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Aatankwad Ek Vaishvik Samasya “आतंकवाद एक वैश्विक समस्या” Hindi Essay, Paragraph in 1000 Words for Class 10, 12 and competitive Examination.

आतंकवाद एक वैश्विक समस्या

Aatankwad Ek Vaishvik Samasya

आज संसार के अनेक देशों में आतंकवाद गले की हड्डी बनकर अटक गया है। प्रतिदिन विमान अपहरण, बैंकों की लूट, बस यात्रियों की निर्मम हत्या, इमारतों को विस्फोट से उड़ाने आदि दुर्घटनाएँ सुनने और देखने को मिलती हैं। कुछ लोग इसे सत्ता के साथ विद्रोहियों और असंतुष्टों के युद्ध की संज्ञा देते हैं। किन्तु यह उचित नहीं। युद्ध के भी कुछ नियम होते हैं, आतंकवाद किसी नियम, किसी सिद्धांत, किसी आदेश में बँधा नहीं है। यह तो कोरी हत्या है। ‘बूढ़ा मरे या जवान, हत्या से ही काम’ ही इन का सिद्धांत है। आज अनेक देशों में भी इन आतंकवादियों ने आदमी की नींद हराम कर रखी है। पश्चिमी, एशिया, अफ्रीका के अनेक देश, अफगानिस्तान, भारत, श्रीलंका आदि में इनकी गतिविधियों को लक्षित किया जा सकता है।

आतंकवाद का जन्म व्यवस्था के साथ ही हुआ होगा, किन्तु आधुनिक आतंकवाद का जन्म द्वितीय विश्व युद्ध के समय हुआ, जब हिटलर ने लाखों लोगों का अपहरण कर उन्हें विभिन्न शिविरों में डाल दिया और उन्हें मानवीय यातनायें। दी। बाद में सबको कत्ल कर दिया गया। रूस के लोग उन लोमहर्षक कृत्यों को कभी भूल नहीं पायेंगे। आज महाशक्तियाँ दुनिया में अपना वर्चस्व कायम करने के लिए आतंकवाद का सहारा ले रही हैं। पाकिस्तान, कनाडा, संयुक्त राष्ट्र, अमेरिका, चीन आदि देशों में आतंकवादियों के लिए प्रशिक्षण स्कूल चलते हैं। अमेरिका की गुप्तचर संस्था जी.आई.ए. तो अमरीका की अनचाही किसी भी देश की सरकार को उलट देने के लिए कुख्यात हो चुकी है। ईरान में साह के सत्ता परिवर्तन के बाद आतंकवाद की एक भयानक दौर चला जिसमें, असंख्य निर्दोषों की जानें गई थीं। श्रीलंका में भी बहुत दिनों तक यह खूनी खेल चला। 1985 में लेबनान में एकाइमा नेता की हत्या के लिए एक तथाकथित आतंकवाद विरोधी दस्ते ने कार बम का प्रयोग किया। इस घटना में उक्त नेता तो बच गया लेकिन 80 अन्य निर्दोष लोगों की जानें गई।

भारत में आतंकवादियों का वर्तमान इतिहास नक्सलवादियों से शुरू होता है। नक्सलवादियों के उद्देश्य पर तो बहस की जा सकती है किन्तु उसे पाने का उनका तरीका आतंकवादी ही था। वहीं हत्या, लूटपाट, अपहरण का रास्ता उन्होंने चुना। मिजोरम और नागालैंड बहुत दिनों तक आतंकवादियों के क्रीड़ा क्षेत्र बने रहे। पंजाब भी इसकी चपेट में आ गया। कोई दिन शायद ही ऐसा बीतता हो, जिस दिन इन आतंकवादियों के क्रूर-कर्मों की कहानियां समाचार-पत्रों में नहीं छपते हों। पूना में भूतपूर्व भारतीय सेना के जनरल वैद्य की हत्या, दिल्ली के नेता ललित माकन दम्पत्ति की हत्या और यहाँ तक कि भारत की तेजस्विता का स्वरूप श्रीमति इंदिरा गाँधी की हत्या भी आतंकवादियों की क्रूरता का परिचायक है। दो बार भारतीय विमानों का अपहरण किया जा चुका है। पंजाब के अनेक समाज-सेवियों, बुद्धिजीवियों, पत्रकारों और अनेक ऐसे ही निर्दोषों को मौत की नींद सुला दिया गया। हरियाणा में अनेक बस यात्रियों को गोलियों से भून दिया गया। 23 जून, 1985 को आयरलैंड के निकट हुई कनिष्क विमान की दुर्घटना भी आतंकवादियों की कारगुजारी हो सकती है। जिसमें 329 व्यक्तियों की जानें गईं।

इस हिंसा के उन्माद को कैसे रोका जाये ? यह कहना कि देश में ऐसी स्थिति उत्पन्न की जाये कि उसके किसी वर्ग में किसी प्रकार का असंतोष ही न पनपे, आदर्श स्थिति तो है, लेकिन यह असम्भव नहीं तो अत्यन्त दुष्कर है। आर्थिक, सामाजिक एवं शैक्षणिक दृष्टियों से यदि कोई देश अत्यन्त समृद्ध और सम्पन्न भी हो तब भी किसी वर्ग में अथवा क्षेत्र में एक अलग देश बनाने की इच्छा तो कभी भी कुछ महत्त्वकांक्षी तथा स्वार्थी लोग पैदा कर ही सकते हैं अथवा किसी भी शत्रु-देश के द्वारा पैदा की जा सकती है। वस्तुतः आतंकवादी को भी हथियारों, यानों और आर्थिक संसाधनों की आवश्यकता होती है। उसे प्रशिक्षण भी कायम होता है। इन सबके लिए उसे किसी न किसी राष्ट्र अथवा संस्था का सहारा लेना पड़ता है। प्रयत्न यह किया जाना चाहिए कि कोई भी देश इस प्रकार की गतिविधियों को प्रोत्साहन न दे। अपने शत्रु देश के लिए भी आतंवादियों को प्रशिक्षण एवं हथियार आदि न दे। प्रत्येक राष्ट्र को सोचना चाहिए कि उसके स्वयं के लिए भी यह कदम खतरनाक सिद्ध हो सकता है। कोई अन्य देश उसके लिए भी आतंक उत्पन्न कर सकता है। पर यह होगा कैसे ? तभी जब अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर सब मिल-जुलकर इस समस्या के समाधान का प्रयत्न करें। ‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ विश्व की एक ऐसी संस्था है जो यह जिम्मेदारी अपने ऊपर ले सकती है, किन्तु आज तक का इतिहास प्रमाण है कि इस संस्था ने अब तक जो जिम्मेदारी ले रखी है वे ही इससे पूरी न हुई। तब केवल एक ही उपाय शेष रहता है कि मानवता के व्यापक हित में पूरे विश्व में इस प्रकार की मानसिकता बने कि सभी आतंकवादी से घृणा करने लगें। प्रायः देखा जाता है कि दो या चार आदमी कभी-कभी पूरे विमान के यात्रियों को अग्नेयास्त्र दिखाकर आतंकित करते हैं। अथवा बस यात्रियों को भून डालते हैं। यदि लोग साहस दिखाएं तो इन दो-चार आतंवादियों को वश में करना कठिन न हो। इसी प्रकार, आतंकवादी को भी सुरक्षा की आवश्यकता होती है। वे क्रूर कर्म कर कहीं छिपते भी हैं। यदि लोग उन्हें शरण न दें तो आतंकवादी कार्रवाइयाँ करना इनके लिए कठिन हो जाये। प्रायः भाषा, धर्म, जाति अथवा क्षेत्र आदि के मुद्दे पर आतंकवाद का पोषण होता है। जो लोग इस प्रकार की अलगाववादी प्रवृत्तियों में लिप्त रहते हैं उनसे सख्ती से निपटा जाना चाहिए। ईरान में अयातुल्ला खुमैनी ने और भारत में संत उपाधिधारी भिंडरावाला ने धर्म के नाम पर आतंवादियों की सेना एकत्र कर डाली। खुमैनी का तो अपने विद्रोहियों को दण्ड देने का तरीका भी इतना अमानवीय था कि लोग उस दण्ड से बचने के लिए स्वयं आत्महत्या तक करना अधिक सुखकर समझते थे।

वस्तुतः मानव एक विवेकशील प्राणी है। वह विचार और भावों में संतुलन रखकर समूची मानवता के कल्याण के लिए कार्य कर सकने में सक्षम है। उसका अस्तित्व ही उसकी विवेक शीलता पर निर्भर करता है। आतंकवादी मनुष्य के इसी विवेक का हरण कर लेता है। उसे विवेक शून्य कर देता है और वह मानवता से हाथ झाड़कर हिंसक और क्रूर कर्मों में लिप्त हो जाता है, पशु के स्तर पर उतर आता है। आतंकवाद चाहे जिस देश में पनपे, वह समूची मानवता के लिए ही अभिशाप है। यदि मनुष्य को मनुष्य बने रहना है तो इस आतंकवाद को समाप्त करना ही होगा और आतंकवाद तब तक समाप्त नहीं होगा। जब तक कि समूचे विश्व में इसे समाप्त करने की मानसिकता न बने। समस्याएं जीवन में रहेंगी और समस्याओं का जीवन में रहना भी जरूरी है। समस्याहीन जीवन, जीवन नहीं मरण है और उन समस्याओं के निराकरण की ओर प्रवृत्त होना असली जीवन है। समस्याओं के निराकरण के प्रयत्न का यह मतलब कदापि नहीं कि मनुष्य मनुष्य ही नहीं रहे, वह पशु बन जाये और मनुष्य के संहार में ही संलग्न हो जाये। आतंकवादी कार्रवाइयों से आज तक समस्याओं का समाधान नहीं हुआ है। यदि इस प्रकार की सोच पैदा हो जाये तो आतंकवाद जन्म ही न ले, किन्तु क्या इस प्रकार की सोच पुनः बन पायेगी?

(1000 शब्दों में )

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