Van Mahotsav “वन महोत्सव” Hindi Essay, Paragraph in 700 Words for Class 10, 12 and competitive Examination.
वन महोत्सव
Van Mahotsav
वृक्षों की धड़ल्ले से निर्मम कटाई के परिणामस्वरूप यह धरती एक दिन जलहीन और छायाहीन मरुभूमि में बदल सकती है और मनुष्य के लिए घोर संकट उत्पन्न हो सकता है। वस्तुतः अरण्य हनन (वनों की कटाई) आत्महनन का ही नामान्तर है। वर्तमान समय में वन महोत्सव द्वारा वन संरक्षण की योजना इसी कठिन सत्य की अनुभूति का परिणाम है। मरुभूमि के प्रसार का प्रतिरोध अरण्य सृजन द्वारा ही हो सकता है। राजस्थान के रेगिस्तान के विस्तार का अवरोध इसी विधि से संभव हुआ। वन प्रकृति को मानव समाज के समीप लाना ही वन महोत्सव का मूलोद्देश्य है।
भारतीय सभ्यता में वनों का महत्त्व सदा से रहा है। भारतीय जीवन में, साहित्य में, दर्शन में, वन की विशेष भूमिका सर्वविदित थी। प्रकृति के अनादर या उपेक्षा में वन की विशेष भूमिका सर्व स्वीकृत थी। नगर और वन भूमि में इन दिनों विशेष व्यवधान भी नही था। पर बाद में पाश्चात्य सभ्यता के नगर केन्द्रित प्रभाव के कारण उन वन भूमि को नष्ट करके इस पर ईंट, पत्थर, लकड़ी की कृत्रिम शोभास्थली स्थापित की जाने लगी जो वास्तव में उनकी कब्रगाह है।
सत्रहवीं शताब्दी के अंतिम दशक से ही विज्ञान की प्रगति आरम्भ हो गई थी। विज्ञान के नित्य नये आविष्कारों ने मानव को उन्मत्त बना दिया। तभी से उनके मन में नागरिक परिवेश के प्रति आकर्षण उत्पन्न हुआ। देश में विभिन्न प्रकार के शिल्पों की स्थापना हुई। प्राविधिक दक्षता से मानव किंकृर्तव्यविमूढ़ हो गया। परित्यक्त होने लगी-वन भूमि। कल कारखानों में वृद्धि हुई। खाद्यान्नों के प्रयोजन वनभूमि को समतल बनाकर फसल उगाई जाने लगी। विलास की वस्तुओं के निर्माण के लिए असंख्य पेड़ काट डाले गए। इस प्रकार मनुष्य नृशंस भाव से वन उन्मूलन कार्य करने लगा और अनजाने ही उसने अपने सर्वनाश को बुलावा दे दिया।
वनभूमि और मानव जीवन में एक अदृश्य योग सूत्र है। ऋतु परिवर्तन का दोनों पर प्रभाव पड़ता है। वृक्षों के कारण पृथ्वी मरुभूमि नहीं बनी। वृक्ष ही धरती पर वर्षा की धारा लाते हैं। वन के वृक्षों में बाढ़ रोकने की प्रबल शक्ति है। वन वातावरण में प्रदूषण को फैलाने नहीं देते, पर्यावरण की शुद्धता बनाए रखते हैं।
भारत में अंग्रेजों के बाद से ही आधुनिक नागरिक जीवन की शुरुआत हुई। अंग्रेजों द्वारा बनाए गए कोलकात्ता, चेन्नई, मुम्बई शहर ही हमारे देश में नगर केन्द्रित सभ्यता विकास की पटभूमि हैं। प्राचीन नगरों से आधुनिक नगरों की प्रकृति बिल्कुल भिन्न है। चारों नीम प्रतिमान (पैटर्न) पर बने इन शहरों के इर्द-गिर्द तभी से कलकारखाने लगने लगे हैं और साथ ही साथ वन विध्वंस कार्य भी आरम्भ हो गया था। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद के दशकों में अत्यधिक रुचि लेने के कारण वनों को बेतुके ढंग में मिटा दिया जाने लगा। दिन पर दिन मानव की आवश्यकता बढ़ती चली गई। आदमी वन संरक्षण की बात बिल्कुल भूल गया। वनों को मिटा कर नई-नई बस्तियाँ बसायी जाने लगीं। व्यवसायिक स्वार्थ सर्वोपरि हो गया । अनियांत्रिक और अत्यंत वाणिज्य वृद्धि से प्रेरित होकर मनुष्य अपनी अवांछित और अशुभ आशंका को चरितार्थ करने लग गया।
अपरिमित वन उन्मूलन का भयावह परिणाम हुआ। तब लोगों को चेतना हुई। वनध्वंस के दुष्परिणाम और पुनर्मृजन की उपयोगिता समझ में आई। हमारे देश में रवीन्द्रनाथ ठाकुर ही वन महोत्सव के प्रथम प्रवर्तक हैं। उन्होंने शांति निकेतन में इस पर्व का शुभारम्भ किया। ऋषि कवि ने ही सर्वप्रथम वृक्षारोपण के महत्त्व और उसकी सार्थकता की सम्यक उपलब्धि की थी। उन्होंने शांति निकेतन में नृत्य गीत द्वारा इस अनुष्ठान को एक आनन्दमय उत्सव का रूप दिया था। गुरुदेव के आदर्श से प्रेरणा लेकर सन् 1950 ई. में भारत सरकार ने औपचारिक रूप से वन महोत्सव का प्रारंभ किया। इस राष्ट्रीय उद्यम का उद्देश्य केवल वन संरक्षण ही नहीं, नये पौधे लगाकर पेड़ों की तादाद को बढ़ाना भी है।
देश की सरकार अब वन-संपदा के सामाजिक आर्थिक और सांस्कृतिक महत्त्व को समझ गई है। पर्यावरण तथा वर्षा के परिणाम के लिए भी वन की अपरिहार्य भूमिका को हृदयंगम करने का दिन आ गया है। भारत में वैसे भी वन सम्पदा का परिणाम आवश्यकता से बहुत कम है। पर्याप्त मात्रा में वन न होने के कारण वर्षा का परिणाम कम है और वह भी अनिश्चित। सिंचाई की योजनाओं का राष्ट्रीय स्तर पर उचित देशभाल होनी चाहिए। जो अक्सर नहीं होता है। हमें स्मरण रखना चाहिए कि वनभूमि का श्यामल समारोह ही देश की शोभा और समृद्धि की वृद्धि कर सकता है। यह अत्यन्त हर्ष की बात है कि देश अब वन संरक्षण और वृक्षारोपण के कार्यों में लग गया है। जिसका सुफल अवश्यम्भावी है।