Hindi Essay on “Paradhi Supnehu Sukh Nahi” , ”पराधी सपनेहुं सुख नाहीं” Complete Hindi Essay for Class 10, Class 12 and Graduation and other classes.
पराधी सपनेहुं सुख नाहीं
Paradhi Supnehu Sukh Nahi
निबंध नंबर :- 01
कुछ कवियों की जो अनेक प्रचलित सूक्तियां लोक प्रचलित हैं, उनमें से यह एक महत्वपूर्ण, प्रेरणादायक सूक्ति है। यह कहावत या सूक्ति महाकवि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा अपने महाकाव्य ‘रामचरित मानस’ के किसी प्रसंग में कही गई है। इसका सीधा सरल अर्थ है कि जो व्यक्ति किसी भी स्तर पर, किसी भी रूप में पराधीन अर्थात गुलाम होता है, वह कभी सपने में भी सुख नहीं पा सकता। स्पष्ट है कि ऐसा कहकर स्वाधीनता का महत्व बताया है। उसने कहा है कि स्वाधीन-स्वतंत्र व्य ित ही संसार में सब प्रकार के सुख प्राप्त कर सकता है या सुखों का अधिकारी बन सकता है। इसका कारण भी स्पष्ट है। वह यह कि पराधीन या गुलाम व्यक्ति की अपनी कोई इच्छा नहीं हुआ करती। यदि होती भी है तो उसका कोई मजत्व नहीं होता। उसे तो उस व्यक्ति का मुंह देखकर जीना पड़ता है, जिसने उसे गुलाम या अपने अधीन बना रखा है। उसके अर्थात पराधीन बनाने वाले के मुख से निकला शब्द ही गुलाम की इच्छा हुआ करती है। न चाहते हुए भी गुलाम को वही सब करना पड़ता है, जो मालिक चाहता है। इसी कारण पराधीनता मनुष्य तो क्या प्रत्येक प्राणी के लिए सबसे बड़ा पाप और जीवित अभिषाप है। पशु-पक्षी तक पराधीन रहना पसंद नहीं करते।
सुख-दुख, आशा-निराशा, आनंद-उत्साह आदि किसी भी बात का महत्व पराधीन व्यक्ति के लिए नहीं हुआ करता। स्वर्ग-नरक भी पराधीन के लिए समान होते हैं। यों कहना चाहिए कि पराधीन व्यक्ति समय पाकर सुख-स्वर्ग का अर्थ ही भूल जाया करता है। उसका जीवन एकदम जड़ बनकर रह जाता है। इस जड़ता से स्वंय बचे रहने और अपने देश को बचाए रखने के लिए ही व्यक्ति अपने मूल स्वभाव से स्वाधीन होता और स्वाधीनता ही चाहता है। उसे पाने के लिए मनुष्य बड़े से बड़ा त्याग और बलिदान करने को तैयार रहता है। प्राण तक न्यौछावर कर दिया करता है।
पराधीनता की उपमा पिंजर में बंद पक्षी से की जाती है। पिंजरा चाहे सोने का भी क्यों न हो, वह पराधीनता का प्रतीक पिंजरा ही हुआ करता है। इसलिए तो सोने के पिंजरे में बंद पक्षी के प्राण भी मुक्त आकाश की ऊंचाई में अपनी इच्छा से उडऩे के लिए छटपटाते रहते हैं। जब पक्षी की यह दशा होती है तब फिर बुद्धि और ह्दय, विचार अनुभूति रखने वाला मनुष्य भला पराधीन बनकर मिलने वाले सुखों को, धन और संपत्ति को सुखदायक कैसे ओर क्यों कर मान सकता है? कभी भी नहीं मानता। पराधीनता तो वास्तव में कारण और नाम ही दुख के हैं।
वास्तव में पराधीनता से बड़ा कोई शाप-ताप नहीं। स्वाधीन व्यक्ति ही सब प्रकार की उन्नति करके अपनी इच्छित दिशा में अग्रसर हो सकता है। अत: पराधीनता के स्वर्ण को भी स्वाधीनता के लोहे की तुलना में स्वीकार्य नहीं मानना चाहिए। स्वाधीनता की नमक-रोटी ही वास्तव में अमृत होती है, जबकि पराधीनता की माखन-मलाई जहर में कम नहीं होती। यही सब कवि ने इस सूक्ति में स्पष्ट किया है। पराधीनता को जीवनका घोर पाप और स्वाधीनता को सबसे बड़ा पुण्य-फल, कहकर एक वास्तविकता को ही उजागर किया एंव चितारा है।
निबंध नंबर :- 02
पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं
Paradhin Supnehu sukh Nahi
प्रस्तावना : सामान्यतः मानव अपने जीवन में जो कुछ भी कार्य करता है, उसका एक मात्र उद्देश्य होता है कि वह अपने को सुखी कर सके। अपना विकास कर सके और जितना भी जीवन उसने जीना है उतना स्वाभाविक रूप में जी सके। लेकिन मानव का आदि काल से अब तक का इतिहास यह बताता है कि उसकी इच्छा के मार्ग में अनेक बाधाएँ आती हैं। यद्यपि वह सभी बाधाओं को दूर करने की कोशिश करता है फिर भी परिस्थितियाँ उसे ऐसा जीवन जीने पर विवश कर देती हैं जो उसको अच्छा नहीं लगता। जब हम पराधीनता के विषय में बात करते हैं, तो एक तथ्य यह सामने रखना होता है कि पराधीनता की विवेचना कई दृष्टियों से हो सकती है।
पराधीनता का एक रूप है स्वतन्त्रता का न होना अर्थात् जो व्यक्ति किसी की इच्छा के अधीन होता है, उसे पराधीन कहा जाता है। यह स्वाभाविक है कि अपने अनुसार काम न करने पर व्यक्ति सुख प्राप्त नहीं कर सकता। इसीलिए कहा जाता है कि पराधीन व्यक्ति सुख प्राप्त नहीं कर सकता।
पराधीनता का अभिशाप : पराधीनता का अभिशाप सबसे बड़ा अभिशाप है। यदि यह पूछा जाए कि इस विश्व में कौन ज्यादा सुखी है, तो एक उत्तर यही होगा कि जो स्वतन्त्र है या पराधीन नहीं है वह सुखी है। सुख यद्यपि बाहरी वस्तुओं पर निर्भर करता है। फिर भी उसकी वास्तविक सत्ता अन्तर में विद्यमान रहती है। हम जब पराधीन होते हैं, तो कुछ भी अपनी इच्छा से नहीं कर सकते और हमें प्रत्येक काम के लिए दूसरे की इच्छा पर निर्भर रहना पड़ता है। यह जीवन का सबसे बड़ा अभिशाप है।
पराधीनता का दूसरा रूप है गुलामी : प्राचीन काल में दास प्रथा थी। अमीर व्यक्ति गरीब दासों को खरीद लिया करते थे। उनके अधिकार समाप्त हो जाते थे। उनका खाना-पीना या अन्य काम मालिक पर निर्भर करता था। धीरे-धीरे यह दास प्रथा समाप्त हुई। इसकी समाप्ति का कारण था कि मानवों में स्वाधीनता की चेतना जाग गई थी और वे पराधीनता के दुर्गुण समझने लगे थे। उन्होंने इस विषय में आन्दोलन किए और अपने अधिकारों को प्राप्त करने के लिये खुन की क्रान्तियाँ भी हुईं। इस विषय में प्राचीन राजसत्ता की चर्चा भी की जा सकती है। राजतंत्र में सामान्यत: शासक के विपरीत कुछ भी कहने की स्वतन्त्रता नहीं होती है। उसे भी एक प्रकार की पराधीनता ही समझना चाहिए।
व्यक्ति के सन्दर्भ में : वस्तुत: इस बात को व्यक्ति और राष्ट्र दोनों के संदर्भ में देखा जा सकता है। जो व्यक्ति पराधीन होता है उसका विकास रुक जाता है, उसमें अपने आप स्वतन्त्रता से निर्णय लेने की शक्ति समाप्त हो जाती है। उसमें हीन भावना आ जाती है। इस तरह जो व्यक्ति पराधीन होता है, उसे जीवन के सुख मिलने दूभर हो जाते हैं। तुलसीदास जी ने इस बात को चाहे नारी के प्रसंग में कहा हो; पर यह उक्ति सभी पर चरितार्थ होती है। भारतीय समाज में जैसा कि पहले दासों के विषय में कहा गया है, स्त्रियों की दशा भी अच्छी नहीं रही। यद्यपि यह विवाद का विषय है कि प्राचीन काल में स्त्रियों को स्वतन्त्रता प्राप्त शी या नहीं। दोनों ही बातों के पक्ष में प्रमाण मिल जाते हैं और यह भी सर्वविदित है कि नारी की दशा हमारे देश में बहुत अच्छी नहीं रही। सभी धर्म शास्त्रों में उसे हर दशा में पुरुष की छाया या अनुगामिनी बताया गया है। उसके सभी अधिकारों को पिता, पति और पुत्र के अधीन कर दिया गया। आधुनिक काल में साहित्यकारों में सभी कवियों व लेखकों ने नारी की इस दशा पर लिखा और उसकी स्वतन्त्रता की माँग की थी-कविवर पंत ने लिखा है :
मुक्त करो नारी को ।
चिर वन्दिनी सुकुमारी को ।।”
और प्रसाद जी ने ध्रुवस्वामिनी में इस समस्या को उभारा है। उन्होंने ध्रुवस्वामिनी के मुख से कहलवाया है कि पराधीनता की भावना उसकी नस-नस में युगों से समा गई है। एक स्वतन्त्र राष्ट्र और अच्छे समाज का निर्माण करने के लिए नारी की स्वतन्त्रता ही नहीं, प्रत्येक व्यक्ति की स्वतन्त्रता आवश्यक होती है। हम देख रहे हैं कि जहाँ पर नारी स्वतन्त्र है वहाँ पर और चाहे कुछ दुर्गुण समाज में आ गये हों; पर समग्र राष्ट्र की उन्नति हुई है।
राष्ट्र के सन्दर्भ में : किसी भी राष्ट्र के सन्दर्भ में यह उक्ति अधिक विचार का विषय बन सकती है। जब कोई राष्ट्र पराधीन होता है, तो उसकी जनता सुखी नहीं रह सकती। पराधीन बनाने वाला राष्ट्र (देश) अपने लाभ की बातें करता है। भारत को ही लीजिये। अंग्रेजो की दासता के समय भारतीय जनमानस का विकास रुक गया। हमें अपनी सभ्यता और संस्कृति पर दूसरे देश की सभ्यता और संस्कृति का प्रभाव स्वीकार करना पड़ा। इससे यद्यपि कुछ लाभ भी अवश्य हुआ पर पराधीनता के लाभ से स्वाधीनता की हानि कहीं अधिक श्रेयस्कर मानी गई है। भारतवासियों ने पराधीनता की बेड़ी काटने का यत्न किया। पराधीनता के दिनों की दशा का मार्मिक वर्णन भारतेन्दु की रचना में हुआ है:
“अंग्रेज राज सुख साज सबै अति भारी ।
पै धन विदेश चलि जात यहै अति ख्वारी ।।”
स्वतंत्रता का महत्त्व : भारत सोने की चिड़िया कहा जाता रहा है। यहाँ पर भी पराधीनता को काटने के लिये क्रान्तियाँ हुईं और स्वतन्त्रता का आन्दोलन छिड़ा। अनेक व्यक्तियों को अपना बलिदान करना पड़ा तब कहीं जाकर स्वाधीनता मिली। अत: यह स्पष्ट है कि स्वाधीनता ही विश्व का सबसे बड़ा सुख और जीवन की महत्ता है। यदि पराधीनता में सुख मिलता होता, तो मानव लड़-झगड़कर भी स्वाधीनता लेने की कोशिश न करता।
पराधीन व्यक्ति को स्वप्न में भी सुख नहीं मिलता इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि जब किसी को सजा देनी होती है, तो कैद कर दिया जाता है। उसकी सामाजिक स्वतन्त्रता छीन ली लाती है और उसे अकेला कर दिया जाता है। सामाजिक और वैयक्तिक स्वतन्त्रता व्यक्ति के लिये सबसे बड़ा धन है। पराधीन व्यक्ति सदा दूसरे की इच्छा का अनुगमन करता है। इसी कारण विश्व में बड़े-बड़े उलट फेर हुए। कर्म, राजनीति और सम्प्रदाय किसी भी स्थिति की पराधीनता व्यक्ति को रुचती नहीं। अत: यह निर्विवाद रूप से सत्य है कि पराधीन व्यक्ति को सपने में भी सुख नहीं मिलता और सुखी जीवन के लिये स्वतन्त्रता का होना अत्यावश्यक है।