Sahitya aur Dharam “साहित्य और धर्म” Hindi Essay, Paragraph in 800 Words for Class 10, 12 and competitive Examination.
साहित्य और धर्म
Sahitya aur Dharam
साहित्य को मानव-जीवन की कोमल-कान्त आन्तरिक भावनाओं का वाहक माना गया है, हालाँकि उनका आधार जीवन का ऊबड़-खाबड़, कठोर और यथार्थ धरातल ही हुआ करता है। इसके विपरीत धर्म का सम्बन्ध भी वस्तुतः मानव मन की कोमल, भावुक और एक सीमा तक चमत्कार प्रिय भावनाओं से ही हुआ करता है, यद्यपि वे भावनाएँ जागतिक धरातल पर आधारित न होकर तरह-तरह के आलौकिक या पारलौकिक विश्वासों, धारणाओं, विचारों, चेतनाओं और चिन्तनों पर आधारित रहा करती है। साहित्य हो या धर्म, दोनों ही सनातन शाश्वत् सत्य के अन्वेषक और मानव-मन तथा जीवन को कई प्रकार के आश्वासन कई प्रकार के विश्वास, कई प्रकार के आश्रय प्रदान करने वाले हैं। यही कारण है कि अक्षर को सत्य, ब्रह्म का रूप माना कहा गया है और साहित्य उन ब्रह्म रूप अक्षरों से बने शब्दों से ही रचा जाता है।
शब्द (शब्द) ज्ञान ब्रह्म का रूप भी माना गया है। बल्कि उससे भी बढ़कर शब्द- ब्रह्म तक स्वीकार किया गया है। अध्यात्मिक या धार्मिक परम्परा में जैसे ब्रह्म कभी मरता नहीं, आधुनिक विज्ञान द्वारा सिद्ध सिद्धान्त-विश्वास के अनुसार शब्द भी कभी मरा या समाप्त नहीं हुआ करता। अतीत की ही कहानियाँ पकड़कर, आज की ध्वनियां शब्दों को एक स्थान से दूसरे स्थानों तक पहुँचकर ज्ञान-विज्ञान ने यह सिद्ध कर दिया है। उसी प्रकार साहित्य का सत्य शब्द रूप साहित्य भी आज अजर-अमर होकर युग-युगों तक मानव-जीवन को अनुप्रमाणित करता रहा है। फिर यदि यह शब्द सत्य धर्म-सत्य को भी साथ लेकर चला हो, तब तो कहना ही गया। वह युग-युगों तक मानव की व्यापक अर्थों में सत्य प्रवण धार्मिक-आध्यात्मिक चेतना को नित नया सम्बल प्रदान करता रहता है। उदाहरणस्वरूप हम वैदिक काल, वेदोत्तरकाल के समूचे संस्कृत साहित्य को तो ले ही सकते हैं, भक्ति काल में रचे गए कबीर, जायसी, सूर, तुलसी विचरित साहित्य को भी ले सकते हैं। उपर्युक्त सभी प्रकार का साहित्य धर्म की दृष्टि से परलोक-साधक को उतना ही आनन्द देकर उसका मार्गदर्शन करता है या कर सकता है कि जितना आज के लोक-साधक के धर्म की रक्षा करते हुए उसके इस लोक की।
धर्म और साहित्य व्यापक मानवीय दृष्टि और सन्दर्भ में मानव-मानव में किसी प्रकार का भेद न तो करते हैं, न करने की प्रेरणा ही देते हैं, फिर भी धर्म का सम्बन्ध विशुद्ध रूप से मानव या मानवों के किसी वर्ग-विशेष के मन का विषय माना जाता है। इस दृष्टि से कहा जा सकता है कि धर्म के सम्बन्ध में प्रत्येक व्यक्ति के अलग-अलग विचार और धारणाएँ हो सकती हैं, पर तब हमें धर्म के उस संकुचित- सीमित अर्थ को ग्रहण करना होगा, जो विशेष प्रकार की ईश्वरोपासना या पूजा पद्धतियों से सम्बन्धित है न कि एक व्यापक और व्यावहारिक सहज-उदात मानवीय धर्म से जो किसी भी तरह के भेदभाव पर विश्वास नहीं रखता। कबीर, नानक, विवेकानन्द, गांधी, बिनोबाभावे आदि का, तालस्टाय जैसे लेखकों और रवीन्द्र जैसे कवियों का धर्म ऐसा ही था। इसके विपरीत साहित्य भी मन की भावनाओं का विषय है अर्थात् इसका उद्गम स्थल भी व्यक्ति का मन ही मुख्य रूप से माना गया हैं। बुद्धि और कल्पना तो उसे मान-मर्यादा और सौन्दर्य के तटबंध ही दे पाते है और कुछ नहीं। भीतरी और बाहरी दोनों स्तरों पर साहित्य का प्रयोजन और प्रभाव राष्ट्रीय अन्तर्राष्ट्रीय स्तरों पर एक जैसा ही रहा करता है। उनमें कहीं विभेद दिखाई देता है, तो वह केवल भाषा या बोली के स्तर पर ही कालिदास भास, होमर, शेक्सपीयर, गेटे, मिल्टन, रवीन्द्र, तुलसी, सूर आदि सर्वत्र एक समान ही पढ़े जाते हैं-धार्मिकों द्वारा भी अधार्मिकों द्वारा भी ।
मेरे विचार में साहित्य यदि धर्म के मूल, व्यापक और सहज उदात्त मानवीय व्यावहारिक तत्त्वों का अनुशासन अपनी सृजन प्रक्रिया और निर्माण में स्वीकार कर ले, तो इससे मानवता का बहुत कल्याण हो सकता है। नैतिकता, सच्चरित्रता, प्रेम, अहिंसा, अपरिग्रह आदि सभी उदात्त गुण वस्तुतः धर्म की ही देन है और भक्ति काल उसके बाद आधुनिक काल के प्रथम दो चरणों में रचे गए साहित्य ने इन्हीं अधिगृहीत तत्त्वों को प्राश्रय दिया। कहा जा सकता है कि इस सबका जनमानस पर वही प्रभाव पड़ा जो धार्मिक मानस पर और धर्म ग्रन्थ पर पड़ सकता है। इससे साहित्य और धर्म दोनों का महत्त्व, मान और मूल्य बढ़ा ही है कम कतई नहीं हुआ। ऐसा धर्म और साहित्य के एक ही सत्य के उपासक होने से ही सम्भव हुआ है ।
आज धर्म और साहित्य दोनों भटकाव, अस्तित्व की तलाश और पुनर्रचना के दौर से गुजर रहे हैं, इसी कारण विश्व-मानवता के सामने भी सहज मानवीय नैतिकता और उदात्त मूल्यों को पाने, उनकी रक्षा का ज्वलन्त प्रश्न उपस्थित है, साहित्य और धर्म गलबहियाँ डालकर ही उस लक्ष्य की पूर्ति में सहायक हो सकते हैं, अन्य कोई नहीं।