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Hindi Essay on “Bharatiya Samaj me Kuritiya ” , ”भारतीय समाज में  कुरीतिया” Complete Hindi Essay for Class 9, Class 10, Class 12 and Graduation and other classes.

भारतीय समाज में  कुरीतिया

Bharatiya Samaj me Kuritiya 

कुरीतियां या कुप्रथांए किसी भी समाज और उसके देश को कभी आगे नहीं बढऩे दिया करती। धीरे-धीरे वे एक-दूसरे को देखकर जब जीवन-समाज का अपरिहार्य अंग बन जाया करती है, तब उस देश-समाज का मालिक भगवान ही हुआ करता है। रीति-रिवाज और परंपरांए ही समय के अनुसार पुरानी और अलाभकारी होकर कुरीतियां बन जाया करती हैं। उन्हें त्यागकर ही मानव-जीवन सहज ढंग से जी पाया करता है? न त्याग पाने वाले मनुष्य और समाज जीवन का बोझ ढोते हुए अपने लिए ही अभिशाप बन जाया करते हैं। सभी का भला इसी से हो पाता है कि इस अनवरत परिवर्तनशील संसार में समय के साथ बदलता जाए। नीर-क्षीर-विवेक से जो जीवन-समाज के हितकर तथ्य एंव तत्व हैं, उन्हें अपनाकर विघटनकारी एंव अहितकर हो चुके तथ्यों-तत्वों का परित्याग कर दे। तभी जीवन की धारा स्वच्छ होकर समतल पर बहती हुई सभी की प्यास बुझा सकती है।

यह बात हमें याद रखने वाली है कि जीवन-समाज में परिवर्तन अपरिहार्य है। वास्तव में समयानुकूल परिवर्तन ही प्रगति का वास्तविक कारण एंव सूचक हुआ करता है। कुरीतियां उन हथकडिय़ों-बेडिय़ों के समान बाधक हुआ करती है कि जो व्यक्ति और समाज को स्वेच्छा से सही दिशा में एक कदम भी नहीं बढऩे दिया करतीं। जंग लगे चाकू-तलवार जैसे अपनी कुंठा से कुछ कर पाने में असमर्थ हो जाया करते हैं, उसकी प्रकार कुरीतियां भी पुरानेपन के कारण जीवन के नए क्षितिजों का उदघाटन नहीं करने देती। हमारा देश भारत अपने अनेक प्रकार की सामाजिक कुरीतियों के कारण ही ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र सब प्रकार की प्रगति एंव विकास होने पर भी बहुत आगे नहीं बढ़ पा रहा। कुरीतियों से ग्रस्त मानसिकता उन्हें त्यागने के नारे अवश्य लगाती है, पर स्वंय त्याग की राह पर चलकर आदर्श नहीं बनना चाहती है। चाहती है कि हम तो ज्यों-के-त्यों स्वार्थ साधते रहें, पर दूसरे हमारे लिए त्याग करते रहें।

सबसे पहले दहेज की कुरीति का कुप्रथा को ही लें। वर-वधु को नया जीवन शुरू करने में सहायाता पहुंचाने वाली एक अच्छी प्रथा मानवीय लोभ-लालच के कारण आज एक विनाशकारी कुप्रथा का रूप धारण कर चुकी है। हम यह तो चाहते हैं कि हमें दहेज देना न पड़े, पर जब लेने की बारी आती है, बड़े भोले भाव से स्वीकार कर लेते हैं। इसी प्रकार आज भी ऐसे लोगों की कमी नहीं कि जो यदि कहीं किसी काम आदि पर जाने लगें, उस समय कोई छींक दे, तो थोड़ी देर रुक जाना उचित मानते हैं। यह नहीं सोचते कि जब छींक ही दिया है, तो थोड़ी दे बार वही सब करना शुभ कैसे हो जाएगा कि जिसका आरंभ करते ही छींक पड़ चुकी है। यह भी नहीं सोचते कि छींक जुकाम के कारण भी हो सकती है पर नहीं दो छींके एक साथ आ जाने पर अशुभ नहीं मानते। है न कुरीति का ख्याल? इसी प्रकार ऐसे लोगों की भी कमी नहीं कि जो घर से निकलकर फिर वापिस लौट आते हैं। पूछने पर बताते है कि बिल्ली रास्ता काट गई। भले मानस यह नहीं सोचते-समझते कि बिल्ली एक घरेलू जानवर है। लोग उसे पालते हैं। सीने से लगाते फिरते हैं और साथ खिलाते-पिलाते और सुलाते हैं। जब हर समय बिल्ली के मार्थ लगते रहने से उनका कुछ नहीं बिगड़ता, तो कभी-कभार तुम्हारी राह में जाने से क्या हो जाएगा? अवश्य हो जाएगा। वह यह कि भ्रम-भाव में घर बैठे रहने पर काम की हानि। या फिर मनोवैज्ञानिक प्रभाव के कारण अनमने रहने से कुछ भी हो सकता है। दोष नाहक बिल्ली पर थोप दिया जाता है।

और भी कई छोटी-बड़ी बाते हैं कि जिन्हें आज न मान त्यागा जा रहा है या त्याग दिया गया है। जैसे आज अमुक वार है सो अमुक दिशा में नहीं जाना। आज मंगल पर शनिचर है सो तेल न खरीद कर घर लाना है, न सिर पर ही लगाना है। दाड़ी भी नहीं बनानी है। आज बृहस्पतिवार है सो कपड़े नहीं धोने हैं। आज एकादशी है इसलिए चावल नहीं चढ़ाने। आज शनिवार है, सो काले चने ही बनाकर खाने हैं। आखिर रखा कया है इन बातों में? वास्तव में कुछ भी नहीं। फिर आज तो इस प्रकार की बातों का ज्ञान और चलन ही समाप्त हो जा रहा है। अत: इस प्रकार की रीतियां-कुरीतियां अपने-आप समाप्त हो गई या होती जा रही है। कई बार इसके कारण भी कोईरीति बन या बना दी जाती है। छत पर परंग उड़ाता पड़ोस का बच्चा गिर गया। तो अपना बच्चा जब पतंग उड़ाने के काबिल हो जिद करने लगा, कह दिया कि हमारे कुल की रीति नहीं है पतंग उड़ानाा या अमुक काम करना। बस-बन गई वंश-परंपरा या रीति, जब कि वास्तव में है कोई कारण नहीं।

हमारा विचार है कि रीतियां इसी प्रकार बनती और फिर समय के साथ कुरीतियां घोषित होकर धीरे-धीरे समाप्त हो जाती हैं। हमारे जीवन में भी यदि आज की वैज्ञानिक दृष्टि से इस प्रकार की बात है, कुरीति या कुपरंपरा है, तो हमें उसका त्याग कम औरों को भी वैसी बातों-कुरीतियों से बचे रहने की प्रेरणा लेनी चाहिए। तभी सहज-सरल जीवन जिया जा सकता है।

एक ओर हम अपनी बातचीत में अन्य कई प्रकार की कुरीतियों को भी त्यागने पर बल दिया करते हैं, पर दूसरी ओर स्वंय अपना आचरण-व्यवहार तक वास्तव में बदल नहीं पाते। कितनी विडंबना की बात है कि यह अच्छी तरह जानते हुए भी कि मूलत: आज के युग में जातिवाद, वर्ण-व्यवस्था आदि के भेद-भावों का कोई महत्व नहीं रह गया। जातियां ओर वर्ण अपने लिए निश्चित काम-धंधे तो क्या करते, निर्धारित काम पर चल तक नहीं पा रहे। फिर वह जाने-अनजाने कोल्हू के बैल बने बलात उन्हें ढोए जा रहे रहे हैं। इतना सब होने पर भी सवर्ण-अवर्ण का रोना रोते रहना, नारे लगाकर सभी क्षेत्रों में स्थान आरक्षित चाहना कुरीतियों को प्रश्रय देना नहीं तो और क्या है?

कुरीतियां वास्तव में आज हमारे भीतर विद्यमान सड़-गल चुके संस्कारों की ही देन है। इस प्रकार सड़ चुके मलबे को दूर हटाकर ही जैसे शरीर के स्वास्थ्य की सुरक्षा संभव हुआ करती है। वैसे ही जीवन-समाज के स्वास्थ्य की रक्षा के लिए सड़े-गले संस्कारों के कारण पल रही कुरीतियों-कुप्रथाओं को त्यागना भी परमावश्यक है? समय के अनुसार बनने वाली यह बन रही रीतियों, परंपराओं को ताजी हवा के सुखद झोकों की तरह जब तक जीवन-समाज में पदार्पण नहीं करने दिया जाएग, किसी का भी भला नहीं हो सकेगा। अन्य कोई रास्ता हमें विकास की सामूहिक मंजिल तक नहीं पहुंचा सकता।

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