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Hindi Essay on “Anandpur Sahib ka Holla Mohalla” , ”आनंदपुर साहिब का होला-मोहल्ला” Complete Hindi Essay for Class 10, Class 12 and Graduation and other classes.

आनंदपुर साहिब का होला-मोहल्ला

Anandpur Sahib ka Holla Mohalla

आनंदपुर साहिब में प्रत्येक वर्ष होली के अवसर पर मनाया जाने वाला तीन दिवसीय होला-मोहल्ला पर्व एक विशेष ऐतिहासिक तथा धार्मिक महत्व रखता है। पंजाब के जिला रोपड़ में यह स्थान रोपड- नंगल रेलवे लाइन के समीप नंगल से लगभग 20 किलोमीटर की दूरी पर शिवालिक पर्वत श्रृंखला की तलहटी में स्थित है। यह वह पवित्र स्थान है। जहाँ सन् 1699 में मुगलों के अत्याचार के साथ टक्कर लेने के लिए सिखों के दशम गुरु, श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने ‘खालसा पंथ की सृजना की थी। उनके पिता, सिखों के नवे गुरु श्रीगुरु तेग बहादुर जी इस स्थान पर “भौरा साहिब” में ध्यान योग में लीन रहते थे तथा धर्म-संस्थापना के लिए उन्होंने दिल्ली के चांदनी चौक में आत्म-बलिदान दिया था। उनके शीश का अग्नि संस्कार आनंदपुर साहिब में किया गया। था।इस कारण भी इस स्थान का विशेष धार्मिक महत्व है। यह स्थान सिखों के पांच तख्तों में से एक है तथा “तख्त श्री केशगढ़ साहिब” के नाम से प्रसिद्ध है।

चैत्र मास की पूर्णिमा को जब समस्त भारत में होली का त्योहार मनाया जाता है। तब आनंदपुर साहिब में तीन दिनों तक होला-महल्ला पर्व बड़ी धूमधाम के साथ मनाया जाता है। यह पर्व होली से एक दिन पूर्व आरंभ होता है। तथा होली के एक दिन बाद तक चलता है। गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा 1699 में खालसा पंथ की स्थापना के एक वर्ष बाद यहां पर पहली बार होला-महल्ला मनाया गया था। इस पर्व की पृष्ठभूमि इस प्रकार है।  यह उन दिनों की बात है।  जब मुगल सम्राट औरंगजेब हिंदुओं पर घोर अत्याचार कर रहा था।, मंदिर गिराए जा रहे थे, पुजारियों- पंडितों का अपमान किया जा रहा था। और हिंदुओं को बलपूर्वक मुसलमान मनाया जा रहा था। लोगों में भय, आतंक तथा कायरता घर कर रहे थे।

उन्हें सूझ नहीं रहा था कि वे करें तो क्या करें ? इस परिस्थिति में कश्मीर के कुछ पंडितों ने एकत्र होकर सिखों के नवें गुरु श्रीगुरु तेगबहादुर के पास जाकर पुकार की तथा विनती की कि वह उनकी रक्षा हेतु कोई उपाय सोचें गुरुजी ने गहरी सोच- विचार के बाद उन्हें कहा, “अत्याचार की भीषण अग्नि को शांत करने के लिए इस समय किसी महान आत्मा के बलिदान की आवश्यकता है। गुरु गोबिंद सिंह जी जो उस समय केवल नौ वर्ष के थे, अपने पिता की बात बड़े ध्यान से सुन हे थे। उन्होंने सब कुछ सुनने के बाद कश्मीर के पंडितों के सामने ही अपने महान त्यागी पिता से कहा, “आपसे बढ़कर महान इस समय संसार में कौन सा दूसरा पुरुष है। बाल गोबिंद के मुख से निकला यह वाक्य अलौकिक था। श्री तेगबहादुर साहिब को धर्म की रक्षा के लिए मुगलों के साथ टक्कर लेनी पड़ी और अंत में दिल्ली के चांदनी चौक में उन्होंने शहादत प्राप्त की।  चांदनी चौक में ‘शीशगंज’ उनकी पवित्र शहीदी यादगार है।

श्री गुरु तेगबहादुर साहिब तो शहीद हो गए पर मुगलों के अत्याचार के विरुद्ध आरंभ किया गया। उनका धर्मयुद्ध समाप्त नहीं हुआ। उसकी बागडोर उनके सुपुत्र श्रीगुरु गोबिंद सिंह जी ने संभाल ली थी।   गुरुजी यह जान चुके थे कि मुगलों के साथ लोहा लेने के लिए भारतवासियों की लगभग मृतक हो चुकी रूह में जान फूकना आवश्यक है। विशेषकर एक बहादुर सेना तैयार करना जरूरी है। अंततः 30 मार्च 1699 के दिन गुरुजी ने भारत के विभिन्न कोनों से अपने श्रद्धालुओं को आनंदपुर साहिब में एकत्रित किया।  और वहां बड़े ही विचित्र ढंग से उन्होंने ‘पांच-प्यारों की सृजना कीगुरुजी हाथ में नंगी तलवार लेकर अपने तंबू से बाहर निकले तथा अपने शिष्यों के समूह को गरजकर संबोधित करते हुए।   बोले, “मुझे एक शीश चाहिए क्या तुम्हारे में से कोई ऐसा पुरुष है।  जो धर्म के लिए, यहीं और अभी अपने प्राण न्यौछावर करने के लिए तैयार हो ?” यह हृदय कंपा देने वाली ललकार थी।  भीड़ में विचित्र- सा सन्नाटा छा गया।    लोग एक- दूसरे का मुंह ताकने लगे।

तब लाहौर से आया एक क्षत्रिय भाई दया राम उस विशाल जन-समूह में से उठ खड़ा हुआ। वह गुरुजी के पास र उनके आगे अपना सिर झुका दियागुरुजी उसे खेमे के भीतर ले गए तथा कुछ ही मिनटों मे ताजे लहू से भीगी तलवार हाथ में लिए बाहर आएतब एकत्रित भीड़ से वही प्रश्न पुनः दोहरायाइस बार दिल्ली का एक जाट भाई धर्म दास भीड़ में से उठकर गुरुजी के पास गया। गुरुजी उसे भी खेमे के भीतर ले गए, अब पहले से भी अधिक रक्त से सनी तलवार लेकर बाहर निकले तथा पुनः वही मांग दोहराई इस बार जगन्नाथ पुरी (उड़ीसा) निवासी भाई हिम्मतराय जो कि जाति के झीवर थे, ने अपना शीश गुरुजी को भेंट करने की पेशकश की परंतु पुनः गुरुजी ने वही मांग, वही ललकार दोहराई इसी प्रकार चौथी।    बार की ललकार पर द्वारिकापुरी (गुजरात) निवासी भाई मोहकम चंद तथा पांचवी बार बिदर (महाराष्ट्र) के एक नाई, भाई साहिब चंद ने बारी-बारी से गुरुजी को अपने शीश पेश करके उनकी आज्ञा मानी और स्वयं को गुरुजी के समक्ष समर्पित किया।  जब पांच गुरु-पुत्र अपने शीश दे चुके, तब भी लोग डरे, सहमे तथा भयभीत दिखाई दे रहे थे कि गुरुजी को यह क्या हो गया है। पर आने वाला समय कुछ और ही प्रकट कर रहा था। पांचवे व्यक्ति को खेमे के अंदर ले जाने के उपरांत कुछ ही देर बाद गुरुजी मुस्कराते हुए।   बाहर आए तथा उनके साथ पीछे- पीछे वहीं पांचों आत्म- बलिदानी थे जिन्हें वह बारी-बारी भीतर लेकर गये थे। गुरुजी ने उन पांचों पुरुषों को ‘पांच प्यारे’ कहकर पुकारा जो उनकी कठिन परीक्षा में उत्तीर्ण हुए।   थे।

गुरुजी ने घोषणा की कि बैशाखी वाले दिन वह इन पांच प्यारों के साथ “खालसा पंथ की स्थापनाकरेंगे तथा मुगलों के अत्याचार से टक्कर लेने के लिए एक सेना तैयार करेंगेइस प्रकार बैसाखी वाले दिन उन्होंने आनंदपुर साहिब में खालसा पंथ की स्थापना की घोषणा कीते पांच प्यारे पंथ अग्रणी पुरुष थेपृथक-पृथक श्रेणियों अथवा वर्गों से संबंधित इन पांचों पुरुषों को गुरुजी ने अमृतपान कराकर सिंह बना दिया और उनके नामों के साथ ‘सिंह’ शब्द का प्रत्यय जोड़ दिया।

होली, जो कि रंगों का त्योहार था।, को “होले’ का रूप देकर गुरुजी ने इस दिन को ‘होला-महल्ला के नाम से पुकाराइस प्रकार प्रत्येक वर्ष आनंदपुर साहिब में होला- महल्ला का त्योहार निरंतर तीन दिन बड़ी श्रद्धा व धूमधाम के साथ मनाया जाता है। देश के कोने-कोने से लाखों लोग, विशेषतः सिख इस मेले में भाग लेने यहां आते हैं। सिखों के धार्मिक और राजनैतिक संगठन इस अवसर पर अपनी तत्कालीन कठिनाइयों के संदर्भ में विचार-विनिमय करते हैं। श्रद्धालु जन यहां के विभिन्न धार्मिक महत्व वाले स्थानों तथा गुरुद्वारों के दर्शन करते हैं।

अन्य कई धार्मिक परम्पराओं और रिवाजों के अतिरिक्त एक महत्वपूर्ण रिवाज यह है कि प्रत्येक वर्ष यहां के गुरुद्वारा श्री केशवगढ़ साहिब के निशान साहिब के चोले को बदला जाता है। इस रस्म को “चोला-बदली” कहा जाता है। श्रद्धा के कारण पुराने चोले के छोटे-छोटे हिस्से लोगों में बांटे जाते हैं। जो लोग संतानहीन होते हैं अथवा जिनके घर संतान होकर मर जाती है। वे विशेष रूप से “निशान साहिब” के समक्ष अपना माथा टेकते हैं और संतान प्राप्ति के लिए प्रार्थना करते हैं।

होला-महल्ला पर निहंग सिंहों का जमाव मुख्य आकर्षण का केंद्र होता है। निहंग सिंह अपने परम्परागत विशिष्ट नीले पहनावे में सजधज कर कई प्रकार की धार्मिक क्रियाओं के अतिरिक्त गत्तकाबाजी और शस्त्रास्त्रों के अनेक कौतुक दिखाते हैं। निहंग सिंह शस्त्रास्त्र-विद्या में बहुत निपुण होते हैं।  इस मेले में ‘अमृतपान’ की रस्म मुख्य रूप से आयोजित की जाती है।  जिसमें दूर-दूर से आए सिखों को अमृतपान करवा कर “सिंह” सजाया जाता है। उन्हें गुरुजी द्वारा प्रदर्शित मार्ग और नियमों पर चलने के लिए वचनबद्ध किया जाता है।

“गुरु का लंगर” (निःशुल्क अन्न- जल) सिखों के प्रत्येक पर्व का और धार्मिक स्थल का एक अभिन्न अंग होता है। अतः आनंदपुर साहिब में भी होला-महल्ला पर्व पर गुरु का लंगर खाना सौभाग्यदायक समझा जाता है।

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