Satya ki Shiksha “सत्य की शिक्षा” Complete Hindi Essay, Paragraph, Speech for Class 10, 12 and Graduate Students.
सत्य की शिक्षा
Satya ki Shiksha
पूर्ण सत्य यह है कि इस संसार में कुछ भी पूर्ण नहीं है। प्रत्येक वस्तु सापेक्ष, अनुकूलित तथा अस्थायी है। कोई भी वस्तु अपरिवर्तनशील, चिरस्थायी, पूर्ण नहीं है और इसलिए सत्य की शिक्षा नहीं दी जा सकती है वरन यह अन्तर्निहित ही होता है। किसी भी व्यक्ति में सत्य अन्तर्निहित रहता है और कितनी भी शिक्षा से उसे स्थापित नहीं किया जा सकता है। अन्तर्निहित सत्य व थोपे गए सत्य में उतनी ही भिन्नता है जितनी की किसी वस्तु के सिद्धान्त व व्यवहार में होती है। किसी एक स्थिति में जो भी बात सत्य हो सकती है दूसरी स्थिति में सत्य नहीं भी हो सकती। विज्ञान को एकमात्र सत्य माना जाता है किन्तु किसी को भी यह नहीं भूलना चाहिए कि इसके सिद्धान्त तभी सच हो सकते हैं जब अन्य सभी कुछ नियंत्रित हो, किन्तु जीवन में हमारे पास गैर-गतिज तथा स्थैतिज प्रयोगशालाएं नहीं होती हैं। जीवन में प्रभाव उत्पन्न करने वाले कई तत्व होते हैं जो दृष्टिगोचर हो भी सकते हैं अथवा नहीं भी हो सकते और किसी भी क्रम में आ सकते हैं।
वास्तव में सत्य एक सतत प्रयोग की तरह होता है जिसका परिणाम समय-समय पर बदलता रहता है और परिणाम कभी भी अन्तिम नहीं हो सकते। गांधी जी, जिन्हें सत्य की मूर्ति माना जाता है, ने ठीक ही अपनी जीवनी का नाम ‘माई एक्सपेरिमेंट्स विद ट्रुथ’ रखा। जीवन सत्य का ही एक प्रयोग है जहां वस्तुओं का एक परिप्रेक्ष्य परिवर्तनशील अनुभव, समय तथा अभिव्यक्तिकरण के साथ बदल जाता है। किसी व्यक्ति को उसके प्रारंभिक बाल्यकाल में बहुत सी चीजें सीखाई जाती हैं परन्तु समय तथा अभिव्यक्तिकरण के साथ वह यह महसूस करने लगता है कि जिस चीज को वह सच मानता था वह वास्तव में बिल्कुल ही भिन्न है। और, फिर भी जब वह अपने बच्चों को पढ़ाने लगता है तो उसे भी वह वे ही चीजें ही सीखलाता है जिन्हें उसके जीवन ने अस्वीकृत कर दिया है। ऐसा मुख्यतः इसलिए होता है कि हम आदर्शवादी सपनों में विश्वास करना पसंद करते हैं और हालांकि हमारा जीवन आदर्शवादी सपनों से बहुत दूर हो जाता है, फिर भी हम यह सोचते हैं कि संभवतः हमारे बच्चे के जीवन उन आदर्श स्तरों को प्राप्त कर लें। इसलिए यह एक ऐसी आशा है जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचायी जाती है और निश्चित रूप से सत्य नहीं पहुंच पाता।
हमारे अधिकांश पाठ्य-पुस्तक तथा स्कूल के पाठ्यक्रम इन बातों के आसपास केन्द्रित रहते हैं कि क्या होना चाहिए न कि इस पर कि क्या हो रहा है। संरक्षात्मक बनने की अपनी प्रवृत्ति के कारण हम अपने बच्चों को वैसी बाते सीखाते हैं जो झूठ पर आधारित होती हैं। हमारा दिन प्रार्थनाओं से शुरू होता है जिनमें मानव भाईचारे की बात रहती है- सभी पुरूष और महिलाएं हमारे भाई तथा बहन हैं। इस झूठ से बड़ा झूठ क्या हो सकता है? उसी अवस्था में हम इस बात से भी अवगत रहते हैं कि ऐसी बात नहीं है क्योंकि हमें साथ-साथ दोस्तों तथा दुश्मनों, परिवार तथा अजनबियों इत्यादि की पहचान करने तथा उनमें अन्तर करना सीखलाया जाता है। वस्तुतः मुझे याद है कि हम इस प्रार्थना में एक को छोड़कर अभिव्यक्ति जोड़ा करते थे क्योंकि हम अपने भावी पति/पत्नी से अत्यधिक सरोकार रखते थे।
इतिहास में हमें ऐसी बातें ही बतलाई जाती है जो सकारात्मक होती है और नकारात्मक बातों को सुविधाजनक रूप से छोड़ दिया जाता है। अर्ध-सत्य बात झूठ के समान होती है। निःसंदेह रूप से हमारा इरादा अच्छा होता है किन्तु यह अर्धसत्य बात को पूर्ण सत्य नहीं बनाता है। इसलिए प्रायः कोई भी हमेशा यह सोचते हुए बड़ा होता है कि हमारे नेतागणों, वर्तमान तथा भूतपूर्व, ने कोई भी गलत कार्य न किया है, परन्तु बाद में हम यह पाते हैं कि प्रत्येक मनुष्य अथवा महान व्यक्ति में कुछ दोष विद्यमान रहा है। इस सत्य की शिक्षा हमें जीवन से ही मिलती है और हमें इसकी अनुभूति होती है। वस्तुतः कुछ विद्वान इस बात को हद तक ले जाते हैं और यह महसूस करते है कि स्कूल समय की बर्बादी है क्योंकि ऐसी जगह पर हमें केवल अधूरी शिक्षा मिलती है जबकि जीवन हमें अधिकांश बातों की शिक्षा उचित समय में ही देता है। आखिरकार यह तथ्य उजागर होता है कि अन्ततः हमें सत्य की शिक्षा जीवन से ही मिलती है और यह थोपकर हमें नहीं सीखाई जा सकती है।
धर्म हमें शिक्षित करने का एक अन्य माध्यम है किन्तु यह मुख्यतया आदर्शवादी विचारों पर केन्द्रित रहता है और यह आधुनिक शिक्षा पद्धति की तुलना में बहुत ही कम व्यावहारिक है। जहां तक स्कूलों का प्रश्न है, हमें अपने दृष्टिकोण हेतु कुछ मूल बातें सीखाई जाती है परन्तु अन्तिम सत्य का सत्यापन जीवन से ही होता है। कितना भी जटिल पाठ हो जीवन द्वारा सीखाने का तरीका कुछ ऐसा है जो कि किसी भी अन्य पद्धति में नहीं है। ऐसा इसलिए है कि जीवन में हम विवेक द्वारा किन्हीं बातों को नियंत्रित करने अथवा विशेष तर्क द्वारा व्याख्या का विषय क्षेत्र सीमित करने की कोशिश नहीं करते हैं। हमें किसी ठोस सबूत की जरूरत नहीं होती है। हमें किसी भी चीज के बारे में उसे विभिन्न घटकों में विभाजित किए बिना ही जानकारी मिल जाती है।
मानव मानस की जटिलताएं असीम हैं और मानस अपना स्वयं का साहचर्य तथा निष्कर्ष संघटित करता है तथा यह अत्यधिक गतिज एवं सक्षम होता है। किसी बच्चे को यह मालूम नहीं होता कि भोजन क्या होता है परन्तु उसे भूख की जानकारी होती है, उसे प्यार की परिभाषा देना नहीं आता परन्तु वह इसे महसूस कर सकता है। उसे इस वैज्ञानिक प्रक्रिया की जानकारी नहीं होती है कि किस तरह कोई चोट संक्रमित हो सकती है तथा रक्त का स्कन्दन हो सकता है किन्तु फिर भी वह ठोकर लगने वाले पत्थर के रास्ते से हट जाता है। कोई व्यक्ति अशिक्षित होने के बावजूद भी जीवन संबंधी निर्णयों में विवेकी हो सकता है क्योंकि किताबों से उसे शिक्षा नहीं मिलती, परन्तु जीवन से निश्चित रूप से वह काफी कुछ सीखता है और बहुत से प्रतिभासंपन्न व्यक्तियों ने अपनी सफलता के लिए नियमित स्कूली शिक्षा नहीं प्राप्त की। इसकी कोई गारंटी नहीं है कि एक एम.बी.ए. निश्चित रूप से एक सफल व्यवसायी बन ही जाएगा और इस बात की भी गारंटी नहीं होती है उसके पास अपनी परीक्षाओं में सर्वदा सर्वोच्च स्थान पाने संबंधी बुद्धि है अथवा उसने उन विषयों का अध्ययन किया है जिनमें अविष्कार शामिल हैं।
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और यह बहुत सी बातें समाज में रहने से ही सीखता है और यही कारण है। कि एक ही स्कूल में पढ़ने के बावजूद भी लोग अलग-अलग ढंग से सीखते हैं तथा अभिक्रिया करते है। यहां भेदमूलक कारक समाज तथा इसमें रहना है। इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि किसी व्यक्ति को स्कूल में क्या शिक्षा मिली है, किन्तु जो भी शिक्षा उसके व्यक्तित्व में निहित हो जाती है तथा उसके सत्य के क्षेत्र का निर्माण करती है उसे वह अपने समाज से, अपने दैनिक अनुभवों से आत्मसात करता है।
इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि कोई सार्वभौमिक सत्य नहीं होता, वरन वैयक्तिक सच्चाइयां होती हैं जिसे व्यक्ति अपने जीवन में आत्मसात करता है। उसके लिए सत्य वह है जिसका उसने अनुभव किया है और यह अपने आप में अनन्य होता है। मूल तत्व एक जैसे हो सकते हैं किन्तु वैयक्तिकता कभी भी अलग नहीं हो सकती है। प्रत्येक जीवन को अपने ही अनन्य ढंग से बिताया जाता है और यह किसी तरह का बहुमत बना सकता है किन्तु संपूर्णता में जीवन कभी भी किसी एक ही सामान्य बात का अनुसरण नहीं करता है। प्रत्येक व्यक्ति जिन्दा रहने के लिए खाता है, यह एक सामान्य बात हो सकती है किन्तु खाने का तरीका, इसमें सन्निहित शारीरिक तथा मानसिक प्रक्रियाओं के साथ संयोजित पचाने की प्रक्रिया लघु अथवा वृहत पहलुओं में प्रत्येक के अनुभव में अन्तर ला सकता है और कई बार यद्यपि केवल समानताएं विद्यमान होती हैं परन्तु वस्तुओं के प्रति हमारे दृष्टिकोण में भिन्नताएं आ सकती हैं। जैसे-जैसे हमारी आयु बढ़ती है हम वस्तुओं को अलग तरीके से पहचानने तथा प्रतीक के रूप में समझने लगते हैं और इसलिए एक एकल प्रक्रिया ही दो लोगों के लिए विभिन्न रूपों में हो सकती है। यहां एक उद्धरण दिया गया है जिसकी, मुझे लगता है अत्यधिक प्रासंगिकता है और जो यह बताता प्रतीत होता है कि सच्चाइयां थोपी नहीं जा सकती है वरन यह स्वयं की तर्कणा एवं अनुभव के साथ आत्मसात की जाती है।
किसी भी चीज पर केवल इसलिए सहज ही विश्वास न करें कि यह आपने सुना है। केवल इसलिए सहज ही विश्वास न करें कि यह कई पीढ़ियों से चली आ रही है। किसी भी चीज पर केवल इसलिए सहज ही विश्वास न करें कि यह कइयों द्वारा बोली जाती है और इसकी अफवाह उड़ाई जाती है। किसी भी चीज पर केवल इसलिए सहज ही विश्वास न करें कि यह पवित्र ग्रन्थों में लिखी गई है। किसी भी चीज पर केवल शिक्षकों, बड़ों अथवा विद्वान लोगों के कहने पर सहज ही विश्वास न करें। केवल सावधानीपूर्वक प्रेक्षण तथा विश्लेषण के बाद ही किसी भी चीज पर तब विश्वास करें जब आपको ऐसा प्रतीत हो कि यह तर्क के अनुरूप है और सभी के हित एवं लाभ के अनुकूल है। इसके बाद इसे स्वीकार करें तथा इसके अनुसार कार्य करें।”