठियों और कहा तो यहां तक जाता है कि परमाणु बमों तक का निर्माण कर लिया। अमेरिका भी गुपचुप उसकी सहायता करता रहा। चीन ने भी अपने आपको परमाणु शक्ति-संपन्न राष्ट्र बना लिया। ऐसे में भारत उस असंतुलित और पक्षपातपूर्ण रवैये वाली परमाणु-निषेध संधि पर हस्ताक्षर कैसे कर सकता था? भारत ने हस्ताक्षर नहीं किए और अपने पास वह अधिकार सुरक्षित रखा कि सामान्य तौर पर वह परमाणु-शक्ति का विकास और प्रयोग शांतिपूर्ण कार्यों के लिए ही करेगा पर आवश्यकता पडऩे पर परमाणु-शस्त्रास्त्र बनाने को भी स्वतंत्र रहेाग। भारत ने जब पोखरण में भूमिगत परमाणु-विस्फोट किया, तब से परमाणु-अग्रसर-संधि पर हस्ताक्षर करने का दबाव पहले से कहीं ज्यादा पडऩे लगा। अमेरिका आदि की तरफ से उसे कई प्रकार के प्रलोभन भी दिए जाने लगे। परंतु जब तक सोवियत संघ कायम रहा, इन सभी कार्यों का रुख नर्म रहा। सोवियत संघ के विघटन के बाद क्योंकि अकेला अमेरिका ही विश्व-शक्ति रह गया है, उसकी चौधराहट भी काफी कुछ चलती है। उस पर वह स्वंय भी दुनिया की थानेदारी करने को आतुर होकर भारत को धमकाने लगा है कि वह परमाणु-निषेध संधि पर हस्ताक्षर कर दे। वह कई प्रकार के प्रतिबंध लगाने की धमकियां भी देता रहता है, लेकिन भारत अपने निर्णय पर पहले की तरह ही अडिग और अटल है।
इस सदी के अंत तक का समय इस निषेध संधि के लिए निर्धारित किया गया है। लेकिन मजे की बात यह है कि थानेदारी करने को आतुर अमेरिका ने अपना एक भी परमाणु अस्त्र नष्ट नहीं किया और न ही नव-निर्माण पर रोक ही लगाई है। उधर फ्रांस-जर्मनी, चीन आदि संधि पर हस्ताक्षर करने के बाद भी अनेक परमाणु-परीक्षण कर चुके हैं। वहां पता नहीं क्यों अमेरिका की थानेदारी नहीं चल पाती। अपने निहित स्वार्थों के कारण अमेरिका इन सबको कभी घुडक़ता नहीं। बस, भारत को अवश्य बंदर घुड़कियां देता रहता है कि वह संधि पर हस्ताक्षर कर दे। स्पष्ट है कि चारों ओर से कई प्रकार के गुप्त-प्रकट शत्रतुओं से घिरे रहकर भारत इस संधि पर हस्ताक्षर कर भी कैसे सकता है?
अब तो इस तथ्य के अनेक प्रमाण प्राप्त हो चुके हैं कि पाकिस्तान परमाणु बम बना चुका है। चीन तो परमाणु-शक्ति-संपन है ही। इस कारण भारत में भी सामान्य-विशेष सभी की तरफ से यह मांग की जाने लगी है कि भारत को परमाणु-निषेध संधि पर हस्ताक्षर तो क्या करने है, सथासंभव शीघ्र परमाणु बम बना लेना चाहिए। ऐसा करने पर ही दक्षिण-पूर्वी एशिया तो क्या समूचे एशिया प्राय द्वीप में शक्ति-संतुलन एंव शक्ति बनी रह सकती है। अमेरिका की थानेदारी करने की आदत का भी यही उत्तर हो सकता है-एक परमाणु-शक्ति संपन्न, शक्तिशाली भारत।