Hindi Essay on “Majhab Nahi Sikhata Aapas me ber Rakhna” , ” मजहब नहीं सिखाता आपास में बैर रखना” Complete Hindi Essay for Class 10, Class 12 and Graduation and other classes.
मजहब नहीं सिखाता आपास में बैर रखना
सभी धर्म या मजहब महान मानवीय मूल्यों को महत्व देते हैं। किसी भी मजहब या धर्म का संबंध व्यक्ति के मस्तिष्क या तर्क-शक्ति के साथ नहीं, बल्कि हदय और भावना के साथ स्वीकार किया जाता है। इसी कारण भावना प्रवण व्यक्ति किसी तर्क-वितर्क पर ध्यान न दे प्राय: भावनाओं में ही बहता जाता है। भावनाओं में बहाव व्यक्ति के सतर पर तो बुरा नहीं, पर जब कोई वर्ग या समूह विशेष मजहब या धर्म से संबंधित भावुकता-भावना को ही सब-कुछ मान लिया करता है तब निश्चय ही कोई प्रकार की कारक समस्यांए उत्पन्न हो जाया करती है, उनके परिणाम भी बड़े मारक हुआ करते हैं। इसी कारण समझदार लोग प्रत्येक स्थिति में भावना के साथ वृद्धि और मानवीय कर्तव्य का समन्वय बनाए रखने की बात कहते एंव प्रेरणा दिया करते हैं। ऐसा करके ही प्रत्येक व्यक्ति अपने-अपने मजहब या धर्म पर कायम रहते हुए सारी मानवता के लिए शुभ एंव सुखकर प्रमाणित हो सकता है।
मजहब या धर्म व्यक्ति को सामान्य, सुसुभ्य ओर सुसंस्कृत बनाकर सभी प्रकार के अच्छे तत्वों को धारण करने, उनकी रखा करने की शक्ति दिया करता है। इस दृष्टि से मजहबी या धार्मिंग व्यक्ति वही है, जो उदात्त मानवीय धारणाओं को धारण करने में समर्थ हुआ करता है। इन तथ्यों के आलोक में यह भी कहा जा सकता है कि मजहब या धर्म का संबंध न तो किसी जाती-वर्ग विशेष के साथ हुआ करता है और न ही वह जाहिलों अशिक्षितों-अनपढ़ों की वस्तु है। उसके लिए व्यक्ति का मानवता के समस्त सदगुणों की प्रति विश्वास ही होना, खुले एंव सुलझे हुए मन-मस्तिष्क वाला और सुशिक्षित होना भी बहुत आवश्यक है। ऐसा न होने पर भावुक आस्थाओं पर टिका हुआ गजहब या धर्म अपने आप में तो बखेड़ा बनकर रह ही जाता है अनेक प्रकार के बखेड़ों का जनक भी बन जाता है, जिसे कोई भी मजहब या धर्म उचित नहीं स्वीकारता।
यों मजहबपरस्ती या धार्मिकता बुरी चीज नहीं है। यह मनुष्यय में समानता, सहकारिता, सदभावना ओर सबसे बढक़र ईश्वरीय एंव मानवीय आस्था प्रदान करनी है। पर कई बार कुछ कट्टरपंथी, जो पढ़े-लिखे होते हुए भी सहज मानवीय भावना के स्तर पर वस्तुत: जाहिल ही हुआ करते हैं, मजहब या धर्म के उन्माद में कुछ ऐसा कह या कर दिया करते हैं कि जो सारे वातावरण की अभिशप्त, अस्वास्थ्यकर और विषैला बना दिया करता है। हमारा देश इस प्रकार की कट्टरपंथी मजहबी दीवानगी का ही परिणाम था। आज भी कई बार मजहबी चिंगारियां भडक़ कर मानवता को जलाती रहती है। सोचने की बात है कि आखिर ऐसा क्यों होता है और कब तक अपने को राम-रहीम के प्यार कहने वाले, अपने को सुसंस्कृत-शिक्षित मानव कहने वाले हम लोग सब बर्दाश्त करते रहेंगे।
मजहब या धर्म वास्तव में बड़ी ही कोमल-कांत ओर पवित्र भावात्मक वस्तु है। उसका स्वरूप सकार न होकर भावनात्मक और निराकार ही रहता है। उस परम शक्ति के समान, जो अपने-आप में अनन्त-असीम होते हुए भी अरूप और नाराकार ही हुआ करती है। इसी कारण मजहब या धर्म सदा-सर्वदा अस्पृश्य और अदृश्य ही रहता है। यह भी एक निखरा हुआ सर्वमान्य तथ्य है कि अपने-आप में कोई भी मजहब या धर्म मानव-मानव में किसी प्रकार का वैर-विरोध करना नहीं सिखाता। हर स्तर पर मानवता का विकास व सम्मान, प्रत्येक मजहब-धर्म का मूल तत्व है। हर धार्मिक नेता ने मात्र इसी बात काा समर्थन किया है। दया, करुणा, सभी के प्रति प्रेम और सम्मान के साथ अपनेपन का भाव, शांति और अपने-अपने कर्तव्य के प्रति पूर्ति समर्पित आस्था-वस्तुत: हर धर्म या मजहब का मूल मंत्र यही बातें हैं इन्हीं की रक्षा के लिए वास्तविक धार्मिक नेता अपने प्राणों तक का बलिदान करने को तत्पर रहकर त्याग तपस्या के आदर्श की स्थापना किया करते हैं। पर यह हमारा दुर्भाज्य है कि धर्मों के मूल रहस्यों को भुलाकर हम कई बार पशु बन जाया करते हें। तब मनुष्यों के तो केवल शरीर ही मरते या नष्ट होते हैं। वास्तविक आघात धर्मों, मजहबों की मूल अवधारणाओं पर हुआ करता है। मरती वे पवित्र और उदात भावनांए हैं जिन्हें धर्म या मजहब कहा जाता है। इसी क्रिया को मानव की हीनता और बौद्धिक दीवालियापन ही कहा जाएगा।
भारत एक सर्व-धर्म-समन्यवादी देश है। समन्वय-साधना आरंभ से ही भारतीय सभ्यता-संस्कृति की मूल भावना और प्रवत्ति रही है।। इसी कारण भारत की सभ्यता, संस्कति कहा माना जाता है। आरंभ या अत्यंत प्राचीन काल से यहां अने क प्रकार के लोग आक्रमणकारी या लुटेरे बनकर आते रहे। पर अंत में यहां की उदात्त मानवीय चेतनाओं से प्रभावित होकर यहीं के होकर रह गए। अनंत सागर के अनंत प्रवाह के समान भारत ने भी उन्हें अपने में समाकर एकत्व प्रदान कर दिया। आज भी भारत में अनेक धर्मों और सभ्यता-संस्कृ़तियों को मानने वाले लोग निवास करते हैं। अपनी-अपनी धार्मिंग आस्थाओं के अनुसार रहने-चलने की उन्हें संवैधानिक स्वतंत्रता एंव गारंटी प्राप्त है। फिर भी यहां कभी-कभार विभिन्न मजहब या धर्म परस्पर टकरा जाया करते हैं। ऐसा होना वस्तुत: आश्चर्यजनक और विचाराणीय बात है।
मजहबी या धार्मिक टकराव क्यों होकर देश की शांति को भंग करते रहते हैं? इस प्रश्न के उत्तर में मुख्य रूप से दो ही कारण खोजे-माने जा सकते हैं। इस प्रकार की समस्त विषमताओं का सर्वोत्तम और सरलतम उपाय है कि हम शायर इकबाल के कथन का वास्तविक अर्थ समझें। वह यही है कि मजहब और धर्म वैर-विरोध या फिरकापरस्ती, किस प्रकार की कट्टर सांप्रदायिकता का नाम नहीं है। वह तो दया, धर्म प्रेम और मानवता के महान गुणों का नाम है। उन्हें अपनाकर ही प्रत्येक व्यक्ति अपने-अपने विश्वासों पर चलते हुए, गर्व और गौरव के साथ घोषित कर सकता है कि –
‘मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना,
हिंदू हैं हम, वतन है, हिंदोस्तों हमारा।।’