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Shant Rasa Ki Paribhasha, Bhed, Kitne Prakar ke hote hai aur Udahran | शांत रस की परिभाषा, भेद, कितने प्रकार के होते है और उदाहरण

शांत रस

Shant Rasa

alankar and rasa

परिभाषा – जब सहृदय के हृदय में स्थित निर्वेद नामक स्थायी भाव का विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के साथ संयोग होता है, तब शांत रस की निष्पत्ति होती है। मन में उत्पन्न वैराग्य भाव, उदासीनता, ईश्वर के प्रति भक्ति, मोक्ष, आत्मानंद के कारण शांत रस की सृष्टि होती है।

स्थायी भाव – शम या शांति, निर्वेद, वैराग्य ।

आलम्बन विषय – संसार की असारता, ईश्वर, मोक्ष, आत्मानंद, परमार्थ आदि।

आश्रय दर्शक।

उद्दीपन विभाव – शांत प्रकृति, शांति-प्रदायक वातावरण, देवदर्शन, धर्मग्रन्थ पढ़ना-सुनना, साधु-समागम, धर्मोपदेश, स्वाध्याय आदि।

अनुभाव – पुलक रोमांच, अश्रु आदि।

संचारी भाव हर्ष, बोध, धृति, स्मृति आदि।

वैराग्य के साथ-साथ यदि ईश्वर के प्रति भक्ति का भाव प्रबल हो, तो भक्ति रस का संचार होता है। इस परिस्थिति में –

स्थायी भाव – ईश्वर में अनुरक्ति ।

आलम्बन विषय – इष्ट देव ।

आश्रय भक्त।

उद्दीपन विभाव – इष्ट देव का गुण श्रवण आदि तथा शांत रस के सभी उद्दीपन।

अनुभाव – नत मस्तक होना, प्रणाम, पूजन, पुलक, रोमांच, कीर्तन आदि।

संचारी भाव – हर्ष, बोध, धृति, स्मृति आदि ।

उदाहरण –

पायो जी मैंने, राम रतन धन पायौ।

वस्तु अमोलक दी मेरे सद्गुरू, किरपा करि अपनायौ।

जनम-जनम की पूँजी पाई, जग में सभी खोवायौ।

खरचै नहिं कोई चोर न लैवै दिन-दिन बढ़े सवायौ।

सत की नाव खेवटिया सतगुरु, भव-सागर तर आयौ।

मीरा के प्रभु गिरधर नागर, हरख हरख जस गायौ।

यहाँ स्थायी भाव = निर्वेद। आश्रय = मीरा। विषय = श्रीकृष्ण। उद्दीपन – ईष्ट देव का गुणगान। अनुभाव – भजन करना। संचारी भाव = धृति, हर्ष।

खुला मंदिर का ज्योंहि द्वार,

किया सब भक्तों ने जय घोष।

देखकर उनका हर्ष अपार,

हुआ क्या प्रभु को कुछ

संतोष ?

यहाँ स्थायी भाव – निर्वेद (भक्ति भावना)। आश्रय = भक्त। विषय – ईश्वर। उद्दीपन = देव दर्शन। अनुभाव – जय घोष। संचारी भाव = हर्ष|

अन्य उदाहरण –

सुन मन मूढ! सिखावन मेरो।

हरिपद-विमुख लह्यो न काहू सुख, सठ! यह समुझ सबेरो ।।

बिछुरे ससि रवि मन नैननि तैं, पावन दुख बहुतेरो।

भ्रमत स्त्रमित निसि-दिवस गगन मँह, तहँ रिपु राहु बड़ेरो ।।

जद्यपि अति पुनीत सुरसरिता, तिहुँपुर सुजस घनेरो।

तजे चरन अजहूँ न मिटे नित, बहिबो ताहू केरो।।

छुटै न विपति भजे बिन रघुपति, स्स्रुति सन्देहु निबेरो।

तुलसीदास सब आस छाँड़ि करि, होहु राम कर चेरो ।।

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