Hindi Essay on “Bharatiya Samaj mein Nari ka Sthan”, “भारतीय समाज में नारी का स्थान” Complete Hindi Essay, Paragraph, Speech for Class 7, 8, 9, 10, 12 Students.
भारतीय समाज में नारी का स्थान
Bharatiya Samaj mein Nari ka Sthan
जिस प्रकार तार के बिना वीणा और धुरी के बिना रथ का पहिया बेकार है उसी तरह नारी के बिना मनुष्य का सामाजिक जीवन अधूरा है। भारतीय नारी सृष्टि के आरम्भ से ही गुणों का भण्डार रही है। पृथ्वी जैसी सहनशीलता, सूर्य जैसा तेज़, समुद्र सी गम्भीरता, चन्द्रमा जैसी शीतलता, पर्वतों जैसी मानसिक उच्चता एक साथ नारी के हृदय में दृष्टिकोण होती है। वह दया, करुणा, ममता और प्रेम की पवित्र मूर्ति है। नारी तथा पुरुष दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। एक के अभाव में दूसरे का व्यक्तित्व अपूर्ण है। वह मनुष्य के जीवन की जन्मदात्री है तथा पुरुष को उन्नति की प्रेरणा देने वाली सबसे अधिक पर प्रतिमूर्ति है। वह माता के समान हमारी रक्षा करती है तथा समान हमें शुभ कार्यों के लिए प्रेरित करती है। नारी का त्याग और बलिदान भारतीय संस्कृति की अमूल्य निधि है।
प्राचीन काल में भी भारतवर्ष में नारी को उच्च स्थान प्राप्त था। उस समय वह ‘गृह-लक्ष्मी’ कहलाती थी । वह केवल सन्तान की जन्मदात्री एवं भोजनालय की प्रबन्धकारिणी के रूप में ही प्रतिष्ठित नहीं थी अपितु उसे पुरुषों के समान ही अधिकार प्राप्त थे । धार्मिक एवं सामाजिक क्षेत्र में भी नारी का स्थान प्रमुख था। उन्हें अपने पति चुनने का भी अधिकार था। मनस्मृति में स्त्रियों का विवेचन करते हुए मनु महाराज लिखते हैं-
“जहां स्त्रियों की पूजा होती है, वहां देवता निवास करते हैं।”
प्राचीन काल में कोई भी धार्मिक कत्य बिना पत्नी के सहयोग से पूर्ण नहीं होता था। धार्मिक कार्यों के अतिरिक्त रणक्षेत्र में भी वह पतियों को सहयोग दिया करती थीं । देवासुर संग्राम में कैकेयी ने अपने अदम्य साहस से राजा दशरथ को आश्चर्य चकित कर दिया । उनमें अपना हानि-लाभ समझने की भी सदबुद्धि थी । गृहस्थाश्रम का सम्पूर्ण उत्तरदायित्व नारी के कोमल परन्तु बलिष्ठ कन्धों पर ही था। बिना गृहिणी के गृह की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी।
कुछ समय के पश्चात हमारी सामाजिक व्यवस्था में नारी का स्थान गौण हो गया । देश परतन्त्र हुआ नारियों की स्वन्त्रता भी छिन गई । उन्हें परदे में रहने पर विवश किया गया । श्रद्धा और आदर की पात्र नारी राजाओं के आपसी झगड़ों का कारण बन गई । उनको पग पग पर अपमान सहन करना पड़ता । छोटी-छोटी सुकुमार बालिकाओं को पत्नी का स्वरूप दिया जाता था। बेमेल विवाह होते थे । विधुर हो जाने पर पति को यह अधिकार था कि वह दूसरा विवाह कर सकता था, परन्तु एक बार विधवा हो जाने पर नारी सारा जीवन विधवा का ही जीवन बिताती थी । इसके अतिरिक्त उसके पास कोई चारा न था। सामाजिक कुरीतियों ने पराधीन भारत में नारियों को इतना निम्नकोटि का बना दिया कि वे बार बार समझाए जाने पर भी जागृत न हो सकी । परन्तु मुस्लिम युग में पधिमनी, दुर्गावती, अहिल्या बाई जैसी नारियों ने अपने बलिदान और योग्यता से नारी का मान और गौरव बढ़ाया ।
अंग्रेजी शासन में ही भारतीय नेताओं एवं समाज सुधारकों का ध्यान समाज में फैली हई कुरीतियों की ओर गया । राजा राम मोहनराय ने सती प्रथा का विरोध किया तथा उसे बन्द कराने का प्रयत्न किया । इस प्रथा में न चाहते हए पत्नियों को अपनी पति की मृत्यु के पश्चात् उसके साथ चिता में भस्म हो जाना पड़ता था जो एक बहत ही अमानवीय कृत्य है। महर्षि दयानन्द के प्रयत्नों के फलस्वरूप स्त्रियों के लिए शिक्षा तथा समानाधिकार के द्वार खुल गए। इसके पश्चात् महा गान्धी ने स्त्रियों के उत्थान के लिए आमरण प्रयल किया जिसके परिणामस्वरूप स्त्रियों को पुरुषों के समान अधिकार प्राप्त करने की व्यवस्था संविधान में की गई है । पिता की सम्पत्ति में लड़कों की तरह लडकियों को भी उसमें हिस्सेदार बनाया गया है । भारतीय महिलाओं में सबसे पहले श्रीमती सरोजनी नायडू ने उत्तर प्रदेश के राज्यपाल के पद पर,श्रीमती विजय लक्ष्मी पण्डित ने विदेश राजदूत के पद पर आसीन होकर तथा श्रीमती इन्दिरा गान्धी ने प्रधानमन्त्री के पद को सुशोभित किया। अब शायद ही कोई ऐसा विभाग होगा जहां स्त्रियां पुरुषों से कन्धे से कन्धा मिलाकर काम न कर रही हो। आज स्त्रियां गृहस्थी का भार सम्भालने के साथ-साथ सार्वजनिक कार्यों में भी बहुत ही प्रशंसनीय कार्य कर रही है।
जहां नारियों के कुछ अधिकार हैं वहां उनके कुछ कर्तव्य भी हैं। नारियों के अधिकारों की बात उनके कर्तव्यों की बात के बिना अधूरी है । ऐसा कहा गया है कि अधिकार और कर्तव्य साथ-साथ चलते हैं। भारतीय सभ्यता और संस्कृति का मूल मन्त्र था-सादा जीवन, उच्च विचार । परन्तु आज की नारी सादे जीवन से बहुत दूर है । एक ओर सारा राष्ट्र आर्थिक संकट से गुज़र रहा है । आम आदमी के लिए रोटी, कपड़ा और मकान की आधारभूत सुविधाएं प्राप्त करना कठिन हो रहा है । परन्तु आज की चंचला नारी अपना सारा धन श्रृंगार के महंगे प्रसाधनों पर पानी की तरह बहा रही है । वह अपने अंग अंग को तितली बनाए रखना चाहती है । समाज में तितली बनकर विचरनेवाली ये आधुनिक नारियां किसी भी दृष्टि से स्वतन्त्र नहीं हैं और न ही स्वतन्त्रता का यह अर्थ है कि वह घर की सारी मान मर्यादा त्याग कर केवल फैशन की प्रतिमूर्ति ही बन कर रह जाए । ऐसा करके वह परिवार के प्रति अपना कर्तव्य भूल रही है जिससे परिवार टूट जाता है । नारी जागरण के नाम पर नारी को अपनी सन्तान के प्रति उत्तरदायित्व से मुक्त करवाया जाना. किसी भी प्रकार से अच्छा नहीं है । इसके साथ साथ स्वतन्त्र भारत में स्त्रियों का यह भी कर्तव्य है कि देश की सामाजिक कुरीतियों का बहिष्कार करें विशेष कर जिसमें स्त्रियों द्वारा ही स्त्रियों को सताया जाता है । यदि नारियां चाहें तो वे इन्हें दूर कर सकती हैं।
स्वतन्त्र भारत की नारी भी आज स्वतन्त्र है, उसमें नवचेतना है, नव-जागति है । वह अपने अधिकारों के प्रति जागरुकता रखती है परन्तु इसके साथ ही उसे अपने कर्तव्यों के प्रति भी सचेत रहना चाहिए। सन्तान के प्रति, समाज के प्रति तथा देश के प्रति अपने उत्तरदायित्वों से पीछे नहीं हटना चाहिए । देश के उत्थान में अपना हाथ बटाना चाहिए. तब ही वे जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में पुरुष के समान समझी जाएंगी और अपनी प्रतिभा से देश को एक समृद्ध राष्ट्र बना सकेंगी। उसके आंचल में दूध तो होना चाहिए परन्तु किसी भी परिस्थिति में उसकी आंखों में पानी नहीं होना चाहिए, उसे अबला नहीं सबला बन कर जीना होगा ताकि फिर से किसी राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जैसे कवि को यह दुहराना न पड़े-
अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी ।
आंचल में है दूध, आखों में पानी ।