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Tiraskrit Bhartiya Prajatantra “तिरस्कृत भारतीय प्रजातंत्र” Hindi Essay, Nibandh 1000 Words for Class 10, 12 Students.

तिरस्कृत भारतीय प्रजातंत्र

Tiraskrit Bhartiya Prajatantra

अधिकारों की असमानता और अवसरों की असमानता से ही क्रांतियों की पृष्ठभूमि बनती रही है। राजतंत्र और अभिजात वर्ग की समाप्ति के बाद राजनैतिक समानता के सिद्धान्त का जन्म हुआ। यह निःसंदेह महान सामाजिक आदर्श है। जॉर्ज बर्नार्ड शॉ के अनुसार, “यह केवल एक वर्ग नहीं बल्कि सम्पूर्ण जनसंख्या के महानतम उपलब्ध कल्याण के उद्देश्य वाली एक सामाजिक व्यवस्था है।” ऐसा विश्व जिसमें लोगों की आवाज ईश्वर की आवाज होती है और इक्कीस वर्ष की आयु के ऊपर प्रत्येक के लिए राजनैतिक क्षमता और दूरदर्शिता अपरिमेय और अमोध होती है, वह उसके लिए ‘परीलोक’ होता है।

भारत के लम्बे एवं उतार-चढ़ाव वाले इतिहास में 26 जनवरी, 1950 एक शुभ दिन था क्योंकि इसी दिन स्वतंत्र भारत के संविधान को धर्मनिष्ठ आशाओं और महान अपेक्षाओं के साथ लिया गया था। स्वतंत्रता सेनानियों, कानून के विद्वानों और उस समय के संविधान विशेषज्ञों के अथक प्रयास और एकाग्रचित समर्पण द्वारा तैयार भारत के नए संविधान की प्रस्तावना में घोषणा की गई है कि “हम, भारत के लोग भारत को एक सम्प्रभुसत्ता सम्पन्न लोकतांत्रिक गणराज्य बनाने के लिए और अपने सभी नागरिकों के लिए न्याय, स्वतंत्रता, समानता, बंधुता सुनिश्चित करने के लिए, इस संविधान को अंगीकार, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं। बाद में प्रस्तावना में 42वें संशोधन द्वारा (1976) समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष विशेषण को भी समाहित किया गया।

इसलिए, यह भारत के सभी नागरिकों की पवित्र प्रतिज्ञा थी कि नया राज्य प्रभुतासम्पन्न, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य होगा जिसमें इसके सभी नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय; विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, आस्था और पूजा की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समानता प्राप्त होगी। यह भी वचन दिया गया है कि राज्य अपने सभी नागरिकों के बीच बंधुता का विकास और व्यक्ति की प्रतिष्ठा और राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित करेगी।

स्वतंत्रता के साठ वर्ष से अधिक समय के बाद भी अधिकांश नागरिक चकित हैं कि संविधान में निहित वचन को किस हद तक पूरा किया गया है और हमारा लोकतंत्र किस दिशा की ओर अग्रसर है। यह बिल्कुल वही प्रश्न है जिसे इस निबंध में उठाया गया है। इस प्रश्न का उत्तर जानने के लिए हमें लोकतंत्र की अवधारणा पर फिर से विचार करना होगा और दशकों के दौरान भारत में इसके कार्यों पर पुनर्विचार करना होगा। हम बारी-बारी से इनकी जाँच करते हैं।

एक तरफ, निरक्षरता, बेरोजगारी, आर्थिक विषमता, कुछ हाथों में धन का केंद्रीकरण, जीवन का निम्न स्तर, भ्रष्टाचार, अपराधियों और राजनीतिज्ञों के बीच संबंध, सैकड़ों करोड़ रुपए के नित्य नए घोटाले भारतीय लोकतंत्र की आधारशिला के लिए खतरा उत्पन्न कर रहे हैं। दूसरी तरफ, आर्थिक विषमता, राजनैतिक षड्यंत्र, गुप्त सौदा, भाषाई कट्टरता अनियंत्रित अनुपात में माने गए हैं। इन सभी बुराइयों की वृद्धि का कुल प्रभाव यह है कि कानून के सिद्धांत पर आधारित शासन प्रणाली वास्तव में समाप्त हो गई है। नियमतः लोकतांत्रिक व्यवस्था में कानून सर्वोच्च होता है, कानून के समक्ष सभी समान होते हैं और प्रत्येक दशा में कानून अपनी प्रक्रिया पूरी करता है। वर्तमान भारत में कानून विधि की पुस्तक के पृष्ठों में प्रतिष्ठापित तो है किंतु यह वास्तव में संचालित नहीं होता है। कानून अपनी प्रक्रिया पूरी नहीं करता है अपितु यह ऊँचे और शक्तिशाली, जो कभी-कभी अपराधी और कानून तोड़ने वाले होते हैं, के मार्ग का अनुसरण करता है। वर्तमान में केवल 25 प्रतिशत जनसंख्या विकास और परिलब्धियों का लाभ तथा ज्ञान एवं सत्ता के एकाधिकार का उपभोग करती है। वर्तमान में लोकतंत्र चौराहे पर खड़ा है। स्वार्थी, अदूरदर्शी, भ्रष्ट और बेईमान राजनीतिज्ञ कभी-कभी राज्य में सर्वोच्च पद पर पहुँच जाते हैं, क्योंकि सही व्यक्तित्व और दूरदर्शिता वाले व्यक्ति बिल्कुल समाप्त हो गए हैं। ऐसे नेता अपने भारतीय एवं विदेशी बैंक खातों में अधिक से अधिक धन जमा करने और अपना वोट बैंक बनाने में लगे हुए हैं ताकि वे किसी भी कीमत पर या किसी भी तरीके से समय-समय पर आने वाले चुनावों को जीतने में सक्षम हो सकें।

अविलंब अमीर बनने वाले पेशेवर राजनीतिज्ञों द्वारा पूर्व निर्धारित ढंग से उत्पन्न सम्प्रदायवाद, जातिवाद, धार्मिक कट्टरपंथ, अंतर्जातीय तनाव ने ऐसा वातावरण तैयार कर दिया है जिसमें देश के लोकतंत्र का भविष्य क्षीण हो गया है। इन सब का परिणाम यह है कि लोगों ने पार्टी पर आधारित राजनीतिक प्रणाली में विश्वास खो दिया है। लोगों के बीच व्याप्त निराशा पिछले कई लोक सभा चुनावों के परिणामों में परलक्षित हुई जिसमें किसी भी राष्ट्रीय दल को सरकार बनाने हेतु स्पष्ट बहुमत नहीं मिल सका। चुनाव परिणामों की विवेचनात्मक समीक्षा प्रदर्शित करती है कि राष्ट्रीय पार्टियों को अपने भविष्य को लेकर आत्ममंथन अवश्य करना चाहिए नहीं तो लोग विवश होकर क्षेत्रीय पार्टियों को प्राथमिकता देने लगेंगे। कुछ लोगों ने इसे संघवाद की ओर अग्रसर होने की प्रवृत्ति के रूप में इसकी प्रशंसा की है। हालांकि, यह आशंका है कि जल्दी ही यह नए प्रकार का संघवाद 28 राज्यों और 7 केंद्र शासित राज्यों के संघवाद को समाप्त कर सकता है और 543 प्रदेशों वाला संघवाद बन सकता है जिसमें प्रत्येक संसदीय निर्वाचन क्षेत्र एक प्रदेश और विधानसभा क्षेत्र एक उप-प्रदेश हो सकता है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अगस्त 1947 के पहले ब्रिटिश भारत में 11 ब्रिटिश प्रांतों के अलावा 570 देशी रियासतें थे। शायद हम पुनः उसी सामंती प्रणाली की ओर जा रहे हैं। स्वतंत्र भारत की लोकतांत्रिक सरकार ने सभी राज्यों का विलय कर लिया और पूर्व शासकों की पदवियों और राजकीय भत्तों को समाप्त कर दिया गया। किंतु इन नई जागीरों और इन नए महाराजाओं और खलीफाओं का प्रादुर्भाव कौन रोकेगा ?

रूढ़िवादी लोकतंत्र ने भारत की आवश्यकताओं की असमानता को प्रमाणित कर दिया है। समस्या वर्तमान परिस्थिति के अनुकूल लोकतंत्र की परंपरागत संस्थाओं में सुधार लाने की है। लोकतंत्र की अक्षमता सबसे पहले भारत की आर्थिक समस्याओं में स्पष्ट हो गई। इसलिए, आर्थिक प्रणाली का प्रबंध इस प्रकार करना चाहिए कि प्रत्येक को उपयुक्त जीवन-स्तर और उचित मात्रा में सुरक्षा और स्वतंत्रता सुनिश्चित हो।

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