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Hindi Essay on “Man ke hare haar hai Man ke jite jeet”, “मन के हारे हार है मन के जीते जीत” Complete Hindi Nibandh for Class 10, Class 12 and Graduation and other classes.

निबंध नंबर:-01

मन के हारे हार है मन के जीते जीत

Man ke hare haar hai Man ke jite jeet

मन की महत्ता

दो वर्षों से निर्मित यह छोटा-सा शब्द ‘मन’ सष्टि की सल विचित्र वस्तु है। जितना यह आकार में छोटा है उतना ही इसका हृदय विशाल है। जिस प्रकार छोटे से बीज में विशाल वट का वृक्ष छिपा होता है उसी प्रकार इसमें सारा त्रिभुवन समाया हुआ है। कहने का तात्पर्य यह है कि छोटे से छोटा और विशाल से विशाल कार्य बिना मन की एकाग्रता के नहीं हो सकता है।

मानव मननशील प्राणी है। इसकी मनन की प्रक्रिया मन से ही सम्भव है। मने मानव की संकल्प-विकल्प शक्ति है और मनन मेन का धर्म है। इसी के द्वारा मानव, मानव है। इसकी गति पवन से भी तीव्र है। सच मानो तो यह स्वयं ही ब्रह्माण्ड है। जो कुछ बाह्य रूप में घटित होता है, वह इसमें घटित होता है। यह सृष्टि की वह शक्ति है जिसकी समानता अन्य किसी पदार्थ से नहीं हो सकती है।

मन सब बातों का स्रोत

मन वह स्रोत है जिसमें विचार रूपी जलधाराएँ अनायास ही सम्भूत होती हैं। विचारों का प्रवाह लगातार बहता रहता है। इस अगाध प्रवाह को रोकने की क्षमता किसी में नहीं है। इसी प्रवाह के वशीभूत होकर मानव कर्म करता है और उसी के अनुसार वह फल भोगता है। तुलसी के इन शब्दों को देखिये –

कर्म प्रधान विश्व करि राखी ।।

जो जस करहि सो तस फल चाखा ।।”

कर्म में विचार के बाद प्रवृत्ति का आगमन होता है। अतः इच्छानुसार ही मानव की फलसिद्धि का अधिकार उपयुक्त है। विचार से कर्म, कर्म से स्वभाव और स्वभाव द्वारा चरित्र बल बनता है। मनन व्यक्ति के चरित्र निर्माण में सहयोगी है।

मन जीते जगं जीत

गुरु नानक देव जी के इस कथन में कितनी सार्थकता है ? विश्व को जीतने के लिए मन की जीत आवश्यक है। इसके पराजित होने पर मानव की पराजय निश्चित है। महाभारत के युद्ध में पार्थ को शिथिल देखकर योगीराज कृष्ण ने कर्मण्यता का उपदेश देकर उसे उत्साहित किया था।

“हे पार्थ ! तू कायरता को मत प्राप्त हो, यह तेरे योग्य नहीं। हे परंतप ! तुच्छ हृदय की दुर्बलता का त्याग कर तू उठ खड़ा हो।’

मन की विजय का एकमात्र शस्त्र है संकल्प। मन में मनन की चिन्तामणि और शक्ति पर साहस की कौस्तुभ मणि के विराजने से मानवी शक्ति इतनी प्रबल हो जाती है कि ब्रह्माण्ड की कोई भी वस्तु उनकी उपलब्धि सीमा से बाहर नहीं रह सकती है। इसके विपरीत विचलित विचारों वाला इन्सान सभी ओर से हताश और निराश रहता है। उधेड़बुन से साफल्य की आशा करना कोरी मुर्खता है।

स्वस्थ मन

स्वस्थ मन के द्वारा ही देह में शक्ति एवं स्फूर्ति का संचार होता है। यदि मन अस्वस्थ है तो देह अवश्य निष्क्रिय हो जायेगी। यह विश्व शक्तिवान का है और निर्बल का इस विश्व में कहीं भी ठिकाना नहीं है। उसका मरण मृत्यु से पूर्व ही सहस्रों बार हो जाता है और डरपोकपन का सम्बन्ध मन से होता है। डरपोकपन का दूसरा नाम ही मन की हार है। फलस्वरूप मन की हार बहुत ही भयंकर है। निडरता, अध्यवसाय, शौर्य और विषय-प्रवृत्ति मन की हार से दूर भाग जाते हैं। जो मन से पराजित हो जाते हैं, उनका मन चिन्ता रूपी अग्नि में जुलता रहता है और इस प्रकार जीवित इन्सान ही मरे हुए के समान हो जाता है।

पवित्र-अपवित्र, छोटे और बड़े, अच्छे और बुरे सभी प्रकार के विचार मन रूपी गगन में उदय होते हैं, इसी विचार-भेद से मनुष्य-मनुष्य में अन्तर आ जाता है। कोई महाशय है तो कोई क्षुद्राशय, कोई डरपोक है तो कोई हिम्मती, कोई दयालु है तो कोई निष्ठुर है, तो कोई स्वार्थी। सच तो यह है कि सुन्दर मन की ही सब जगह पूछ है।

मन की शक्ति प्रबल

सबल मानव स्वयं भाग्य का निर्माता है; परन्तु निर्बल मानव सदैव भगवान् की रट लगाये रहता है। सबल को अपनी मानसिक शक्ति पर गर्व होता है, उसकी भुजाओं में कार्य करने की क्षमता होती है, वह विधाता के हाथ का खिलौना बनना नहीं चाहता और कठपतली के समान किसी के इंगित पर नाचना नहीं चाहता। मानव इस विश्व में जितने भी कार्य करता है, उनकी सफलता अथवा असफलता मन पर आधारित है, उसे भाग्य के सिर पर मढ़ देना मूर्खों का काम है। भावों की शक्ति ही सफलता-असफलता का निर्धारण किया करती है। यदि मन रूपी बटोही ही थका हुआ है, तो गन्तव्य स्थान पर पहुँचना ही मुश्किल है। यदि मन ही किसी काम में नहीं लगता है, तो फल की आशा करना गूलर के फलों से रस निकालने के समान है। इसके विपरीत यदि अदम्य उत्साह एवं लगन से कार्य किया जाये, तो कार्य क्षमता में बढ़ोतरी होती है। अत: हमारा अध्यवसाय और पुरुषार्थ हो भाग्य है। इसकी निर्मात्री है सबल मानसिक शक्ति।

तभी तो निर्गुणपंथी कबीर दास ने मन विचलित होने से रोकते हुये कहा है।

डगमग छोड़ दे मन बौरा ।।

अब तो जरै बरै बनि आये लीने हाथ सिन्धौरा ।”

वास्तव में मानव मन ही सर्वश्रेष्ठ तीर्थ है, इसी की यात्रा करने से मानव जीवन सफल हो सकता है।

लौकिक सुख-दु:ख, हर्ष-विषाद और हार-जीत सभी मन की कल्पना हैं। मन कल्पवृक्ष है जिस पर द्वन्द्वात्मक विश्व रूपी फल लगते हैं। वह अच्छे विचारों के द्वारा सुख, हर्ष और जीत आदि पाया है और बुरे विचारों के द्वारा, दु:ख, विषाद और हार उसके हाथ लगती है। यदि मन में दृढ़ संकल्प की शक्ति विद्यमान है, तो अवश्य उसकी जीत होगी; अन्यथा वह पाप के ज्वर से पीड़ित रहेगा।

स्वस्थ मन उस दर्पण के समान है जिसमें हर्ष और विजय का ही प्रतिबिम्ब स्पष्ट रूप से दृष्टिगत होता है। ऐसा ही मन मनुष्य का सच्चा साथी है। इसके विपरीत यदि मन कभी किन्हीं चक्करों के कारण अपने मार्ग से भटक जाता है, तो वह मनुष्य के प्रबल शत्रु के समान हो जाता है। एक कवि के शब्दों से पुष्टि हो जाती है।

मन ही मन को शत्रु है, मन ही मन का मीत” ।

यदि मन बंधनों में जकड़ा हुआ है, तो वह लौकिक बन्ध्रनों का कारण है और यदि वह डरपोकपन रूपी दोष से रहित है, तो मनुष्य को मुक्ति प्रदान करने में सहायक है। यदि मन खुश है तो सर्वत्र खुशी छायी रहेगी; नहीं तो इसके विपरीत दु:ख ही रहेगा। मन ही लक्ष्य प्राप्ति का साधक है। अत: किसी ने सच कहा है-

मन के हारे हार है, मन के जीते जीत”

 

 

निबंध नंबर:-02 

मन के हारे हार है मन के जीते जीत

‘मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः ।’

मन ही मनुष्य के बन्धन और मोक्ष का कारण है। तात्पर्य यह कि मन ही सांसारिक बन्धनों में बाँधता है और मन ही बन्धनों से छुटकारा दिलाता है। यदि मन न चाहे तो व्यक्ति बड़े-बड़े बन्धनों की उपेक्षा कर सकता है और यदि मन चाहे तो छोटे-छोटे सम्बन्धों में भी व्यक्ति को अपने में जकड़ सकता है। स्वामी शंकराचार्य ने इसी सन्दर्भ में कहा है- “जिसने मन को जीत लिया, उसने जगत् को जीत लिया।” मन ही मनुष्य को स्वर्ग या नरक में बैठा देता है। स्वर्ग या नरक में जाने की कुंजी भगवान् ने हमारे हाथों में दे रखी है।

मन मानव व्यक्तित्व का वह ज्ञानात्मक रूप है, जिससे व्यक्ति के सभी कर्म संचालित होते हैं। मन में मनन की शक्ति है। मननशीलता के कारण ही मनुष्य का चिंतनशील प्राणी कहा गया है। यदि इस बात को ही स्वीकार किया जाए कि मन के टूटने पर बड़े-बड़े संकल्प धाराशायी हो जाते हैं और जब तक मन संकल्पशील रहता है तब तक कठिन से कठिन अवस्था में भी मनुष्य पराजय स्वीकार नहीं करता। मन के महत्त्व पर विचार करने के उपरान्त प्रस्तुत उक्ति के आशय पर भी विचार किया जाए-

दुःख सुख सब कहं परत है पौरुष तजहुन मीत।

मन के हारे हार है मन के जीते जीत ॥

दुःख और सुख तो सभी पर पड़ा करते हैं। इसलिए पौरुष का त्याग नहीं करना चाहिए। जय-पराजय, हानि-लाभ, यश-अपयश और दुःख-सुख सब मन के कारण है, इसलिए व्यक्ति जैसा अनुभव करेगा, वैसा ही बनेगा। हमारे सामने अनेक ऐसे उदाहरण है जिनमें मन की संकल्प शक्ति के द्वारा व्यक्तियों ने अपनी हार को विजयश्री में परिवर्तित किया है।

प्रायः देखा गया है कि जिस काम के प्रति व्यक्ति का रूझान अधिक होता है उस कार्य को वह कष्ट उठाकर भी करता है और पूरा करता है। जैसे ही मन की आसक्ति कम हो जाती है वैसे ही प्रयत्न का व्यापार ढीला पड़ जाता है। हिमाच्छादित पर्वतों पर चढ़ाई करने वाले पर्वतारोहियों के मन में अपने कर्म के प्रति आसक्ति रहती है। आसक्ति की यह भावना उन्हें निरन्तर प्रेरित करती रहती है।

वस्तुतः मन सफलता की कुंजी है। जब तक हमारे मन में किसी कार्य को करने की तीव्र इच्छा रहेगी तब तक असफल होते हुए भी उस काम को करने की आशा बनी रहेगी। प्रश्न उठता है कि मन को शक्तिशाली कैसे बनाया जाए। इसके लिए हमें पहले मन की शक्ति का अर्थ समझना होगा। यह मन पवन की गति से भी तीव्रतर है। इसलिए मन पर नियंत्रण आवश्यक है। कहा भी गया है कि जिसने अपने मन को वश में कर लिया उसने संसार को वश में कर लिया किन्तु जो मनुष्य मन को न जीतकर स्वयं उसके वश में हो जाता है वह मानो सारे संसार की अधीनता स्वीकार कर लेता है।

चंचल मन को एकाग्र करने की आवश्यकता है। चंचल रहते हुए उसमें किसी प्रकार की शक्ति का संचालन संभव नहीं। एकाग्रता के लिए आवश्यक है कि हम विचारों के चक्र को रोकें, जीवन को शुद्ध बनाएं, आचार-विचार में सत्यता का पालन करें, अन्याय का विरोध करें। स्वार्थ-सिद्धि और वासना-तृप्ति से मुक्त रहें। जब हम अपने मन के राजमहल को कलुषताओं से मुक्त कर देंगे तभी एकाग्रता सध पाएगी। कबीर ने मदमत्त मन को घट के भीतर घेरकर रखने की बात कही है और पीठ देकर विपरीत दिशा में चलने पर अंकुश सामने की सलाह दी है-

मैं मंता मन मारि रे घट ही माहैं घेर ।

जब ही चालैं पीठ दै, अंकुश दै दै फेर ॥

मन को शक्ति सम्पन्न बनाने के लिए हीनता की भावना को दूर करना भी आवश्यक है। जब व्यक्ति यह सोचता है कि मैं कमजोर हूँ दीन हीन हूँ, शक्ति और साधनों से रहित हूँ, तो उसका मन कमजोर हो जाता है।

इस प्रकार मन परम शक्ति-सम्पन्न है। अन्ततः शक्ति का स्रोत मन ही है। यदि मन की इस अपरिमित शक्ति को भूलकर हमने उसे दुर्बल बना लिया तो सब कुछ होते हुए भी हम अपने को असन्तुष्ट और पराजित अनुभव करेंगे और यदि मन को शक्ति-सम्पन्न बनाकर रखेंगे तो जीवन में पराजय और असफलता का अनुभव कभी नहीं होगा। इसी हेतु कहा गया है-

“मन के हारे हार है, मन के जीते जीत।”

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