Varnik Chhand Ki Paribhasha aur Udahran | वर्णिक छंदकी परिभाषाऔर उदाहरण
वर्णिक छंद
Varnik Chhand
जिस छंद में वर्णों की संख्या तथा क्रम निश्चित हो, उसे वर्णिक छंद कहते हैं। यहाँ सम वर्णिक छंदों में से कुछ का वर्णन किया जा रहा है।
वर्णों की समानता रहने पर भी ये छंद एक दूसरे से रचना में भिन्न होते हैं। जैसे इन्द्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा और उपजाति छंदों में 11 वर्ण होते हैं। इसी तरह वंशस्थ, तोटक और द्रुतविलम्बित छंदों में 12 वर्ण होते हैं, किन्तु गणों की विभिन्नता के कारण लय में अंतर आ जाता है और छंदों में भिन्नता स्पष्ट हो जाती है। कुछ सम वर्णिक छंदों के नाम इस प्रकार हैं –
(1) इन्द्रवज्रा
(2) उपेन्द्रवज्रा
(3) उपजाति
(4) तोटक
(5) वंशस्थ
(6) द्रुतविलम्बित
(7) बसंत तिलका
(8) मालिनी
(9) मन्दाक्रांता
(10) इन्द्रवज्रा
(11) शिखरिणी
(12) सवैया – इसके अनेक प्रकार – मदिरा, मत्तगयंद, सुमुखी, किरीट, दुर्मिल, अरसात, सुन्दरी
(13) कवित्त
(14) घनाक्षरी आदि
सवैया
सवैया गण छंद है। बाइस से लेकर छब्बीस वर्णों तक के वृत्त सवैया कहलाते हैं। इस छंद के मुख्य भेद मदिरा, चकोर, मत्तगयंद, अरसात, किरीट, दुर्मिल, सुन्दरी, मुक्तहरा आदि होते हैं।
मत्तगयंद सवैया
यह वर्णिक छंद है। इसे मालती सवैया भी कहते हैं। इसके प्रत्येक चरण में 23 वर्ण होते हैं। प्रत्येक चरण में 7 भगण (SII) होते हैं तथा अंतिम दो वर्ण दीर्घ (SS) होते हैं। रसखान के सवैयों का हिन्दी साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान है। जैसे-
धूरि भरे अति सोभित स्यामजु तैंसि बनी सिर सुंदर चोटी।
SI IS II SI SII SI IS II SII SS
खेलत खात फिरैं अंगना पग पैजनिया कटि पीरी कछोटी।
वा छवि को रसखान विलोकत वारत काम कलानिधि कोटी।
काग के भाग बड़े सजनी हरि हाथ से लै गयो माखन रोटी।।
दुर्मिल
यहाँ दुर्मिल सवैया का उदाहरण दिया जा रहा है, जिसके प्रत्येक चरण में आठ सगण होते हैं। इसका दूसरा नाम चंद्रकला भी है।
पुर तैं निकसी रघुवीर वधू, धरि धीर दिये मग में डग है।
झलकीं भरि भाल कनी जल की, पुट सूखि गये मधुराधर वै।
फिर बूझति है चलनौ अब केतिक, पर्णकुटी करिहौ कित है।
तिय की लखि आतुरता पिय की, अंखियाँ अति चारु चलीं जल च्वै।
तड़पै तड़िता चहुँ ओरन तै, छिति छाई समीरन की लहरें।
मदमाते महा गिरी-श्रृंगन पै, गन मंजु मयूरन के कहरें।
इनकी करनी बरनी न परै, मगरूर गुमानन सौं गहरें।
घन ये नभ – मंडल में छहरें, घहरें कहुँ जाय कहुँ ठहरें ।
बसंत तिलका
यह वर्णिक सम छंद है। इसमें चार चरण होते हैं। इसके प्रत्येक चरण में चौदह वर्ण होते हैं। प्रत्येक चरण में गणों का क्रम त भ ज ज तथा अंत में दो गुरु रहता है।
जो आप आकर करते यहाँ लड़ाई
S SI SII IIS IS ISS
देने चले समर में मुझको बड़ाई।
मैं धन्य भाग अपना यह जानती हूँ
मैं भी अवश्य कुछ हूँ यह मानती हूँ।
द्रुतविलम्बित
यह वर्णिक सम छंद है। इसमें चार चरण होते हैं। इसके प्रत्येक चरण में बारह वर्ण होते हैं। प्रत्येक चरण में एक नगण, दो भगण, एक रगण के रूप में 4 गण रहते हैं।
दिवस का अवसान समीप था,
गगन था कुछ लोहित हो चला,
तरु शिखा पर थी अब राजती,
कमलिनी कुल वल्लभ की प्रभा।
कवित्त
इसके अनेक रूप हैं। ये गणों से मुक्त रहते हैं। इसे मनहरण भी कहते हैं। इसके प्रत्येक चरण में इकतीस वर्ण होते हैं, सोलह और पंद्रह वर्णों पर विराम होता है। चरण के अंत में गुरु रहता है।
वृष को तरनि तेज सहसौं किरन करि,
ज्वालत के जाल बिकराल बरखत हैं।
तचति धरति जग जरत झरनि, सीरी
छांह को पकरि पंछी-पंथी बिरमत हैं।
‘सेनापति‘ नैकु दुपहरी के ढरत होत
धमका विषम, जो न पात खरकत हैं।
मेरे जान पौनों सीरी ठौर को पकरि कौनों,
घरी एक बैठि कहूँ घामैं बितवत है।
बरन-बरन तरू फूले उपवन-वन,
सोई चतुरंग संग दल लहियतु हैं।
बंदी जिमि बोलत बिरद वीर कोकिल है,
गुंजल मधुप गान गुन गहियतु हैं।
आवै आसपास पुहुपन की सुवास सोई,
सोने के सुगंध भाझ सने रहियतु हैं।
सोभा को समाज सेनापति सुख साज आजु,
आवत बसन्त रितुराज कहियतु हैं।
झहरि-झहरि झीनी बूंद हैं परति मानो,
घहरि-घरि घटा घेरी है गगन में।
आनि को स्याम मोसों चलौ झूलिबे को आज,
फूलि ने समानी भई, ऐसी हौं मगन में।
चाहति उधोई उठि गयी सो निगोड़ी नींद,
सोय गये भाग मेरे जागि वा जगन में।
आंखि खोल देखौ तौ न घन हैं न घनश्याम,
वेई छाई बूंदें मेरे आंसू हैं दृगन में।