Anupras Alankar Ki Paribhasha aur Udahran | अनुप्रास अलंकार की परिभाषा और उदाहरण
अनुप्रास अलंकार
Anupras Alankar
जहाँ एक ही वर्ण का एक से अधिक बार प्रयोग होता है, वहाँ अनुप्रास अलंकार होता है। जैसे –
प्रति भट कटक कटीले केते काटि-काटि,
कालिका सी किलकि कलेऊ देत काल को।
यहाँ ‘क’ वर्ण की अनेक बार आवृत्ति से कविता में सौंदर्य की अभिवृद्धि हुई है। अतएव यहाँ अनुप्रास अलंकार है।
बाल-बिनोद मोद मन मोह्यो।
यहाँ ‘ब’ तथा ‘म’ वर्ण की आवृत्ति एक से अधिक बार हुई है, इसलिये यहाँ अनुप्रास अलंकार है।
कागहि कहा कपूर चुगाये, स्वान-न्हवाये गंग।
यहाँ भी ‘क’ वर्ण की आवृत्ति कई बार हुई है। अतएव अनुप्रास अलंकार है।
सुभग-स्वर्ग सोपान सरिस सबके मन भावत।
यहाँ ‘स’ वर्ण की आवृत्ति कई बार हुई है। अतएव अनुप्रास अलंकर
चारु चन्द्र की चंचल किरणें,
खेल रही हैं जल-थल में
यहाँ ‘च’ वर्ण की आवृत्ति से कविता में अनुप्रास अलंकार है।
तरनि तनूजा तट तमाल तरुवर बहु छाये।
यहाँ ‘त’ वर्ण की आवृत्ति से कविता में अनुप्रास अलंकार है।
अनुप्रास अलंकार के प्रकार
छेकानुप्रास – छेका का अर्थ होता है – चतुर। इसका प्रयोग चतुर लोग अपनी चतुराई प्रदर्शित करने हेतु करते हैं। इसमें एक या अनेक वर्ण का दो बार प्रयोग होता है। जैसे-
कानन कठिन, भयंकर भारी,
घोर घाम हिम बारि बयारी ।
उपर्युक्त उदाहरण में क, भ, घ और ब का दो बार प्रयोग हुआ है। अतः यह छेकानुप्रास है।
सेवा समय दैव वन दीन्हा,
मोर मनोरथ सफल न कीन्हा।
वृत्यानुप्रास- इसमें एक या अनेक वर्णों की आवृत्ति अनेक बार होती है।
जैसे-
सास ससुर गुरु सजन सहाई।
सुत सुन्दर सुशील सुखदाई।
उपर्युक्त उदाहरण में स का अनेक बार प्रयोग है हुआ है। अतः यहाँ वृत्यानुप्रास है।
रस सिंगार मज्जन किये कंजनु भंजनु दैन।
अंजनु रंजन हूँ बिना खंजन गंजनु नैन ॥
उपर्युक्त उदाहरण में ज और न की आवृत्ति अनेक बार हुई है। अतः यहाँ वृत्यानुप्रास है।
श्रुत्यानुप्रास – इसमें एक ही स्थान से उच्चारित किये जाने वाले वर्णों की आवृत्ति अनेक बार होती है। जैसे –
तुलसिदास सीदत निसिदिन देखत तुम्हारि निठुराई।
उपर्युक्त उदाहरण में त, द, न, ल की आवृत्ति है, जिनका उच्चारण एक ही स्थान से होता है। ये दन्त्य वर्ण हैं। अतः यहाँ श्रुत्यानुप्रास है।
फल भारन नमि विटप सब, रहे भूमि निअराई।
पर उपकारी पुरुष जिमि, नवहि सुसम्पति पाई॥
अन्त्यानुप्रास – इसमें शब्दों के अंत में आने वाले वर्णों में समानता होती है। इसे तुकांत भी कहते हैं। जैसे-
कंकन किंकिन नूपूर ध्वनि सुनि ।
कहत लषन सन राम हृदय गुनि ।
मेरी भव बाधा हरो, राधा नागर सोय ।
जा तनकी झांई परे, श्याम हरित दुति होय ॥
लाटानुप्रास – इसे शब्दानुप्रास भी कहते हैं। इसमें शब्द या वाक्य की पुनरावृत्ति होती है, जिनका शब्दिक अर्थ तो एक ही रहता है, पर अन्वय करने पर अर्थ में भिन्नता आ जाती है। जैसे-
राम हृदय जाके नहीं, बिपति सुमंगल ताहि।
राम हृदय जाके बसे, बिपति सुमंगल ताहि।
अर्थात् जिसके हृदय में राम नहीं हैं, उसके लिए सुमंगल भी विपत्ति है। जिसके हृदय में राम बसते हैं, वहाँ विपत्ति भी सुमंगल है। यहाँ नहीं और बस के क्रम के कारण अन्वय में दोनों पंक्तियों का अर्थ भिन्न हो गया। अतः उपर्युक्त उदाहरण में लाटानुप्रास है।
पीय निकट जाके नहीं, घाम चाँदनी आहि।
पीय निकट जाके सखी, घाम चाँदनी आहि।
पूत कपूत तो क्यों धन संचय।
पूत सपूत तो क्यों धन संचय।