Chhand Ki Paribhasha, Ang, Bhed, Chhand ke Prakar aur Udahran | छन्द की परिभाषा, अंग, भेद, कितने प्रकार के होते है और उदाहरण
छंद परिचय
Chand Parichay
परिभाषा – जब काव्य रचना का आधार मात्राओं और वर्णों की गिनती की सुनिश्चितता को बनाया जाता है, तब वहाँ छंद निर्मित होता है। अतः वर्णों की संख्या, मात्राओं की संख्या और काव्य रचना को छंद कहा जायेगा।
उदाहरण – (मात्राओं की संख्या, क्रम, यति-गति, तुक विहीन रचना)-
ऊधौ दस-बीस मन न भये
एक गयौ स्याम संग, कौन ईस आराधै।
केसव बिना इंद्री सिथिल, ज्यों सिर के बिना देह।
छंद रचना – (मात्राओं की निश्चित संख्या, क्रम, यति-गति और तुकांत रचना)
ऊधौ मन न भये दस-बीस ।
एक हुतौ सो स्याम संग, को आराधै ईस।
इंद्री सिथिल भई केसव बिनु, ज्यों देहि बिनु सीस।
छंद के अंग
छंद के प्रमुख रूप से 6 अंग होते हैं –
- चरण, 2. मात्रा व वर्ण, 3. गण, 4. यति, 5. गति और 6. तुक। चरण – छंद में पंक्तियों के एक भाग को चरण कहते हैं। छंदों में प्रायः चार चरण होते हैं। प्रत्येक चरण में मात्रा व वर्णों की संख्या छंद के नियमानुसार होती है –
चारू चंद्र की चंचल किरणें,
खेल रही हैं जल-थल में।
स्वच्छ चाँदनी बिछी हुई है
अवनि और अंबरतल में।
चरण के दो भेद हैं-
सम चरण और विषम चरण।
सम चरण – जब प्रत्येक चरण में एक जैसी संख्या में मात्रायें होती है तो सम चरण कहलाते हैं। चौपाई के प्रत्येक चरण में 16 मात्राएँ होती हैं, इसलिये
यह सम मात्रिक छंद कहलाता है।
चौपाई : बरसा बिगत सरद रितु आई।
लछिमन देखहु परम सुहाई।
फूले काँस सकल महि छाई,
जनु बरखा कृत प्रगट बुढ़ाई।
विषम चरण जब किसी छंद के चरणों में अलग-अलग मात्रायें हों तो उन्हें विषम चरण कहते हैं। दोहा ऐसा ही छंद है। इसके पहले और तीसरे चरण में 13-13 और दूसरे चौथे चरण में 11-11 मात्राएँ होती हैं।
दोहा – रहिमन पानी राखिये, बिन पानी सब सून।
पानी गये न ऊबरै, मोती, मानुस, चून।
मात्रा – किसी वर्ण के उच्चारण में जो समय लगता है, उसे मात्रा कहते हैं। मात्रा की दृष्टि से वर्ण दो प्रकार के होते हैं – लघु वर्ण और दीर्घ वर्ण। लघु वर्ण में एक मात्रा गिनी जाती है, और दीर्घ वर्ण में दो मात्रायें गिनी जाती हैं। एक मात्रा को लघु और दो मात्रा को गुरू कहते है। लघु का चिन्ह (1) तथा गुरू का चिन्ह (S) होता है।
लय – लय आवाज के उतार-चढ़ाव को कहते हैं। प्रत्येक पद्य का यह लगभग अनिवार्य गुण है। पद्य की प्रत्येक पंक्ति में शब्दों का चुनाव और अनुक्रम इस प्रकार होता है कि इसमें लय तथा संगीतात्मकता आ जाती है, वह गेय बन जाता है।
है बिखेर देती वसुंधरा मोती सबके सोने पर,
रवि बटोर लेता है उसको सदा सबेरा होने पर।
यह पद्य का उदाहरण है तथा इसमें ताल और गेयता स्पष्ट ज्ञात होती है।
तुक – पद्य की पंक्तियों के अंतिम वर्णों में परस्पर जो ध्वनि साम्य होता है, उसे तुक या अत्यानुप्रास कहते हैं। ऊपर दिये गये उदाहरणों में इसे स्पष्ट देख सकते हैं।
गति – गति और लय वास्तव में परस्परापेक्षी हैं। एक के रहने पर दूसरी भी रहती है। पद्य रचना यदि लयात्मक है, तो उसमें गति या प्रवाह भी होगा। यदि लय या गति में बाधा हो, तो दूसरी में भी व्यवधान उपस्थित हो जायेगा।
यति – यदि किसी पद्य रचना के चरण दीर्घ होते हैं, तो बीच में श्वास को विश्राम देने के निमित्त यति या विश्राम स्थल भी निर्धारित होता है। जैसे प्रत्येक दोहे में तेरहवीं मात्रा पर यति स्थान निश्चित है। इसे अल्पविराम चिह्न द्वारा दर्शाया जाता है।
माला ‘फेरत जुग भया, गया न मन का फेर।
कर का मन का छांड़ि के, मन का मनका फेर ।।
प्रत्येक चरण की समाप्ति पर स्वाभाविक रूप से यति होती है।
छन्द- निर्धारण – पद्य में छन्द का निर्धारण उतना ही आवश्यक है जितना गद्य में व्याकरण का। इन विधियों तथा सम्बन्धित नियमों का शास्त्रीय विवेचन छन्द शास्त्र में किया जाता है। छन्द शास्त्र को पिंगल – शास्त्र भी कहा जाता है, क्योंकि इसके आदि प्रवर्तक पिंगलाचार्य थे।
छन्द के प्रकार
छन्द-रचना दो प्रकार की होती है –
- मात्रिक छन्द – जिस छंद की रचना मात्राओं की निर्धारित संख्या के आधार पर की जाती है, उन्हें मात्रिक छन्द कहते हैं। जैसे – दोहा, सोरठा, चौपाई आदि।
- वर्णिक छन्द – जिस छन्द की रचना वर्णों की संख्या एवं क्रम के आधार पर की जाती है, वे वर्णिक छन्द कहलाते हैं। जैसे- सवैया, मालिनी आदि वर्णिक छन्द हैं। वर्ण व्यवस्था पर आधारित छन्द को ‘वृत्त’ भी कहते हैं। हिन्दी भाषा में मात्रिक छन्दों का उपयोग ही अधिक हुआ है।
मात्राओं का विचार
- लघु स्वरों तथा लघु स्वरान्त वर्णों की एक मात्रा मानी जाती है, जैसे अ, इ, उ, ऋ, क, गि, पु, लृ आदि एक मात्रा वाले वर्ण हैं।
- गुरु अर्थात् दीर्घ स्वर व गुरु स्वरान्त वर्णों की दो मात्राएँ मानी जाती हैं। जैसे – आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, बा, ली, नू, के, तो, शो आदि वर्ण दो मात्रा वाले हैं।
- अनुस्वार-युक्त तथा विसर्ग-युक्त वर्ण भी गुरु अर्थात् दो मात्राओं वाला माना जाता है। जैसे- अं, कं, बं, अः, तुः, वः आदि दो मात्रा वाले वर्ण हैं।
- संयुक्त वर्ण के पूर्व आने वाला वर्ण स्वयं लघु होने पर भी दीर्घ अर्थात् दो मात्राओं वाला समझा जाता है। जैसे- ‘उद्यत’ में ‘द्य संयुक्त वर्ण है। अतः इसके पूर्व आने वाला ‘उ’ वर्ण स्वयं लघु होते हुए भी गुरु अर्थात दो मात्राओं वाला माना जायेगा। इसी प्रकार प्रत्यक्ष में ‘प्र’ गुरु है, ‘निर्बल’ में ‘नि’ गुरु है, ‘अर्जुन’ में ‘अ’ गुरु है। इत्यादि।
परन्तु इस बात पर ध्यान देना चाहिये कि स्वयं संयुक्त वर्ण तभी दीर्घ होगा जबकि उसका अन्त्याक्षर दीर्घ हो, जैसे पर्वत में ‘र्व’ लघु है, क्योंकि अन्त्याक्षर ‘व’ लघु है परन्तु ‘पर्दा’ में र्दा, गुरु होगा क्योंकि ‘दा’ गुरु है।
मात्राओं की गणना – प्रत्येक छन्द में सामान्यतया चार चरण होते हैं। प्रत्येक चरण के वर्णों की मात्राएँ गुरु-लघु के आधार पर जोड़ी जाती हैं। जैसे-
इन वनों के खूब भीतर है
II IS S SI S II
चार मुर्गे चार तीतर,
S I SS SI SII
पालकर निश्चिन्त बैठे,
SIII S SI SS
विजन वन के बीच बैठे
।।। II S SI SS
उपर्युक्त उदाहरण में मात्राओं को गिनने से ज्ञात होगा कि प्रत्येक चरण में 14 मात्राएँ हैं।
गण व्यवस्था – वर्णिक वृत्तों में भी चार चरण होते हैं। उनके वर्णों को भी गुरु और लघु के चिह्न से अंकित किया जाता है, परन्तु मात्राएँ गिनी नहीं जाती, बल्कि तीन-तीन वर्णों के समुदाय बनाते हैं, जिन्हें ‘गण’ कहते हैं। गण संख्या में आठ हैं-
- तीनों गुरु वर्णों वाला गण (sss) = म-गण
- तीनों लघु वर्णों वाला गण (III) = न-गण
- प्रथम गुरु तथा शेष दो लघु वर्णों वाला गण (SII) = भ-गण
- प्रथम लघु तथा शेष दो गुरु वर्णों वाला गण (ISS) = य-गण
- मध्यस्थ गुरु वर्ण वाला गण (ISI ) – ज-गण
- मध्यस्थ लघु वर्ण वाला गण (SIS) – र-गण
- अन्त्य गुरु वर्ण वाला गण (IIS) – स-गण
- अन्त्य लघु वर्ण वाला गण (SSI) – त-गण
गणों के स्वरूप का ज्ञान निम्नलिखित सूत्र से सुगम हो जाता है –
य मा ता रा ज भा न स लगा
इस सूत्र में प्रथम आठ वर्ण आठों गणों के क्रमशः नाम हैं। अन्त में दो वर्ण ल और गा है, जिनका अर्थ क्रमशः लघु और गुरु है। जिस गण का स्वरूप ज्ञात करना हो, उससे आरम्भ करके, पश्चात् आने वाले दो अन्य वर्णों को मिलाकर देखने से स्वरूप ज्ञात हो जाता है। जैसे-
यगण = यमाता = Iऽऽ
मगण = मातारा = SSS
तगण = ताराज = SSI
रगण = राजभा = SIS
जगण = जभान = ISI
भगण = भानस = SII
नगण = नसल – ॥I
सगण = सलगा – IIS
वर्णिक वृत्तों की पहिचान गणों तथा वर्ण संख्या द्वारा की जाती है। जैसे-
दिवस का अवसान समीप था,
।।।,ऽ ।।,ऽ । ।,ऽ । ऽ
गगन था कुछ लोहित हो चला,
।।।, ऽ ।।, ऽ । ।, ऽ । ऽ
तरु शिखा पर थी अब राजती,
III, SII, S II, SIS
कमलिनी कुल वल्लभ की प्रभा।
।।।, ऽ । ।, ऽ ।।, ऽ । ऽ
इस पद्य के प्रत्येक चरण में बारह वर्ण हैं तथा पहले एक नगण है, फिर दो भगण तथा अन्त में एक रगण है। इस तरह के ऐसे सभी वर्णित वृत्तों को ‘द्रुतविलम्बित’ छंद कहते हैं।
सम छंद – जिन छन्दों के चारों चरणों में मात्राओं की संख्या अथवा गण-व्यवस्था एक-सी होती है, उन्हें सम छन्द कहते हैं।
अर्धसम छंद – यदि प्रथम-तृतीय तथा द्वितीय-चतुर्थ चरणों के लक्षण परस्पर एक से मिलते हों, तो सम्पूर्ण छन्द को अर्धसम छन्द कहते हैं।
विषम छंद – चार से अधिक चरणों वाले; दो भिन्न छन्दों से मिलकर बनने वाले अथवा जिनके सब चरण एक दूसरे से भिन्न होते हैं, उन छन्दों को विषम छन्द कहते हैं।
लयात्मक छंद – जो छंद लय के अनुसार चलते हैं, वे लयात्मक छंद कहलाते
मुक्त छंद या स्वच्छन्द – इनमें मात्राओं, वर्णों अथवा तुक के कोई नियम नहीं माने जाते हैं।