Hindi Essay on “Meri Pratham Rail Yatra” , ”मेरी प्रथम रेल यात्रा” Complete Hindi Essay for Class 10, Class 12 and Graduation and other classes.
मेरी प्रथम रेल यात्रा
Meri Pratham Rail Yatra
निबंध नंबर : 01
किसी भी यात्रा का एक अपना अलग ही सुख है। यात्रा करना तो बहुत से लोगों की एक पसंद है। यात्रा के अनेक उपलब्ध साधनों में से रलयात्रा का अनुभव एक अनोखा रोमांच एंव अनुभव प्रदान करता है। मेरी प्रथम रेल यात्रा तो आज भी मेरे लिए अविस्मरणीय है क्योंकि मेरी प्रथम रेलयात्रा ने रोमांच के साथ ही मुझे एक ऐसा मित्र भी दिया जो आज मुझे सबसे अधिक प्रिय है। अतः इस दिन को तो मैं कभी भुला ही नहीं सकता।
बात उस समय की है जब मैं आठ वर्ष का था। मेरे पिताजी को उनकी कंपनी की ओर से उनके अच्छे कार्य हेतू सपरिवार इस दिन के लिए रेल द्वारा देश भ्रमण का प्रबंध था। सभी रिजर्वेशन टिकट तथा अन्य मुझ तक पहुँची मेरी प्रसन्न्ता की सीमा न रही। इससे पूर्व मैंने रेलयात्रा के बारे में केवल सुना ही था। आज प्रथम बार इस अनुभव हेतू मैं बहुत ही रोमांचित, पुलकित एंव उत्साहित था।
रात्रि 10ः30 बजे हम नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर पहुँच गए। स्टेशन की इमारत और दौड़ते-भागते तरह-तरह के लोगों को देखकर मैं आश्चर्यचकित रह गया। बहुत से कुली एक साथ हमारा सामान उठाने के लिए हमारी ओर लपके। पिता जी ने उनमें से एक की ओर संकेत किया और फिर हम उसके पीछे निश्चित प्लेटफार्म पर पहुँचे। वहाँ पर गाड़ी पहले से ही खड़ी थी। हमने अपनी पहले से ही रिजर्व सीटें ग्रहण कीं और सामान को नीचे रखकर आराम से बैठ गए। मैं खिड़की से कभी चाय-चाय चिल्लाते आदमी की तरफ देखता तो कभी सातने नल में पानी भरते हुए लोगों की भीड़ को। पिताजी ने पुस्तक विक्रेता से कुछ पत्रिकाएँ खरीद ली थीं। मैं अभी प्लेटफार्म की भीड़ में खोया था कि गार्ड की सीटी सुनाई दीं और गाड़ी चल पड़ी। वह अवसर मेरे लिए बहुत ही रोमांचदायक था।
मेरी बर्थ के सामने ही मेरी उम्र का एक और लड़का था। वह भी मेरी तरह पहली बार रेलयात्रा कर रहा था। धीरे-धीरे हममें मित्रता हो गई। उसका नाम विशाल था। हमने रात को साथ-साथ भोजन लिया और कुछ देर बातें की। फिर हमने अपनी-अपनी सीटों पर एक सूती चादर बिछाया और लेट गए। पिता जी ने पहले से ही दो तकिए खरीद रखे थे जिनमें मुँह से हवा भर की मैंने फुलाया। फिर मैंने जब अपनी आँखें बंद कर लीं तो रेलगाड़ी के चलने की लयात्मक ध्वनि को सुनकर मुझे बड़ा मजा आ रहा था। कुछ देर पश्चात् हमें नींद आ गई।
सुबह जब मेरी आँख खुली तो उस समय का दृश्य अत्यंत सुखदायी था। ट्रेन तेज गति से छुक-छुक करती हुई भागती चली जा रही थी। रास्ते में हरे-भरे खेत, पेड़-पौधे, पशु-पक्षी सभी दिखाई दे रहे थे। ट्रेन में ही गरम नाश्ता और काॅफी मिल गई। बाहरी जीवंत दृश्य बहुत ही मोहक था। नाश्ते के पश्चात् विशाल ने अपनी कविताओं से सभी को मोहित कर लिया। इस बीच हमारी रेलगाड़ी एक बड़े स्टेशन पर रूकी। मैंने पिताजी से नीचे प्लेटफार्म पर उतरने की अनुमति माँगी। उन्होने अनुमति दे दी तो मैं वहाँ से अपनी बोतल में पानी भर लाया। हमारी गाड़ी फिर चल पड़ी। मैं खिड़की के निकट बैठकर बाहरी दृश्य का आनंद लेने लगा। कुछ समय पश्चात् हम गंतव्य तक पहुँच गए। हमने अपना सामान उठाया और ट्रेन से उतर गए। वास्तविक रूप में मैं आज भी उस प्रथम सुहावनी रेलयात्रा को भुला नहीं पाया हूँ। यह उसकी सुखद याद ही है जिसके कारण मुझे बार-बार रेलयात्रा करने का मन करता है। मैं पुनः छुट्टियों का बेसब्री से इंतजार करता हूँ ताकि मुझे रेलयात्रा का अवसर मिल सके।
निबंध नंबर : 02
मेरी पहली रेलयात्रा
Meri Pehli Rail Yatra
प्रस्तावना- रेल में यात्रा करना बहुत अच्छा लगता है। मैंने इस वाक्य को केवल अपने मित्रों एवं परिजनों से सुना था परन्तुु मुझे रेल में वैठने का अवसर प्राप्त नहीं हुआ था। मेरी बहुत इच्छा थी कि मैं भी एक बार रेल में बैठूं।
मेरा उत्साह- मेरी बुआजी मुरादाबाद में रहती हैं। उनके लड़के का विवाह 21 जनवरी, 2005 को तय हुआ। मैने अपने परिजनों से रेल से मुरादाबाद जाने की इच्छा प्रकट की । उन्हांेने मेरी बात ली और इस प्रकार मुझे रेल से मुरादाबाद जाने का अवसर प्राप्त हुआ।
विवाह की सूचना चार दिन पूर्व ही मिलने के कारण हमारी सीटें आरक्षित न हो सकीं। अतः हमें स्टेशन पर गाडी़ छूटने से लगभग दो घण्टे पहले जाना पडा़ । जब हम प्लेटफार्म पर पहुंचे तो वहां यात्रियों की काफी भीड़ देखकर हम अचम्भित हो गये। शोरगुल से हमारे कान फटे जा रहे थे।
प्रतीक्षा की आकुलता- बहुत देर तक इन्तजार करने के बाद हमारी गाडी़ स्टेशन पर आ ही गयी। गाडी़ को देखते ही लोग पागल-से हो गये। वे एक -दूसरे को धक्का देकर चढ़ने लगे। इतनी धक्का-मुक्की के बाद हम जैसे-तैसे डिब्बे में दाखिल हो गये। पास बैठने की बिल्कुल भी जगह नहीं थी, परन्तु एक दयालु सज्जन ने मुझे अपने पास बैठा लिया।
मेरा अनुभव- हमारी गाडी़ मैदानी, इलाकों और नदी-नालों के पुलों से गुजरती आगे बढ़ती जा रही थी। जब भी मैं खिड़की में झांकता तो मुझे ऐसा प्रतीत होता था कि जैसे हमारी गाडी़ तो रूकी हुई है और धरती, पेड़, पौधे आदि तीव्र गति से भाग रहे हैं।
जब प्लेटफार्म पर गाडी़ रूकती थी तो कभी सेब वाला, चने वाला, चाय वाला आदि रेल के अन्दर आकर अपना-अपना समान बेचते। रेल की इस यात्रा में मेरे अनेक मित्र बन गए।
यात्रा करते समय मुझे कभी भी ऐसा महसूस नहीं हुआ कि मैं बोर हो रहा हूं। सारा समय पूरी हॅंसी-मजाक एवं खुशी से व्यतीत हुआ।
उपसंहार- हमारी रेल मुरादाबाद क्षेत्र में प्रवेश कर चुकी थी तथा समय पर ही, मुरादाबाद स्टेशन पर पहंुच गयी। ट्रेन के रूकते ही हम बाहर आ गई और एक कुली को बुलाकर अपना सारा समान उत्तरवा लिया। फिर हम टैक्सी में बैठकर अपनी बुआ जी के घर पहुंच गए।
निबंध नंबर : 03
मेरी पहली रेल-यात्रा
Meri Pehli Rail Yatra
भारत में हिमालय की किसी चोटी पर चढ़ना शायद उतना कठिन नहीं, जितना कि आम तौर पर किसी रेल में यात्रा करना। मेरा तो कुछ इसी प्रकार का अनुभव है। इस पहले ही अनुभव ने मुझे रेल यात्रा करने से इतना थका दिया; बल्कि भयभीत कर दिया है कि भविष्य में वश चलते मैंने कभी भी रेल-यात्रा न करने का पक्का मन बना लिया है। कोई मुझे किसी कुएँ या खन्दक में कूद पड़ने को कहेगा, तो एक बार इस लिए कूद भी लूँगा कि ऐसा करते समय अन्धाधुन्ध भीड़ और रेलवे अधिकारियों की अन्धेरगर्दी का सामना तो नहीं करना पड़ेगा; पर जैसा कि कह आया हूँ, वश चलते रेल-यात्रा से तो दूर ही रहने की कोशिश करता रहूँगा।
तो आप मेरी इस पहली रेल-यात्रा का पहला अनुभव सुनना चाहते हैं ? अवश्य सुनिए। बात अभी कुछ ही दिन पहले की है। अपने रिश्तेदारों के यहाँ किसी शभ कार्य में भाग लेने के लिए हमें दिल्ली से इलाहाबाद तक जाना था। हमने रेल विभाग द्वारा द्वितीय श्रेणी के दिन के यात्रियों के लिए स्लीपिंग कोच नामक एक नई श्रेणी में कोई बीस दिन पहले से ही अपने लिए तीन सीटें आरक्षित करवा ली थीं। आम स्लीपिंग कोच की तुलना में इस नई श्रेणी में दिन भर की यात्रा का भाडा मात्र पचास रुपये एक सीट के हिसाब से अधिक देना पड़ा। हमने यह सोच कर तीन सीटों के लिए पचास रुपया अधिक देना स्वीकार कर लिया कि चलो, सारे दिन की यात्रा है, आराम से तो कट जाएगी। लेकिन आराम से तो क्या कटनी थी यात्रा, हम पूरे-के-पूरे अपने गन्तव्य पर पहुँच सके, गनीमत बस इतनी ही है।
यात्रा कैसी रहेगी, इसकी झलक दिल्ली से ट्रेन में सवार होते समय ही मिलने लगी थी। बाहर मुसाफिर खाने से गुजर कर गेट से प्लेट फार्म तक पहुँच पाना ही गौरी शंकर की चोटी पर चढ़ने से कम कठिन नहीं था। जहाँ तक भी नजर जाती भीड़ इस सीमा तक इंच-इंच जमीन को घेरे हुए थी कि बस पूछो मत खैर, गालियाँ खाते और ‘अन्धे होने’ का खिताब पाते हुए किसी तरह लम्बी-चौड़ी सीढ़ियाँ पार कर प्लेटफार्म पर पहुँच ही गए। मैं बुरी तरह हाँफने लगा था; मेरे वृद्ध माता-पिता की क्या दशा होगी, सरलता से अनुमान किया जा सकता है। क्योंकि गाड़ी प्लेटफार्म पर पहुँच ही रही थी, फिर कुली को भी किसी अन्य सवारी का सामान मजूरी के लिए ढूँढना था; इसलिए बिना साँस लेने का अवसर दिए वह हमारी आरक्षित सीट वाला कोच ढूँढने के चक्कर में पहले से भी कहीं अधिक वेग से भागने लगा। उसके पीछे पहले से भी बुरी दशा में, बुरी तरह से हमारा अपना भागना आवश्यक था, सो भागने लगे।
मैंने देखा, ट्रेन अभी रुकने भी नहीं पाई थी और उतरने वाले यात्री उतर भी नहीं पाए थे कि साथ-साथ भाग रहे कुलियों ने खिड़कियों दरवाजों से सामान भीतर फेंकना कूदकर भीतर धंसना आरम्भ कर दिया था। ट्रेन रुकने पर तो जैसे प्रत्येक डिब्बे पर यात्री टूट पड़ रहे थे। यहाँ तक कि आरक्षित डिब्बों में आरक्षित स्थान वाले यात्रियों में भी सब्र नहीं था, जबकि उन्हें पता था कि वही सीट बैठने को मिलेगी, जिस का नम्बर के आरक्षित कराए गए टिकट पर लिखा हुआ है। कुली के उत्तेजना भरे आग्रह पर हम लोग भी ज्यों-त्यों धंस गए भीतर। उसने हमारी आरक्षित सीटें दिखा, सामान ऊपर रखा पैसे लिए और चलता बना। जैसे ही हम अपनी सीटों की तरफ बढ़े, यह देखकर अचरज हुआ कि वहाँ तीन-चार व्यक्ति पहले से ही जमे थे। यही हालत सामने वाले बर्थ की भी थी। गुलाबी ठण्डक भरा मौसम होते हुए भी पसीने से नहाए हम लोगों ने अपने टिकट दिखाते हुए जब उन से कहा कि ये सीटें तो हमने रिजर्व करवा रखी हैं, वे लोग कुछ इधर-उधर सरकते हुए बोले, आप लोग भी बैठिए। हमारे बार-बार कहने, कण्डक्टर को बुलाने जैसी धमकी भरी बातें सुनकर उनमें से एक उठ कर सामने वाली सिट पर अकड़ते हुए बोला, आने दीजिए कण्डक्टर को भी। तब तक तो बैठिए।।
विवश होकर हमें खाली किए गए स्थान पर अड़ना पड़ा। यानि तीन के लिए आरक्षित स्थान पर पाँच व्यक्ति बैठ गए। हम लोग इधर-उधर देखने लगे। देखा, बाकी सीटों पर भी कुछ इसी तरह का चक्कर था । पचास रुपये अधिक देकर औरक्षण करवाने वाले हमारी तरह ही विवश और रोनी सूरत लिए हुए बगले झाँक रहे थे। ट्रेन चलने के आधे-पौने घण्टे बाद कहीं कण्डक्टर महोदय के दर्शन हुए। हमारी सीट पर बैठे व्यक्ति से टिकट पूछने पर उसने तीन टिकट दिखाए तो कण्डक्टर ने कहा-यह तो इस डिब्बे के टिकट नहीं हैं। इस में तो पचास रुपये और देने पड़ेंगे एक टिकट के हिसाब से। उस आदमी ने सौ और पचास का नोट निकाल कर दिया और कण्डक्टर उन्हें लेकर आगे बढ़ गया। हमने देखा, ऐसा ही वह हर जगह कर रहा था। कण्डक्टर के आगे बढ़ते ही दो आदमी और आकर हमारी तथा सामने वाली सीट पर एक-एक अड गए। इस प्रकार तीन-तीन के लिए आरक्षित उन बर्थों पर छह-छह यात्री हो गए।
इसके बाद कण्डक्टर के दर्शन इलाहाबाद आने के लगभग आधे घण्टा पहले हो पाए। मैंने देखा, बिना औरक्षण करवाए जो दो-दो, तीन-तीन लोग प्रत्येक सीट पर जमे हुए थे उन से बीस रुपये प्रति सीट के हिसाब से लेते हुए कण्डक्टर महोदय अपनी जेबों में भरते जा रहे हैं। हमारी न तो टिकट चैक ही की गई और न हम से आँखें ही मिलाई गई। मेरे विचार में उस एक डिब्बे से ही कम-से-कम तीन हजार रुपये कण्डक्टर की जेब में चले गए होंगे। यदि वह ईमानदार रेलवे कर्मचारी जुर्माना न भी लगा कर पचास-पचास रुपये की रसीद काट कर आरक्षित बैठे यात्रियों को देता, तो रेलवे-विभाग को सात-आठ हजार रुपयों की शुद्ध आय हो जाती। जुर्माना करने पर यह आय कई गुना अधिक हो सकती थी। लेकिन नहीं, आकण्ठ भ्रष्टाचार में डूबे और हरामखोरी के आदी इन कर्मचारियों को परवाह नहीं। रेल विभाग घाटे में रहता है तो रहे। हर साल किरायों में अन्धाधुन्ध बढ़ोतरी होती है, तो हो। इस से इन्हें क्या ? इन्हें एक तो मुफ्त यात्रा के पास मिलते हैं, दूसरे किराया बढ़ाने पर इन की भ्रष्ट आमदनी में भी तो साफ बढ़ोतरी हो जाती है।
तो ऐसा रहा मेरा पहली रेल-यात्रा का अनुभव! समाचारपत्रों में आरक्षित डिब्बों में यात्रा करने वालों की दुर्दशा के जो समाचार आदि प्रकाशित होते रहते हैं, ऊपर तक भ्रष्टाचार फैले होने की चर्चा की जाती है, वह कतई झूठ न होकर एक निखरा हुआ सत्य है।