Hindi Essay on “Nari aur Rajniti” , ”नारी और राजनीति” Complete Hindi Essay for Class 10, Class 12 and Graduation and other classes.
नारी और राजनीति
Nari aur Rajniti
राजनीति को शायद किसी भी युग में कोई अच्छी बात नहीं माना गया। फिर भी सृष्टि विकास के आरम्भ से ही मनुष्य राजनीति करने, राजनीतिक कार्यों में भाग लेने को विवश कर रहा है। सृष्टि की आरम्भिक अवस्था में जब पेडों से नीचे उतर गुफाओं से बाहर निकल, छोटी-छोटी झोपड़पट्टियां बनाकर मनुष्य जाति ने रहना आरम्भ किया था, तभी से उसके जीवन में राजनीति का भी प्रवेश हो गया था, यह एक सर्वमान्य तथ्य है कि तब यदि उस आरम्भिक अवस्था में मानव-गिरोहो मुखिया कोई नारी ही हुआ करती थी। इससे कहा जा सकता है कि पुरुष वर्ग से भी कहीं पहले से नारी ही हुआ करती थी। इससे कहा जा सकता है कि पुरुष वर्ग से भी कहीं पहले से नारी जाति राजनीति में न केवल भाग लेती आ रही है, बल्कि उसका संचालन करती आ रही है। धीरे-धीरे जीवन समाज में पुरुषों का वर्चस्व बढ़ता गया। और नारी का संसार घर की चारदीवारी तक सिमित होकर रहता गया। फिर भी पुराणों और इतिहास सूक्ष्म अध्ययन से यह स्पष्ट पता चल जाता है कि हर युग में नारी कम या अधिक राजनीति में भाग लेती अवश्य रही है।
बहुत प्राचीन काल के ऋषियों-मुनियों के आश्रमों की दुनिया में न जाकर हम रामायण काल से ही आरम्भ करते हैं। रावण ने ताड़का को एक प्रदेश का कार्यभार सौंप रखा था, जिसका संचालन वह सुबाहु और मारीच नामक राक्षसों के सहयोग से किया करती थी। उसकी बात भी छोडिये, दशरथ महाराज की रानी कैकेयी का राजनीति में कितना अधिक दखल था, किसी से छिपा नहीं है। वह युद्ध तक में दशरथ के साथ रहा करती थी और बाद में राम को वनवास भिजवा एक बार तो उसने अयोध्या राज्य में गृहयुद्ध की सी स्थिति उत्पन्न कर दी थी। बाद में सीता को भी राजनीति का ही शिकार बनना पड़ा, यद्यपि उसने प्रत्यक्षतः उसमें कोई भाग नहीं लिया। त्रेता यग के बाद द्वापर में तो राजनीतिक वैर चुकाने के लिए अनेक बार नारी का प्रयोग किया गया। गांधारी और द्रौपदी तो अपना-अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए कौरवों पाण्डवों को स्पष्ट उत्तेजित करती रहीं। ग्यारहवीं शताब्दी में संयोगिता को लेकर जयचन्द और पृथ्वीराज चौहान के बीच न केवल य ही हुआ; बल्कि जयचन्द की शह पाकर विदेशी आक्रमणकारियों ने यहाँ पर अपना राज्य तक स्थापित कर लिया। मेवाड़ की पदिमनी को पाने के लिए अलाउद्दीन खिलजी को मकर-फरेब, युद्ध आदि सभी कुछ करना पड़ा, पर उसे पा फिर भी न सका। मेवाड़ की रानी कर्मवती और बाद में पन्ना धाय की राजनीतिक सूझ-बूझ को कौन भुला सकता है कि जिन्होंने क्रमशः हुमायूँ को राखी भेज और मेवाड के भावी सरदार को बचा अपने देश की रक्षा की?
इन के बाद भी इतिहास में क्रमशः अहिल्या बाई, चाँद बीबी, रजिया सुलतान आदि के नाम मिलते हैं कि जो आखिरी दम तक अपने प्रबलतम शत्रुओं से लोहा लेती रहीं। दक्षिण में मराठा राज्य के संस्थापक वीर शिवाजी को वीरता और राजनीति का पाठ पढ़ाने वाली माता जीजा बाई को भला कौन भूल सकता है कि जिस की प्रेरणास्पद चेष्टा ने सुदृढ़ मुगल साम्राज्य की जड़ें एकदम खोखली कर दी थीं? और वह, ‘नहीं, मैं अपनी झांसी जीते जी कभी न दूंगी’ का वीरता भरा उद्घोष कर अपने दत्तक बेटे को पीठ पर लाद अन्तिम सांस तक अंग्रेज सरदारों के छक्के छुडाती रहने वाली झांसी की वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई क्या भूल जाने वाला नाम है? पता नहीं कितनी नारियों के हृदय में उठने वाली वीरता और उत्साह की राजनीति की आग भर दी थी कि जो मर कर भी बुझी नहीं, बल्कि सन् 1857 के बाद चलने वाले दूसरे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अपने-अपने ढंग से भाग लेने के लिए देश की नारी जाति की सोई चेतना को अपने ताप से जगाती रही।
गांधी जी के नेतृत्व में जब स्वतंत्रता संग्राम एक बार फिर जोर शोर से आरम्भ हुआ तो जाने कितनी माताओं ने अपने बेटों, बहनों ने अपने भाइयों और पत्नियों ने अपने पतियों को उसमें भेज कर अपनी राजनीतिक सूझ-बूझ का परिचय दिया। पं० मोती लाल नेहरू की पत्नी और जवाहर लाल नेहरू की मां स्वरूपरानी, श्रीमती कमला नेहरू, राजकुमारी अमृत कौर, सरोजनी नायडु, अरुणा आसफअली, विजय लक्ष्मी पण्डित और माता कस्तूरबा को भा जाना जा सकता है। इन और आततायी ब्रिटिश सर का साथ देने वाली कि आजाद हिन्द फौज की भारतीय स्वतंत्रता-संग्राम की राजनीति से अलग करके कैसे देखा. है। इन सभी ने बढ़-चढ़ कर राजनीति में भाग लिया। जेलों में गई सरकार की लाठियाँ-गोलियाँ तक झेली। दूसरी ओर क्रान्तिकारियों बाली कितनी महिलाएं थी, कि जिनको अकाल काल का ग्रास बनना पड़ा। औज की महिला सेना की कैप्टन लक्ष्मी को झांसी की रानी लक्ष्मीबाई से कम कर के कतई नहीं आंका जा सकता।
इस प्रकार स्पष्ट है कि भारतवर्ष की मिट्टी में ही कुछ ऐसी बात है कि यहाँ की आरम्भ से ही राजनीति में सक्रिय भाग लेती आ रही हैं। उन माताओं-बहनों को बनाया जा सकता है कि जिन के पति, पिता, भाई जेलों में चले जाते थे, बाद में अकेली घरों में कई तरह के कष्ट सह कर भी कभी हार नहीं मानती थीं। उनका हार ना ही वास्तव में भारतीय राजनीति की वह शक्ति रही है कि जिस ने अन्ततोगत्वा सवता का अपना लक्ष्य प्राप्त कर ही लिया। आज भी ऐसी नारियों की कमी नहीं है। कि जो छोटे-बड़े प्रत्येक राजनीतिक दल की सदस्या बनकर अपने सक्रिय सहयोग से उन की रीति-नीतियों को प्रभावित कर रही हैं। उन्होंने बड़े से बड़े राजनीतिक दायित्व निभाए हैं और आज भी निभा रही हैं। वास्तव में जिस देश की मातृ या नारी सत्ता जागरुक रहा करती है, उस देश को अपने लक्ष्य पाने से कभी कोई नहीं रोक सकता। ऐतिहासिक विवेचन करके हमने देखा है कि भारतीय नारी आरम्भ से ही, कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी अपनी राजनीतिक जागरुकता सूझ-बूझ का उचित परिचय देती आ रही है। आज आवश्यकता है कि वह एक बार फिर त्याग और बलिदान की मूर्ति बनकर सामने आए। तभी सभी प्रकार के भ्रष्टाचार दूर हो सकेंगे और देश का प्रत्येक जन अपना उचित और वास्तविक अधिकार पा सकेगा।