Hindi Diwas – 14 September “हिन्दी दिवस – 14 सितम्बर” Hindi Nibandh, Essay for Class 9, 10 and 12 Students.
हिन्दी दिवस – 14 सितम्बर (Hindi Diwas – 14 September)
राष्ट्रभाषा हिन्दी के लिए संकल्प लेने का दिन (Day of taking resolution for national language Hindi)
भाषा वह साधन है जिसके द्वारा मनुष्य अपने विचारों को दूसरों तक पहुँचाता है तथा दूसरों के विचारों को भली-भाँति ग्रहण करता है। कला, साहित्य, विज्ञान, वाणिज्य तथा जीवन के सभी क्षेत्रों में अभिव्यक्ति के लिए सशक्त माध्यम भाषा की अत्यन्त आवश्यकता होती है। मानव-सभ्यता के विकास के विभिन्न चरणों में भाषा का विकास हुआ है और भाषा के विकास के साथ-साथ मानव का सभ्यता, संस्कृति तथा ज्ञान का क्षेत्र विकसित हुआ है।
हमारा देश प्राचीनतम देश है, अतः यहाँ भाषागत सम्पन्नता और विविधता प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। भारत जितना बड़ा देश है। उतनी ही सांस्कृतिक विविधता बहुत हद तक परिपक्व और उन्नत है। यहाँ की संस्कृति में विविधता है। रहन-सहन, भाषा, रीति- रिवाज, तीज-त्यौहार, धर्म और विश्वास की विविधता यहाँ की विशेषता है। पूरे के पूरे उत्तर भारत में संस्कृति मूल की भाषाएँ बोली जाती हैं। दक्षिण भारत में भाषाएँ तो भिन्न मूल की हैं परन्तु संस्कृति की शब्दावली उनमें भी प्रचुरता से घुली मिली है। भारतीय भाषाओं में हिन्दी अपने क्षेत्र, स्थान, विस्तार, विकास तथा बोलने वालों की संख्या की दृष्टि से उच्च स्थान रखती है। बंगला, असमिया, उड़िया, पंजाबी, गुजराती, कश्मीरी, राजस्थानी आदि भारतीय भाषाओं के साथ हिन्दी का बहिन का सा सम्बन्ध है। संस्कृत इन सबकी जननी है।
भारतीय भाषाओं में हिन्दी को राष्ट्रभाषा होने का गौरव प्राप्त हुआ है। 14 सितम्बर, 1949 ई. को भारतीय संविधान सभा ने सर्वसम्मति से हिन्दी को राष्ट्रभाषा स्वीकार किया था और यह निश्चय किया था कि संविधान लागू होने के 15 वर्ष के अन्दर समस्त देश में वैधानिक और व्यावहारिक रूप में राष्ट्रभाषा का स्थान प्राप्त कर लेगी तथा राज-काज का सम्पूर्ण भार वहन करेगी।
भारत की लगभग पचास प्रतिशत जनसंख्या हिन्दी बोलती या समझती है। ऐसी दशा में राष्ट्रभाषा बनने के लिए हिन्दी का कोई विकल्प भी नहीं है। यहाँ तक कि अंग्रेजी यहाँ के दो प्रतिशत व्यक्ति ही समझते हैं। शेष भारतीय भाषाएँ अपने-अपने प्रान्तों तक ही सीमित है। हिन्दी, भाषा गतिशील, समन्वयकारी, सरल व्याकरण पर आधारित, सहज व सीखने योग्य है। हिन्दी भाषा का साहित्य-कलेवर भी अन्य भारतीय भाषाओं की तुलना में विशाल है।
हमारा राष्ट्र सदियों तक अंग्रेजों व अन्य विदेशियों का गुलाम रहा और विभिन्न विदेशी शासकों ने अपने देश की भाषा के माध्यम से शासन कार्यों को संचालित किया। स्वतन्त्रता के पूर्व अंग्रेजी शासनकाल में समस्त कार्य अंग्रेजी में ही सम्पन्न होते थे, लेकिन स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात् भी अंग्रेजी में शासन के कार्यों का संचालन हमारे लिए अत्यन्त ही लज्जा का विषय है।
भारतीय शासन के उच्च पदाधिकारी हिन्दी सीखना व्यर्थ का झंझट मानकर इस भाषा के प्रति उदासीन रहते हैं। वे अंग्रेजी भाषा को अपने से नीचे के अधिकारियों के लिए एक शस्त्र के रूप में प्रयोग करते हैं। वे यह भी समझते हैं कि हिन्दी को दिन-रात सीखने पर भी वे उसमें अंग्रेजी के समान पारंगत नहीं हो सकते हैं। इसमें एक सबसे बड़ा कारण सरकारी मिशनरी की उदासीनता भी है जिसके कारण हिन्दी को शासन के कार्यों में व्यावहारिक रूप में प्रयोग नहीं किया जा रहा है।
संविधान में हिन्दी के राष्ट्र-भाषा घोषित हो जाने पर भी इसके विरोध की सुलगती चिनगारियों को नहीं बुझाया जा सका। जिस प्रकार फसल के साथ उसको नष्ट करने वाले कीटाणु एवं बीमारियाँ भी पनपती हैं उसी प्रकार हिन्दी विरोधी भी अपने को सक्रिय बनाने लगे। जिस तरह से थोड़ी-सी ही असावधानी होने के कारण कीटाणु फसल को नष्ट करने में समर्थ हो जाते हैं वही स्थिति इन हिन्दी विरोधियों की भी हो गई। स्वार्थलिप्त राजनेताओं एवं अंग्रेजी के गुलामों ने हिन्दी के अस्तित्व को समाप्त करने के भरसक प्रयास किए, लेकिन उन्हें इस कार्य में असफलता ही हाथ लगी।
पं० जवाहरलाल नेहरू के प्रधानमंत्रित्व काल में दक्षिण में हिन्दी विरोधी आंदोलन हुए, प्रदर्शन किए गए, अनेक व्यक्तियों ने आत्मघात किए, राष्ट्रीय सम्पत्ति की तोड़-फोड़ की गई। फलतः 15 साल के समय को और अधिक लम्बा कर दिया गया। आजकल हिन्दी का प्रचलन अहिन्दी भाषी प्रान्तों के ऊपर निर्भर है। दूसरे शब्दों में, हम कह सकते हैं कि हिन्दी विरोधी आंदोलन सरकार की उदासीनता का ही दूसरा नाम है।
स्वार्थी राजनीतिज्ञ हिन्दी के विरोध को दबाने के बजाए उसे और उभारने का प्रयत्न करते हैं। वह केवल मात्र अपने स्वार्थों को सिद्ध करने हेतु हिन्दी के प्रति मौखिक सहानुभूति ही प्रकट करते हैं, उसके प्रचार एवं प्रसार हेतु ठोस कदम उठाना नहीं चाहते। राजनीतिज्ञों ने हिन्दी प्रचार की जब कभी दुन्दुभी बजाई भी तो मात्र अपने स्वार्थी के लिए। यदि सरकार ऐसे विरोधियों का दृढ़ता के साथ दमन करने लग जाए तो यह कोई बड़ी बात नहीं है।
कुछ लोग हिन्दी को संस्कृतनिष्ठ बताकर उसकी आलोचना करते हैं, परन्तु यह उनकी बहुत बड़ी भूल है। अहिन्दीभाषी हिन्दी के कुछ शब्दों पर हँसते हैं, परन्तु उनका यह हास्य भ्रामक एवं द्वेषपूर्ण है। संस्कृत से केवल हिन्दी का ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण भारतीय भाषाओं का विकास हुआ है। संस्कृत के शब्द जितने अन्य भाषाओं में हैं उतने तो हिन्दी में भी नहीं हैं।
हिन्दी हमारे देश की राष्ट्रभाषा है। अब यह प्रश्न उपस्थित होता है कि हिन्दी के स्वरूप का कैसे निर्धारण किया जाए। यदि हम गम्भीरतापूर्वक मनन करें तो इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि संस्कृत भाषा भारत की अधिकांश भाषाओं की जननी है। हिन्दी के तत्सम शब्दों में, दूसरी भाषा बोलने वालों को नाम मात्र की भी कठिनाई तथा दुरूहता का अनुभव नहीं होगा। साथ ही यह बात भी विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि अप्रचलित संस्कृत शब्दों को अपनाने से भाषा अपने व्यवहार के रूप को खो बैठेगी। अंग्रेजी एवं उर्दू में दैनिक जीवन में प्रयुक्त होने वाले शब्द स्कूल, मास्टर, कोर्ट, शरीर तथा स्टेशन आदि प्रचलित शब्दों को अपनाने से भाषा में व्यावहारिकता का संचार होगा।
यदि हम यथार्थ में राष्ट्र भाषा हिन्दी को विकास के पथ पर अग्रसर देखना चाहते हैं तो सबसे पहले हमें अंग्रेजी भाषा के एकाधिकार को समाप्त करना होगा। साथ ही हिन्दी प्रेमियों तथा हिन्दी की मान्य संस्थाओं को राष्ट्र-भाषा के विकास में कठोर साधना करनी होगी। हिन्दीभाषी राज्यों को एवं विश्वविद्यालयों को भी सहयोग देना चाहिए। सम्पूर्ण राज्य कार्य के संचालन के लिए हिन्दी में उचित शब्दों का समावेश होना चाहिए। हिन्दी का ज्ञान अनिवार्य घोषित कर देना चाहिए। हिन्दी में वैज्ञानिक कोष तैयार होना चाहिए।
देश के बहुसंख्यक मनुष्यों की भाषा होने के कारण हिन्दी का दायित्व सबसे महत्त्वपूर्ण है। आज भी श्रीनगर से लेकर त्रिवेन्द्रम तक हिन्दी प्रेमी, कवि, लेखक तथा शायर विद्यमान हैं। हिन्दीभाषियों को उस दिवस की प्रतीक्षा में रहना चाहिए जब हिन्दी भागीरथ गंगा किनारे से नहीं, अपितु उसकी माँग कृष्णा और कावेरी के पुनीत पुलिनों से दुहराई जाए। वह दिन अधिक दूर नहीं जबकि ऐसा स्वप्न साकार होगा। इसमें केवलमात्र एक अपेक्षा है कि हमारे दिलों में सभी भारतीय भाषाओं के लिए समानरूपेण श्रद्धा की भावना विद्यमान रहनी चाहिए। साथ ही हमें राष्ट्रभाषा हिन्दी के बहुमुखी विकास के लिए प्राण- प्रण से जुट जाना चाहिए।