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Birthday of Dr. Sarvepalli Radhakrishnan “डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जन्म-दिवस” Hindi Nibandh, Essay for Class 9, 10 and 12 Students.

डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जन्म-दिवस

Birthday of Dr. Sarvepalli Radhakrishnan

 

हमारे पूर्व राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन एक महान् विद्वान और दार्शनिक होने के साथ-साथ एक महान् शिक्षक थे। इसलिए उनका जन्म-दिवस 5 सितम्बर को प्रतिवर्ष “शिक्षक दिवस” के रूप में मनाया जाता है।

डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जीवन परिचय (Biography of Dr. Sarvepalli Radhakrishnan)

‘ज्यों का त्यों धर दीन्हीं चदरिया’ कबीर की इस उक्ति को चरितार्थ करते थे-भारत के द्वितीय राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन। जिस परम पवित्र रूप में वह इस पृथ्वी पर आए थे, बिना किसी दाग-धब्बे के, उसी पावन रूप में उन्होंने इस वसुन्धरा से विदाई ली।

लम्बे समय तक भारत के उपराष्ट्रपति और राष्ट्रपति रहकर जब वह दिल्ली से विदा हुए, तो प्रत्येक दिल ने उनका अभिनंदन किया। भारत के राष्ट्रपति पद की गरिमा उन्हीं जैसे सादगो की ऊँची जिन्दगी जीने वाले महामानव से सार्थक हुई। अपनी ऋजुता, सौम्यता और संस्कारिता के कारण वह अजातशत्रु हो गए थे।

वह उन राजनेताओं में से एक थे, जिन्हें अपनी संस्कृति एवं कला से अपार लगाव होता है। वह भारतीय सामाजिक संस्कृति से ओतप्रोत आस्थावान हिन्दू थे। इसके साथ ही, अन्य समस्त धर्मावलम्बियों के प्रति भी गहरा आदरभाव रखते थे। जो लोग उनसे वैचारिक मतभेद रखते थे, उनकी बात भी वह बड़े सम्मान एवं धैर्य के साथ सुनते थे। कभी- कभी उनकी इस विनम्रता को लोग उनकी कमजोरी समझने की भूल करते थे, परन्तु उनकी यह उदारता, उनकी दृढ़ निष्ठा से पैदा हुई थी।

उनका जन्म 5 सितम्बर, 1888 को तमिलनाडु राज्य के तिरुतनी नामक गाँव में हुआ था, जो चेन्नई शहर से लगभग 50 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। उनका परिवार अत्यन्त धार्मिक था और उनके माता-पिता सगुण उपासक थे। उन्होंने प्राथमिक तथा माध्यमिक शिक्षा मिशन स्कूल, तिरुपति तथा बेलौर कॉलेज, बेलौर में प्राप्त की। 1905 में उन्होंने चेन्नई के क्रिश्चियन कॉलेज में प्रवेश किया। बी.ए. और एम.ए. की उपाधि उन्होंने इसी कॉलेज से प्राप्त की। 1909 में चेन्नई के ही एक कॉलेज में दर्शनशास्त्र के अध्यापक नियुक्त हुए।

इसके बाद वह प्रगति के पथ पर लगातार आगे बढ़ते गए तथा मैसूर एवं कलकत्ता विश्वविद्यालयों में दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर के रूप में कार्य किया। इसके बाद डॉ. राधाकृष्णन ने आंध्र विश्वविद्यालय के कुलपति के पद पर कार्य किया। लम्बी अवधि तक वह ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर रहे। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में उन्होंने कुलपति के पद को भी सुशोभित किया। सोवियत संघ में डॉ. राधाकृष्णन भारत के राजदूत भी रहे। अनेक राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय संगठनों तथा शिष्टमण्डलों का उन्होंने नेतृत्व किया। यूनेस्को के एक्जीक्यूटिव बोर्ड के अध्यक्ष के पद को उन्होंने 1948-49 में गौरवान्वित किया। अंतर्राष्ट्रीय स्तर का यह एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण पद है। 1952-65 की अवधि में वह भारत के उपराष्ट्रपति तथा 1962 से 1967 तक राष्ट्रपति रहे। 1962 में भारत-चीन युद्ध तथा 1965 में भारत-पाक युद्ध उन्हीं के राष्ट्रपतित्व काल में लड़ा गया था। अपने ओजस्वी भाषणों से भारतीय सैनिकों के मनोबल को ऊँचा उठाने में उनका योगदान सराहनीय था।

डॉ. राधाकृष्णन भाषण कला के आचार्य थे। विश्व के विभिन्न देशों में भारतीय तथा पाश्चात्य दर्शन पर भाषण देने के लिए उन्हें आमंत्रित किया गया। श्रोता तो उनके भाषण से मंत्रमुग्ध ही रह जाते थे। डॉ. राधाकृष्णन में विचारों, कल्पना तथा भाषा द्वारा विचित्र ताना-बाना बुनने की अद्भुत क्षमता थी। वस्तुतः उनके प्रवचनों की वास्तविक महत्ता उनके अन्तर में निवास करती थी, जिसकी व्याख्या नहीं की जा सकती उनकी यही आध्यात्मिक शक्ति सबको प्रभावित करती थी, अपनी ओर आकर्षित करती थी और संकुचित क्षेत्र से उठाकर उन्मुक्त वातावरण में ले जाती थी।

हाजिर-जवाबी में तो डॉ. राधाकृष्णन गजब के थे। एक बार वह इंग्लैण्ड गए। विश्व में उन्हें हिन्दुत्व के परम विद्वान् के रूप में जाना जाता था। तब देश परतंत्र था। बड़ी संख्या में लोग उनका भाषण सुनने के लिए आए थे। भोजन के दौरान एक अंग्रेज ने डॉ. राधाकृष्णन से पूछा, “क्या हिन्दू नाम का कोई समाज है? कोई संस्कृति है? तुम कितने बिखरे हुए हो? तुम्हारा एकसा रंग नहीं, कोई गोरा, कोई काला, कोई बौना, कोई धोती पहनता है, कोई लुंगी, कोई कुर्ता तो कोई कमीज, देखो, हम अंग्रेज सब एक जैसे हैं सब गोरे-गोरे, लाल-लाल।” इस पर डॉ. राधाकृष्णन ने तपाक से उत्तर दिया, “घोड़े अलग- अलग रंग-रूप के होते हैं, पर गधे एक जैसे होते हैं। अलग-अलग रंग और विविधता विकास के लक्षण हैं। “

भारत तथा विश्व के अनेक विश्वविद्यालयों ने डॉ. राधाकृष्णन को मानद उपाधियों से सम्मानित कर अपना गौरव बढ़ाया। सौ से अधिक विश्वविद्यालयों ने उन्हें ‘डॉक्ट्रेट’ की मानद उपाधि से सम्मानित किया। इनमें हार्वर्ड विश्वविद्यालय तथा ओवर्लिन कॉलेज द्वारा प्रदत्त डॉक्टर ऑफ लॉ की उपाधियाँ प्रमुख हैं। उन्हें भारत सरकार ने 1954 में भारत के सर्वोच्च सम्मान ‘भारतरत्न’ से सम्मानित किया। भारतरत्न से सम्मानित किए जाने वाले वह भारत के प्रथम तीन गौरवशाली व्यक्तियों में से एक थे। विश्व प्रसिद्ध टेम्पलटन पुरस्कार भी उन्हें प्रदान किया गया।

डॉ. राधाकृष्णन ने दर्शन एवं संस्कृति पर अनेक ग्रंथों की रचना की है, जिनमें अत्यधिक लोकप्रिय हैं-द फिलॉसोफी ऑफ द उपनिषद्, भगवद्गीता, ईस्ट एण्ड वेस्ट सम रिफ्लेक्शन्स, ईस्टर्न रिलीजन एण्ड वेस्टर्न थॉट, इण्डियन फिलॉसोफी, एन आइडियलिस्ट व्यू ऑफ लाइफ, हिन्दू व्यू ऑफ लाइफ, द एथिक्स ऑफ वेदान्त एण्ड इट्स प्रिसपोजीशन, फिलॉसोफी ऑफ रवीन्द्रनाथ टैगोर आदि। उनके सारे ग्रन्थ, लन्दन के जार्ज एलेन एण्ड अन्बिन से प्रकाशित हुए हैं। हिन्दी में अनुवादित उनकी लोकप्रिय एवं महत्त्वपूर्ण पुस्तकें हैं-भारतीय संस्कृति, सत्य की खोज एवं संस्कृति तथा समाज। डॉ. राधाकृष्णन के दर्शन पर शिप्ली द्वारा सम्पादित पुस्तक प्रसिद्ध है। यह एक अभिनन्दन ग्रंथ है, जिसमें भारतीय दर्शन और डॉ. राधाकृष्णन के अन्वेषणों पर अनेक विद्वानों के खोजपूर्ण लेख हैं।

गीता में प्रतिपादित कर्मयोग के सिद्धान्तों के अनुसार वे एक निर्विवाद निष्काम कर्मयोगी थे। भारतीय संस्कृति के उपासक तथा राजनीतिज्ञ-इन दोनों ही रूपों में उन्होंने यह प्रयत्न किया कि वह सम्पूर्ण मानव समाज का प्रतिनिधित्व कर सकें और विश्व के नागरिक कहे जा सकें। वह एक महान् शिक्षाविद् थे और शिक्षक होने का उन्हें गर्व था। उन्होंने अपने राष्ट्रपतित्व काल में अपने जन्म दिवस को शिक्षक दिवस के रूप में मनाने की इच्छा प्रकट की थी। तभी से 5 सितम्बर को ‘शिक्षक दिवस’ के रूप में मनाया जाता है

डॉ. राधाकृष्णन गौतम बुद्ध की तरह हृदय में अपार करुणा लेकर आए थे। उनका दीप्तिमय तथा उज्ज्वल आलोक, भारत के आकाश में तो फैला ही, विश्व की धरती भी उनकी प्रखर रश्मियों के स्पर्श से धन्य हो गई। पूर्ण आयु एवं यशस्वी जीवन का लाभ प्राप्त करने के बाद, वह 87 वर्ष की आयु में 16 अप्रैल, 1975 को ब्रह्मलीन हो गए।

कठिन से कठिन परिस्थितियों में, निष्काम एवं समर्पण भाव से कर्म करने के मार्ग को डॉ. राधाकृष्णन, पुरुषार्थ का प्रशस्त मार्ग बताते थे। सदैव परमात्मा को स्मरण रखने का अर्थ ही विश्व-सत्ता के साथ स्वयं को जोड़े रखना है। समष्टि की चेतना से अपने को जोड़े रखना, जिससे व्यष्टि का अभिमान कंधे पर सवार न होने पाए और अपने कर्त्तव्य को प्रभु की विधि मानना भी सक्रिय विसर्जन का मार्ग प्रशस्त करने के लिए है।

डॉ. राधाकृष्णन, हिन्दुस्तान के साधारण आदमी के विश्वास, समझदारी, उदारता, कर्त्तव्यपरायणता, सनातन मंगल भावना, ईमानदारी और सहजता इन सबके साकार प्रतिबिम्ब थे। उन्हें बड़े देश का नागरिक होने का बोध और अधिक विनम्र बनाता था; उन्हें ऊँचे से ऊँचे पद ने और अधिक सामान्य बनाया तथा राजनीति के हर दाव-पेंच ने और अधिक निश्चल बनाया।

डॉ. राधाकृष्णन के विचार (Dr. Radhakrishnan’s views)

  • धर्म का लक्ष्य अन्तिम सत्य का अनुभव है।
  • दर्शन का उद्देश्य जीवन की व्याख्या करना नहीं, जीवन को बदलना है।
  • रोटी के ब्रह्म को पहचानने के बाद, ज्ञान के ब्रह्म से साक्षात्कार अधिक सरल हो जाता है।
  • दर्शन का जन्म सत्यानुभव के फलस्वरूप होता है, न कि सत्य की खोजों के इतिहास के अध्ययन के फलस्वरूप ।
  • दर्शनशास्त्र एक रचनात्मक विद्या है।
  • अन्तरात्मा का ज्ञान कभी नष्ट नहीं होता है।
  • प्रत्येक व्यक्ति ही ईश्वर की प्रतिमा है।
  • एक शताब्दी का दर्शन ही, दूसरी शताब्दी का सामान्य ज्ञान होता है।
  • दर्शन का अल्पज्ञान मनुष्य को नास्तिकता की ओर झुका देता है, परन्तु दार्शनिकता की गहनता में प्रवेश करने पर, मनुष्य का मन, धर्म की ओर उन्मुख हो जाता है।
  • धर्म और राजनीति का सामंजस्य असम्भव है। एक सत्य की खोज करता है, तो दूसरे को सत्य से कुछ लेना-देना नहीं।
  • महान् उद्देश्य से शासित व्यक्ति को भाग्य नहीं रोक सकता।
  • चिड़ियों की तरह हवा में उड़ना और मछलियों की तरह पानी में तैरना सीखने के बाद, अब हमें मनुष्य की तरह जमीन पर चलना सीखना है।
  • दर्शन में ध्येय की प्राप्ति का उतना महत्त्व नहीं है, जितना कि उन वस्तुओं का जो हमें मार्ग में मिलती जाती है।
  • समय मूल्यवान अवश्य है, परन्तु समय से भी मूल्यवान है सत्य।
  • मानव का दानव बन जाना, उप्तकी पराजय है, मानव का महामानव होना उसका चमत्कार है और मानव का मानव होना उसकी विजय है।

आज के शिक्षक का स्वरूप (Nature of today’s teacher)

कबीर ने कहा था- “गुरु कुम्हार सिस कुंभ है, गढ़ि-गढ़ि काढ़े खोट। अंतर हाथ सहार दै बाहर बाहै चोट ।।” हमारे समाज में शिक्षक को गुरु का दर्जा दिया गया। इसलिए कि वह भी कच्ची माटी सरीखे बच्चों को उनके हुनर के अनुरूप आकार देता है। उनकी कमजोरियों को दूर कर उन्हें समाज में आगे बढ़ने का रास्ता दिखाता है। मगर पिछले दो दशक में, खासकर 1990 के बाद, शिक्षक का यह दर्जा, लगता है लगातार नीचे खिसकता गया है। स्कूल-कॉलेजों-विश्वविद्यालयों में अक्सर विद्यार्थियों के किसी शिक्षक को अपमानित करने, उसके साथ मारपीट करने, कक्षा से बाहर कर देने, यहाँ तक कि सरे-आम हत्या की घटनाएँ देखने-सुनने को मिलने लगी हैं।

इस बीच शिक्षकों पर आरोप लगने लगे हैं कि उनका ध्यान अध्यापन पर कम, दूसरे तरीकों से पैसा कमाने पर अधिक केन्द्रित होता गया है। कक्षा में न पढ़ाकर कोचिंग क्लासों में या घर पर ट्यूशन शुरू कर वे विद्यार्थियों को बाध्य करते हैं कि अलग से पैसा खर्च कर वे उनसे पढ़े। कुछ अध्यापकों के बालिकाओं के साथ दुराचार की घटनाएँ भी सामने आ चुकी हैं। इस तरह समाज की नजर में उनके प्रति सम्मान कुछ जरूर कम हुआ है, मगर महज इन घटनाओं को अध्यापकों की हैसियत या उनके सम्मान में कमी की वजह नहीं मानी जा सकती।

इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि पिछले कुछ सालों में पढ़ाई-लिखाई को लेकर लोगों में काफी जागरूकता आई है। प्रतिस्पर्द्धा के युग में हर अभिभावक अपने बच्चे को बेहतर स्कूल-कॉलेज में दाखिला दिलाने को उत्सुक रहता है। सरकारी स्कूलों में साधनों की कमी के चलते निजी स्कूलों की तरफ लोगों का स्वाभाविक आकर्षण बढ़ा है। सरकारें स्कूलों की दशा सुधारने के वादे तो बहुत करती हैं, मगर योजनाएँ महज कागजी साबित होती हैं। यह किसी से छिपा नहीं है कि बहुत सारे स्कूलों में पुस्तकालय और प्रयोगशाला जैसी सुविधाएँ तो दूर, टाट-पट्टी, श्यामपट्ट, पीने के पानी, शौचालय आदि की बुनियादी सुविधाएँ तक उपलब्ध नहीं हैं। अनेक स्कूल भवनों के अभाव में खुले आसमान या पेड़ों के नीचे चलते हैं। फिर भी अध्यापकों से अपेक्षा की जाती है कि स्कूल का बेहतर नतीजा लाएँ।

जहाँ तक ट्यूशन या कोचिंग के चलन की बात है, हो सकता है इसकी शुरूआत अध्यापकों ने की हो, मगर अब ज्यादातर अभिभावक इसे अपनी हैसियत से जोड़कर देखने लगे हैं। उनका बच्चा चाहे जितने अच्छे स्कूल में पढ़ता हो, उन्हें इस बात का भरोसा नहीं होता कि स्कूल की पढ़ाई उसके लिए पर्याप्त है। वे खुद ही ट्यूटर की तलाश शुरू कर देते हैं। ऐसे में उनकी कोशिश होती है कि किसी अच्छे स्कूल का कोई अच्छा अध्यापक उनके बच्चों को पढ़ाए, पैसे चाहे जितने खर्च हो जाएँ। यही हाल कोचिंग संस्थानों का है। वे नामी स्कूलों-कॉलेजों के अध्यापकों को मुँह मांगा पैसा देकर इसलिए खुद से जोड़ने की कोशिश करते हैं कि बच्चे उनसे पढ़ने के लिए अधिक आकर्षित होते हैं। अब यह चलन बड़े शहरों के अलावा गाँवों तक में शुरू हो गया है।

बहुत सारे सरकारी स्कूलों में जरूरत भर के अध्यापक नहीं हैं। चालीस विद्यार्थियों पर एक अध्यापक की नियुक्ति का प्रावधान है। मगर स्थिति यह है कि कई स्कूलों में एक ही अध्यापक को सारी कक्षाएँ देखनी पड़ती हैं। अब ठेका प्रथा की तरह अनुबन्ध आधार पर शिक्षकों की नियुक्ति का रास्ता निकाला गया है। कम वेतन पर प्रशिक्षित अध्यापकों से पूरे वक्त काम लेने का नायाब नुस्खा! निजी स्कूलों ने यह तरीका शुरू में ही अपना लिया था। एकमुश्त रकम पर अध्यापकों की नियुक्ति। कई स्कूल अध्यापकों को जो वेतन देते हैं उससे अधिक रकम के वाउचर पर हस्ताक्षर कराते हैं। ऐसे माहौल में अगर अध्यापक ट्यूशन या कोचिंग सेंटरों में सेवाएँ देने का फैसला करते हैं तो हैरानी नहीं होनी चाहिए।

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