Hindi Essay on “Censor Board ki Bhumika” , ”सेंसर बोर्ड की भूमिका” Complete Hindi Essay for Class 10, Class 12 and Graduation and other classes.
सेंसर बोर्ड की भूमिका
Censor Board ki Bhumika
ज्ञातव्य है कि भारतीय फिल्म उद्योग दुनिया में सबसे बड़ा है। सांस्कृतिक क्षेत्र में फिल्म निर्माण एवं प्रदर्शन का स्थान महत्त्वपूर्ण है। क्योंकि जनतंत्र में यह सर्वाधिक प्रशंसित विधा है। जनता के राय-निर्माण और उन्हें जानकारियां उपलब्ध कराने मंे, उनके जीवन और परंपराओं को समझने में फिल्मों की उल्लेखनीय भूमिका होती है। लोगों के विचारांे और सोच को प्रभावित करने की क्षमता जितनी फिल्मों में है उतनी अन्य किसी माध्यम में नहीं। वस्तुतः फिल्में भारतीय जीवन का एक अभिन्न अंग बन गई हैं। भारत में प्रेस स्वतंत्र है और यही स्वतंत्रता फिल्मों को भी हासिल है। यह सरकारी नियंत्रण से मुक्त स्वतंत्र उद्यम है। सिनेमा अथवा प्रेस को संविधान में अलग से सूचीबद्ध नहीं किया गया है। प्रेस और सिनेमा संविधान के मौलिक अधिकारों में शामिल हैं। जिनमें बोलने और अभिव्यक्ति (अनुच्छेद 10 (1) (क) में वर्णित) की स्वतंत्रता को शामिल किया गया है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अर्थ है अपने विचारों को वाणी, लेखन, चित्रकला अथवा फिल्म सहित किसी अन्य तरीके से व्यक्त करने की स्वतंत्रता।
मीडिया हमारे देश में आजाद है लेकिन फिल्म के संदर्भ में यह आवश्यक समझा गया कि बाजार में प्रदर्शित किए जाने से पूर्व एक बार उनकी जांच कर ली जाए। ऐसा इसलिए कि दृश्य-श्रव्य (।नकपव.टपेनंस) माध्यम होने के कारण इसका प्रभाव मुद्रित सामग्री की बनिस्बत काफी अधिक होता है। फिल्म विचारों और गतिविधियों को प्रेरित करती है तथा अधिक ध्यान आकर्षित करती हैं। हमारे देखने और सूनने की इंद्रियों को इसका प्रभाव एक साथ उद्वेलित करता है। पर्दे पर तीव्र प्रकाश का केंद्रण तथा तथ्यांे और विचारों की नाटकीय प्रस्तुति उन्हें अधिक प्रभावशाली बनाती है। सिनेमाघर के धुंधलके में अभिनय और आवाज, दृश्य और ध्वनि का संगम एकाग्रता भंग करने वाले सभी कारकों को नष्ट करते हुए दर्शकों के मस्तिष्क पर स्पष्ट प्रभाव डालता है। इसलिए कहा जा सकता है कि फिल्मों में भावनाओं को आहत करने की जितनी क्षमता है उतनी ही बुरा करने की भी। इन्हीं विशेषताआंे के आलोक में, खासकर इस तथ्य के मद्देनजर कि आमतौर पर दर्शक सिनेमा की अंतर्वस्तु के चयन को लेकर सतर्क नहीं होते, इस माध्यम की तुलना अन्य माध्यमों से नहीं की जा सकती। इसीलिए, समाचार-पत्रों और पत्रिकाओं की तरह इसे स्वच्छंद रूप से प्रदर्शित नहीं किया जा सकता और उनकी सेंसरशिप न केवल अपेक्षित, बल्कि अनिवार्य हो जाती हैं।
भारत में फिल्मों का प्रदर्शन केन्द्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड द्वारा उन्हंे प्रमाणित करने के बाद ही किया जा सकता है। बेरोक-टोक सभी वर्ग के दर्शकों को दिखाई जाने योग्य फिल्मों को ‘यू’ प्रमाणपत्र दिया जाता है। जिन फिल्मों को 12 वर्ष से कम उम्र के बच्चों को न दिखाने योग्य माना जाता है, उन्हें ‘यू/ए’ प्रमाणपत्र जारी किया जाता है। केवल वयस्कों को दिखाई जा सकने वाली फिल्मों को ‘ए’ प्रमाणपत्र जारी किया जाता है। सार्वजनिक प्रदर्शन के लिए अनुपयुक्त फिल्मों को प्रमाणपत्र जारी नहीं किया जाता है।
केन्द्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड का गठन 1952 के अधिनियम तथा सिनेमेटोग्राफ (प्रमाणन) विनियम 1993 के अनुरूप किया गया। वर्तमान समय में मुंबई, कोलकाता, चेन्नई, हैदराबाद, बंगलोर, गुवाहाटी, तिरूवनन्तपुरम, कटक तथा नई दिल्ली में नौ क्षेत्रीय कार्यालय हैं जो फिल्म निर्माण के केन्द्रीय तथा उदयमान केन्द्रों की आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं। इस तरह बोर्ड पूरी तरह से एक विकेन्द्रीकृत संस्था है जो भारत जैसे देश की विविधता के अनुरूप है। प्रत्येक क्षेत्रीय कार्यालय की परामर्शदात्री समिति के सदस्य भी विभिन्न विधाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं ताकि समाज मंे व्याप्त विभिन्न दृष्टिकोणों और विचारों का फिल्म प्रमाणन के क्रम में प्रतिनिधित्व कर सकें।
बोर्ड में फिल्मों की जांच और संशोधन की दो अलग-अलग समितियां होती हैं। इनसे फिल्म प्रमाणन की प्रक्रिया द्विस्तरीय हो जाती हैं। जांच समिति में विचार-मतभेद होने की स्थिति में अथवा उनके निर्णय से आवेदक के असंतुष्ट होने की हालत मेें फिल्म को संशोधन समिति के पास भेजा जाता है। बोर्ड के निर्णय के खिलाफ फिल्म प्रमाणन अपीलीय ट्रिब्यूनल मंे अपील की जा सकती है, जिसके उध्यक्ष उच्च न्यायालय के आवकाश प्राप्त न्यायाधीश होते हैं। प्रमाणन संबंधी नियम विदेशी फिल्मों, डब की गई फिल्मों तथा वीडियों फिल्मों का प्रमाणन नहीं होता, क्योंकि दूरदर्शन स्वयं फिल्मों की जांच करता है।
बदलते हुए सामाजिक परिदृश्य में सेक्स तथा हिंसा के प्रदर्शन को रोकने हेतु निम्नांकित उपाय किए गए हैं-
– दूरदर्शन पर दिखाए जाने वाली भारतीय फिल्मों के टेªलर और गानों को अब प्री-सेंसरशिप के लिए भेजा जाता है।
– यह सुनिश्चित किया गया है कि प्रत्येक जांच समिति/संशोधन समिति की कम से कम 50 प्रतिशत सदस्य महिलाएं हों।
– बोर्ड तथा परामर्शदात्री समिति के सदस्यों को दिशा-निर्देशों का कठोरतापूर्वक पालन करने के लिए कहा गया है।
– जिन दिशा-निर्देशों का बार-बार उल्लंघन किया जाता है, उनके बारे में स्पष्टीकरण जारी किए गए हैं।
– किसी फिल्म के सार्वजनिक प्रदर्शन की अनुशंसा करने वाली जांच समिति/संशोधन समिति/फिल्म प्रमाणन अपीलीय ट्रिब्यूनल के सदस्यांे के नाम उसके प्रमाणपत्र पर दिखाए जाते हैं।
इधर सिनेमा संस्कृति की पांरपरिक दृष्टि में बदलाव आ रहा है और अधिक बोल्ड तथा लीक से हटकर विषयों पर फिल्में बनाई जा रही हैं। नागरिक अधिकार संगठन भी काफी सक्रिय हो उठे हैं और फिल्मकारों से बच्चों के साथ दुव्र्यवहार, महिलाओं की घिसी-पिटी छवि की प्रस्तुति, पशुओं के प्रति क्रूरता आदि जैसे विषयों पर निरंतर संवाद कर रहे हैं। इन सब कारणों से सेंसरशिप का कार्य और अधिक चुनौतीपूर्ण हो गया है। हर वक्त तेजी से परिवर्तनशील समाज की नब्ज पर ध्यान रखना जरूरी हो गया है। लेकिन यह सवाल अभी भी बना हुआ है कि दर्शकों के लिए क्या उपयुक्त है और क्या नहीं, इसका निर्णय कौन करे? इस सवाल का उत्तर आसान नहीं है। हां, यह जरूर कहा जा सकता है कि संेसरशिप को समाज के प्रति जवाबदेह होना चाहिए। इसका मकसद मनमाने तरीके से कैंची चलाकर खेल खराब करना न हो, बल्कि फिल्मों की इस तरह जांच करना हो कि दर्शकों की संवेदनाएं आहत न होने पाएं, यही सबसे बड़ी चुनौती है।